मजदूर
वे जहां कहीं चले जाते हैं
वहीं छोड़ जाते हैं
शरीर से उठती गंध
वही अंतिम गंध
जिसमें उनके पसीने थे
जिन्होंने उठाया था
तुम्हारे महलों को कंधों पर
वे जहां कहीं भी
चले जाते हैं
अपने साथ ढोते रहते हैं
पसीनों की अनवरत बोझ
जहां कहीं भी होते हैं
ऐसे ही इंसान
मजदूरी ही तो है
उनके श्रम का ईमान.
©मोतीलाल दास
नोट – यह कविता विभोम स्वर/सिहोर के अप्रैल-जून’2022 अंक-25 में प्रकाशित.
(मजदूरों के हक में हर आवाज बुलंद हो)