November 24, 2024

वे जहां कहीं चले जाते हैं
वहीं छोड़ जाते हैं
शरीर से उठती गंध
वही अंतिम गंध
जिसमें उनके पसीने थे
जिन्होंने उठाया था
तुम्हारे महलों को कंधों पर

वे जहां कहीं भी
चले जाते हैं
अपने साथ ढोते रहते हैं
पसीनों की अनवरत बोझ

जहां कहीं भी होते हैं
ऐसे ही इंसान
मजदूरी ही तो है
उनके श्रम का ईमान.

©मोतीलाल दास

नोट – यह कविता विभोम स्वर/सिहोर के अप्रैल-जून’2022 अंक-25 में प्रकाशित.

(मजदूरों के हक में हर आवाज बुलंद हो)

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