November 21, 2024

तीन महारथियों के पत्र:डॉ रामविलास शर्मा

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डॉ रामविलास शर्मा नाम हिंदी के श्रेष्ठ आलोचकों में लिया जाता है।उनके विपुल आलोचनात्मक लेखन में विषयों की विविधता है।मानविकी के विभिन्न अनुशासनों में जैसा उनका दखल रहा है, वैसा बहुत कम दिखाई देता है।उनके अध्ययन की इस विविधता और गहराई के कारण उनके संपर्क और परिचय का क्षेत्र भी व्यापक रहा है। विभिन्न अनुशासनों के विद्वानों से उनका सम्पर्क और सम्वाद रहा।इस सम्वाद का कारण उनके ज्ञान के अलावा उनका व्यक्तित्व भी था। उनके उनके जैसा कर्मनिष्ठ, सहज, अनथक अध्येता और स्वाभिमानी व्यक्तित्व कम हुआ करते हैं।यह उनके सम्पर्क में आये व्यक्तियों के संस्मरण और पत्रों से स्पष्ट होता है। रामविलास जी ने विभिन्न व्यक्तियों द्वारा उनको लिखे गए पत्रों को सहेज कर रखा जो समय-समय पर प्रकाशित हुए। उनके अभिन्न मित्र केदार नाथ अग्रवाल के साथ उनका पत्र संवाद ‘मित्र सम्वाद’ के नाम से 1991 में प्रकाशित हुआ। अन्य कवियों द्वारा लिखे गए पत्र ‘कवियों के पत्र’ नाम से 1997 में प्रकाशित हुआ।उनके एक और खास मित्र अमृत लाल नागर में साथ उनका पत्र सम्वाद, उनके निधन के बाद ‘अत्र कुशलं तत्रास्तु’ नाम से 2004 में प्रकाशित हुआ, जिसका सम्पादन विजय मोहन शर्मा और शरद नागर ने किया है ।प्रस्तुत पुस्तक ‘तीन महारथियों के पत्र’ 1997 में प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन डॉ शर्मा ने ही किया है।

डॉ शर्मा अपनी किताबों में लम्बी भूमिका लिखते रहें। ये भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं, क्योकि इनमें किसी अन्य लेखक की अपेक्षा विषय के केन्द्रीयता का विवेचन विस्तृत रूप में मिलता है। इसी क्रम में वे पत्र संकलनों की भूमिका में भी विस्तृत रूप से सम्बंधित लेखकों के व्यक्तित्व और उनके साहित्य के महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर करते हैं।’तीन महारथियों के पत्र’ में वृंदावन लाल वर्मा, बनारसी दास चतुर्वेदी और किशोरीदास वाजपेयी द्वारा डॉ शर्मा को लिखे गए पत्र हैं। इस तरह यह एकतरफा सम्वाद है, क्योंकि डॉ शर्मा द्वारा उक्त लेखकों को लिखे गए पत्र इसमे संकलित नही हैं।बहरहाल जितना है उतना भी महत्वपूर्ण है। इन पत्रों से उक्त लेखकों के बारे में जानकारी तो मिलती ही है, रामविलास जी के बारे में भी कई जानकारियां मिलती हैं।

【1】

कथाकार वृंदावन लाल वर्मा(1889-1969) अपने ऐतिहासिक उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ उनका प्रसिद्ध उपन्यास है।रानी लक्ष्मीबाई सन सत्तावन (1857)की लड़ाई से सीधे जुड़ी थी। वर्मा जी ने उपन्यास में जहां साम्राज्यवाद की तीखी आलोचना की है, वहीं सामन्तवाद की कमियों को दिखाया है। सामन्तो के वैभव की अपेक्षा उनकी निगाह जनता पर अधिक होती थी।डॉ शर्मा लिखते हैं “अपने उपन्यासों में हिन्दू सैनिकों के साथ वह मुसलमान सैनिकों के शौर्य का चित्रण भी करते हैं। अनेक उपन्यासों में वह अपने पात्र निम्न वर्णों से चुनते हैं। पुरुषों के साथ वह स्त्रियों की वीरता के चित्रण पर विशेष ध्यान देते थे। झांसी के युद्ध में रानी लक्ष्मी बाई के साथ झलकारी कोरिन को अमर कर दिया है।”

डॉ शर्मा सन सन्तावन के विद्रोह को साम्राज्यवाद विरोधी और सामंत विरोधी मानते हैं।उनकी पुस्तक ‘सन सत्तावन की राज्यक्रांति'(1957)में इस सम्बन्ध में उनकी स्थापनाएं हैं।इस तरह इस सम्बन्ध में दोनों लेखकों में विचार साम्य है।डॉ शर्मा की आलोचना दृष्टि लोकवादी रही है, और आलोचना में इसके लिए उन्होंने व्यापक संघर्ष किया। वे प्रगतिशील आलोचकों द्वारा वर्मा जी के उपेक्षा पर लिखते हैं “हमारे देश के मार्क्सवादी विचारकों ने यहां की सामंत-विरोधी परम्पराओं पर कम ध्यान दिया है। इसका परिणाम यह हुआ है, जिन लोगों ने इन परम्पराओं को उभारते हुए साहित्य रचा है, इन विचारकों ने अधिकतर उनकी उपेक्षा की है। हिंदी के प्रगतिशील साहित्य के सूत्रधारों की जितनी दिलचस्पी नई कहानी, नई कविता, नई समीक्षा में थी, उतनी वृंदावन लाल वर्मा जैसे कथाकारों के साहित्य में नहीं।” डॉ शर्मा आगे लिखते हैं कि भले भारत के मार्क्सवादियों ने उनकी उपेक्षा की मगर उनका मूल्य सोवियत संघ के सजग हिंदी विशेषज्ञों ने पहचाना। पत्रों में जगह-जगह इस बात का उल्लेख है जिससे पता चलता है कि तत्कालीन सोवियत संघ में उनकी पुस्तकों के अनुवाद हो रहें थे और उनकी समीक्षाएं लिखीं जा रही थी। वर्मा जी को एक बार रूस जाने का अवसर भी मिला।

वर्मा जी जिस विषय पर उपन्यास लिखते थे उस पर पहले काफी अध्ययन कर लेते थे और उससे जुड़े भौगोलिक क्षेत्रों दौरा भी करते थे। कई पत्रों में इस बात का जिक्र है।वे लोक जीवन के चरित्रों की सबलता पर कितना ध्यान देते थे इसका उदाहरण एक पत्र[16/7/55] में-

“हमीरपुर जिले के एक स्त्री की बात याद आ गई। झाँसी स्टेशन से मऊ की ओर जा रही थी। बड़े बड़े पैजन पहिने थी, जिनके कंकड़ों की आवाज़ दो-चार फलांग तक जाती होगी। एक गुंडे का मन फिरा। स्त्री डिब्बे में बैठने को हुई। वह दरवाज़े पर बराबरी में आ गया।’माया’ ‘मनोहर कहानियां’ की कहानियों का कोई पात्र बनना ही चाहता था कि स्त्री लौट पड़ी। स्त्री ने गुंडे को बेभाव पीटा। गुंडा गिर पड़ा। स्त्री ने उसकी छाती पर भारी पैजनेवाला अपना पैर रोप दिया। वह हा-हा-हा खाने लगा। मुश्किल से प्राण बचा पाये गुंडे ने अपने। अब इस स्त्री को अपने ढंग से कहीं पेश कर दूँ तो रेस्त्रां में भोजन करने वाले नाज़ुक मिज़ाज़ आलोचक जिनके उपचेतन मन पर अमेरिका और फ्रांस के कुछ उपन्यास लेखक छाये हों तो बस आई मुसीबत मेरी।”

वर्मा जी डॉ शर्मा को कितना मान देते थे, इसका पता उनके पत्रों से चलता है। एक पत्र[3/6/58] में लिखते हैं ” ‘अपनी कहानी’ में आप को पकड़ रहा हूँ-पहले पहल जब मिलें, उस समय कमरे में कुछ अँधेरा था। फिर मिले दूसरे घर में जहाँ उजाला ही उजाला था। न पहिचान पाया तो हज़रत बोले, ‘मैं हूँ रामविलास शर्मा, अब न भूल जाइयेगा!’ और उस हँसी के साथ जो सादगी, शरारत, मधुरता और निर्भीकता में अपनी सानी नहीं रखती, उन हज़रत को अपने किसी ऐतिहासिक उपन्यास ने न पकड़ा तो मेरा नाम नहीं।”

वर्मा जी और डॉ शर्मा की बातें इतिहास की समस्याओं को लेकर भी होती थी, खासकर 1857 के विद्रोह को लेकर। एक पत्र[28/5/59] में 1909 में छपे एक पुस्तक ‘Revolt in central India’ का उल्लेख करते हैं जो केवल ब्रिटिश अधिकारियों के लिए लिखी गई थी।वर्मा जी लिखते हैं “मेरी तबियत तो उस समय ‘बाग़ बाग़’ हो गई जब उसमे पढ़ा कि ‘Women were working in the batteries’, उधर हमारे मजूमदार और सरकार हैं जो इसकी ओर आँख भी न फेरेंगे!” इसी तरह[11/2/57] के पत्र में अवध के अम्बरपुर के निकट के स्थान का जिक्र करते हैं जहां “34(चौतीस) किसानों ने (और ये ‘Mutineers’ नही थे) बीस हजार का मुकाबला किया!तारीख और विवरण मिल गए हैं। चौतीसों अपने ठौर पर बन्दूकें जकड़े मरे पाये गये थे! इनको हमारा सौ सौ बार प्रणाम। क्या कभी कोई इनका स्मारक बनायेगा? स्रोत अगले पत्र[4/3/57]में बताते हैं “Malleson’s Indian Mutiny Vol-iv p 227”

पत्रों से कई साहित्यकारों और क्रांतिकारियों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं ।इस सम्बन्ध में रामविलास जी ने भूमिका में लिखा है “वर्मा जी के पत्रों से हिंदी भाषा और साहित्य के बारे में बहुत सी बातों की जानकारी होती है। वह उन थोड़े से लेखकों में थे जिन्होंने प्रारम्भिक दौर के प्रेमचन्द की हिन्दी देखी थी। इस प्रसंग में उन्होंने लिखा था : ‘प्रेमचन्द जी के पहले-पहले-बिल्कुल प्राथमिक से-लेख गणेश जी ने मुझे कार्यालय में दिखलाए थे [अर्थात गणेशशंकर विद्यार्थी ने उनके लेख प्रताप कार्यालय में दिखलाए थे ]। वैसी हिंदी लिखते-लिखते फिर वह कैसी लिखने लगे और लिखते रहे, अवगत करके आश्चर्य होता है।'[19/3/59]प्रेमचंद, निराला, वृंदावन लाल वर्मा, ये सब लेखक किसी न किसी समय गणेशशंकर विद्यार्थी और प्रताप कार्यालय से जुड़े हुए थे। कानपुर के रमाशंकर अवस्थी वर्मा जी को वहीं मिले थे। इलाहाबाद के गंगापारके जा कर उन्होंने समुद्रगुप्त का बनवाया हुआ समुद्रकूप उन्हें दिखलाया था।”

【2】

बनारसी दास चतुर्वेदी(1892-1985) प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक हैं। उनकी ख्याति मुख्यतः ‘विशाल भारत'(मासिक पत्रिका)के संपादक के रूप में अधिक है। इसके अलावा ‘प्रवासी की डायरी’ तथा क्रांतिकारियों पर भी उन्होंने साहित्य प्रकाशित कराए हैं। ‘विशाल भारत’ के संपादन के समय उन्होंने निराला जी का काफी विरोध किया था। रामविलास जी ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में चतुर्वेदी जी की आलोचना की है, मगर इन पत्रों में निराला प्रसंग नही हैं। रामविलास जी के अनुसार “द्विवेदी जी के बाद शायद वह सबसे प्रभावशाली संपादक थे।”

चतुर्वेदी जी स्वयं को ‘अराजकता वादी’ कहते थे;यद्यपि वे राज्य सभा के सदस्य रहे थे। वे स्वयं कई पत्रों में इसकी चुटकी लेते हैं। क्रांतिकारियों से उनकी सहानुभूति के बारे में भूमिका में डॉ शर्मा लिखते हैं ” गैर-मार्क्सवादी क्रांतिकारियों से उन्हें गहरी सहानुभूति थी। उनसे सम्बंधित बहुत सा साहित्य उन्होंने प्रकाशित कराया।वह समझते थे की ये लोग पक्के अराजकतावादी हैं। पर इनमें अधिकांश पुराना रास्ता छोड़ साम्यवाद की ओर बढ़ रहे थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी हो गए थे। इनमें शिव वर्मा और भगवान दास माहौर भी थे। अराजकतावादियों की नीति अक्सर जन-विरोधी होती है, जिसके फलस्वरूप समाज में विकृतियाँ पैदा होती हैं। इस तरह की आलोचना चतुर्वेदी जी की आलोचना में नहीं है। वह सबको मिलाकर चलने में जोर देते थे। पर सबको मिलने में राजनीतिक मतभेद बाधक होता है। साहित्य में राजनीतिक प्रश्नों को हटा कर केवल साहित्यिक-प्रेम के आधार पर लोगों को संगठित नहीं किया जा सकता। चतुर्वेदी जी स्वयं प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील लेखकों में भेद करते थे।”

उनकी पुस्तक ‘प्रवासी भारतवासी’ के बारे में डॉ शर्मा भूमिका में लिखते हैं “अपने साहित्यिक जीवन के प्रारम्भिक दौर में उन्होंने ‘प्रवासी भारतवासी’ नाम की पुस्तक लिखी थी। गोरे पूँजीपति भारत के भोले-भले मजदूरों को फुसला कर बाहर ले जाते, उनसे कुलीगिरी कराते, उनसे गुलामो जैसा व्यवहार करते थे। इसकी तीव्र निंदा उस पुस्तक में उन्होंने की है। वह साम्राज्यविरोध की भावना सतह पर न दिखाई देती थी पर भीतर-भीतर अंतिम समय तक मौजूद अवश्य थी।”

डॉ शर्मा स्वयं मेहनत करते थे दूसरों को भी उत्साहित करते करते थे;इसलिए लोग उनका सम्मान करते थे। एक पत्र में [27/11/51] में चतुर्वेदी जी लिखते हैं “आपकी लगन का मैं कायल हूँ-परिश्रमशीलता की दाद देता हूँ और भिन्न-भिन्न स्रोंतों से आपकी निस्वार्थ सेवाओं का पता मुझे लगता रहता है। आप जिन परिस्थितियों में काम कर लेते हैं, उससे जहां मुझे अपने प्रमाद पर लज्जा आती है, वहां प्रोत्साहन भी मिलता है।”

चतुर्वेदी जी हास्य-विनोद से परिपूर्ण थे। उनके अधिकांश पत्रों में यह दिखाई देता है। वे पत्रों में अक्सर हिंदी वाक्य के बीच अंग्रेजी शब्द अथवा अंग्रेजी वाक्य के बीच हिंदी शब्द लिख देते थे। एक उदाहरण “Since every नास्तिक is destined to go to hell, i have applied to my uncle यमराज (जमना मैया के भैया!) to resevre a seat for me in कुम्भीपाक along with तिलोत्तमा or रम्भा, if you please!” [15/8/59]

【3】

किशोरीदास वाजपेयी(1898-1981) जी प्रसिद्ध वैयाकरण हैं। उनकी कृति ‘हिंदी शब्दानुशासन’ भाषा के विकास और भाषाओं के परस्पर सम्बंध पर तत्कालीन प्रचलित मान्यता से भिन्न दृष्टि रखती है। वे भाषा के विकास के संस्कृत-पाली-प्राकृत-अपभ्रंश सीढ़ी को स्वीकार नहीं करते। इस तरह वे आधुनिक भारतीय भाषाओं को संस्कृत की पुत्री भाषा नहीं मानते, अपितु मानते हैं इन भाषाओं का भी प्राचीन रूप रहा है, और उनमे परस्पर आदान प्रदान के सम्बन्ध रहे हैं।

डॉ शर्मा के अध्ययन के निष्कर्ष भी स्वतंत्र ढंग से इसी दिशा में निकल रहे थें। ऐसे में जब वाजपेयी जी ने 1959 में अपनी पुस्तक (हिंदी शब्दानुशासन) रामविलास जी द्वारा सम्पादित ‘समालोचक’ में समीक्षा के लिए भेजी, और डॉ शर्मा ने उसकी समीक्षा लिखी तो उन्हें अत्यधिक प्रसन्नता हुई है। इस तरह उनमे मित्रता और पत्र व्यवहार प्रारम्भ हुआ। वाजपेयी जी ने कई पत्रों में इस बात का उल्लेख किया है कि उनके काम को डॉ शर्मा और राहुल सांस्कृत्यायन ने ही उचित मान दिया।इस पुस्तक की भूमिका में भी डॉ शर्मा ने उन्हें “हिंदी के महान वैयाकरण” कहा है। बाद में जब डॉ शर्मा ने ‘भाषा और समाज’ तथा ‘प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ लिखी तो उन्हें विशेष प्रशंसा हुई।

वाजपेयी जी के पत्रों में अधिकतर भाषा संबंधी और शब्दों की व्युत्पत्ति संबंधी चर्चा है। मगर इसके अलावा भी पारिवारिक सुख-दुख, समस्याओं का चित्रण है।साहित्य समाज की एक विडम्बना जो कमोबेश आज भी है। “जैसे आपकी कृतियों को लोग मौन ग्रहण, करते हैं, उसी तरह मेरी पुस्तकों को भी। ईर्ष्या से हर्ष नहीं प्रकट कर सकते, मन में चाहे जितनी अच्छी लगे चीज। जहाँ मत-भेद हुआ, वहाँ भी खुलकर बोल नहीं सकते, डरते हैं कि कहीं अपनी ही जड़ता न हो और भद्द कूटे। चुप्पी के ये ही दो कारण हैं। मेरी पुस्तकों से सब लेते हैं, पर नाम किसी ने नहीं लिया। यह पहला अवसर है कि एक पुस्तक में -“भाषा और समाज” में- अपनी किसी पुस्तक के उद्धरण देखे, अपना नाम देखा।”[9/10/61, वाजपेयी जी]

आर्थिक तंगी किस तरह इस देश में रचनात्मक व्यक्तियों के लिए समस्या रही है, इसे वाजपेयी जी के एक पत्र[19/2/62] से देखा जा सकता है “बेटी का ब्याह सचमुच नारियल और एक रुपए में करना चाहता था; परन्तु तीन वर्ष तक सिर मारने के बाद अनुभव हुआ कि मेरी लड़की इस “धर्म-प्रधान” और “संस्कृति-प्रधान” देश में अनब्याही ही रहेगी। सर्वत्र “क्या खर्च करोगे?” मैं ने इस इतनी उम्र में कभी सौ रुपये भी न जोड़े थे;न जोड़ पाया! लोहे के चबाने पड़े बच्चों को रोटी-दाल देने में। तब हजारो कहाँ से लाता!” ‘धर्मप्रधान’ और ‘संस्कृति प्रधान’ में व्यंग्य स्पष्ट है। बरबस निराला याद आ जाते हैं।

ऊपर कहा गया है कि उनके पत्रों में अधिकतर भाषा विज्ञान की समस्याओं का जिक्र है। वाजपेयी जी और डॉ शर्मा दोनो मानते थे कि संस्कृत सहित प्रारम्भिक भाषाओं का विकास गण समाजों के दौर में उनके आपस में मिलने से हुआ है। इस सम्बन्ध में वायपेयी जी एक पत्र [24/10/79] में महत्वपूर्ण तर्क देते हैं, और यह भी बताते हैं अनेकार्थक शब्द नहीं हुआ करतें, वे भिन्न अर्थ देने वाले समोच्चरित स्वतन्त्र शब्द होते हैं “अनेक गणों की भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान हुआ है, इस स्थापना में एक यह भी तर्क है कि यदि ऐसा न होता ,तो वैदिक-भाषा में और संस्कृत में भी एक ही अर्थ में अनेक शब्दों का संकेत न होता। एक ही अर्थ के लिए जल, वारि, वन, नीर आदि बहुत से शब्दों का प्रयोग हेल-मेल सिद्ध करता है। और एक ही शब्द के अनेक अर्थ भी यही सिद्ध करते हैं।फ़ारसी में भी “दस्त” जैसे शब्द हैं, जिनके अनेक अर्थ हैं। काव्य शास्त्र में किसी भी शब्द का संकेत अनेक अर्थों में नहीं माना गया है। कहा गया है जितने शब्द, उतने ही अर्थ-यानी एक शब्द के अनेक(वाच्य) अर्थ नहीं हो सकते। कोई भी बुद्धिमान श्रोता से न कहेगा कि इस शब्द से यह अर्थ समझना और यह भी। “कनक” शब्द एक और उसके अर्थ दो- सोना और धतूरा, यह काव्यशास्त्र नहीं मानता। जहां एक शब्द से दो अर्थ निकलते हैं, वहाँ शब्द भी दो ही हैं, परंतु उनका रूप(बोलने और लिखने में) एक-सा है और वे दोनो शब्द श्लिष्ट हैं- एक दूसरे से चिपके हुए हैं। “यावन्त: शब्दास्तवन्तोर्था:” सिद्ध शास्त्र है! इस पर भी विचार करें।”

इसे आगे एक पत्र [3/11/79] में और स्पष्ट करते हैं “मुख्य बात तो वेद भाषा और समकालीन गणभाषाओं की थी। यास्क ने अपने निरुक्त में एकार्थक अनेकों शब्दों की सूचियाँ दी हैं। संस्कृत भाषा में भी यही स्थिति है। उसी पर ध्यान दें। संस्कृत में “कनक” आदि अनेकार्थक शब्द नही हैं। दो अर्थ निकलते हैं ,तो दो शब्द हैं, और दो में से एक शब्द अन्यत्र से आया हुआ है; क्योंकि कोई ऐसा संकेत नहीं कर सकता कि इस शब्द से यह अर्थ समझना और यह भी। एक गण में एक शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में हो सकता है।”

एक अन्य पत्र [4/11/79] में ‘नगर’ शब्द की उत्पत्ति की सम्भावना पर रोचक प्रकाश डालते हैं “आप जिस अर्थ में “गण” शब्द का प्रयोग करते हैं, उसी अर्थ में(वैदिक काल में) “ग्राम” शब्द का भी प्रयोग होता था। यास्क ने ये दोनो शब्द “निरुक्त” में दिए हैं। जब घुमन्तु ग्राम कहीं एक जगह बसकर स्थायी रूप से रहने लगे, तब उस “ग्राम” को “नगर ग्राम” कहने लगे। न-गर-न गलने-उजड़ने वाला ग्राम “नगर ग्राम”। जब झुग्गी-झोपड़ी या कच्चे मकानों की जगह पक्के मकान बनाना आ गया और किसी ग्राम ने कुछ वैसे मकान एक जगह बनाकर रहना आरम्भ किया, तब “नगर” विशेषण संज्ञा बन गया; जैसे “संस्कृत भाषा” का विशेषण संज्ञा बन गया -संस्कृतम् , “नीलः मणि:” का विशेषण संज्ञा बन गया- “नीलम”। और “जाल: आनाय:” का विशेषण बन गया-जालान्। उसी तरह “नगर: ग्रामः” का विशेषण नपुंसक लिंग संज्ञा – “नगरम्”। यह मेरा अनुमान है। इस पर भी विचार कीजिएगा।”

इस तरह और भी कई उदाहरण पत्रों मे हैं, जो ज्ञान वर्धक हैं। वाजपेयी जी डॉ शर्मा को कितना पसंद करते थे, यह उनके कई पत्रों में झलकता है “किसी के गले कोई बात उतरे, चाहे न् उतरे; मुझे तो आप एक ” समानधर्मा” इसी जन्म में मिल गये, यही मेरा सौभाग्य है।” [13/11/79] ।

इस तरह तीन महारथियों के पत्रों के माध्यम से उनके कार्य, व्यक्तित्व के साथ-साथ उस युग के बारे में बहुत सी जानकारियाँ मिलती हैं। संकलन में डॉ शर्मा के लिखे पत्र नहीं हैं, यदि वे होते तो कई और महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती। फिर भी भूमिका और इन लेखकों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व और कार्यों की जानकारी मिलती है। उल्लेखित तीनो लेखक उम्र में उनसे बड़े थे; फिर भी उनका बहुत सम्मान करते रहे तो इसका कारण उनका अध्यवसाय, निर्भीकता,सहज व्यक्तित्व और ज्ञान है। इससे साहित्य के विद्यार्थी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

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कृति- तीन महारथियों के पत्र
संपादन- डॉ रामविलास शर्मा
प्रकाशन- वाणी, नयी दिल्ली

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[2020]

●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728320

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