बार-बार पढ़ने को मजबूर करता नीलिमा पांडेय का ‘सफर में इतिहास’
(समीना खान/ Sameena Khan)
‘सफर में इतिहास’ किताब हाथ में आई तो ख्यालात का एक न थमने वाला सफर साथ हो लिया. मेरे लिए इस किताब का अनुभव बड़ा ही दिलचस्प रहा. किताब के पलटते पन्नों के साथ इस दिलचस्पी में विस्तार होता गया जिसके नतीजे में ख़यालात की परवाज जैसे कई मैदानों और कई आसमानों के सफर कराती गई. इसमें कई काल थे, कई वंश थे, कई हुनर थे और हर जमाने के अपने रीती-रिवाज और जबानें थीं.
हालांकि इतिहास के हवाले से सबसे सटीक पंक्तियां स्कॉटिश जीवविज्ञानी और समाजशास्त्री पैट्रिक गेडेस रच गए हैं. उनका कहना है- ‘कभी-कभी रुककर सोचना और आश्चर्य करना दिलचस्प होता है कि जिस स्थान पर आप वर्तमान में हैं, वह अतीत में कैसा हुआ करता था, वहां किसने विचरण किया, वहां कौन काम करता था और इन दीवारों ने क्या क्या देखा है.’
मगर हमारे दौर का पाठक यानी होमो सेपियन्स इस जमाने में अक़्ल के जिस उरूज पर है, वहां शांत मन एक न मयस्सर आने वाली शय है. मन की अशांति और इतिहास के इस सफर को साधने की भरपूर कोशिशों के बावजूद ‘सफर में इतिहास’ संग जो महसूस किया उसमें कुछ किरदार ख़ुद-बख़ुद दाखिल होते गए. किताब पढ़ने के साथ एक समानांतर वार्तालाप और विचारों के सहयात्री अंत तक बने रहे. इनमे से कुछ का जिक्र करना चाहेंगे.
किताब का शीर्षक, कवर पेज और प्रवेशिका पढ़ने तक मेरा यह खयाल और मजबूत हो गया था कि फॉरेस्ट गंप और टॉम हैंक्स से मुतास्सिर आमिर खान को क्या जरूरत थी कि मुँह उठाकर बिना सोचे समझे निकल पड़ें और चार बरस से ज़्यादा चलते रहें, वह भी बिना मकसद. इसके बरअक्स सफर में इतिहास की बात करें तो सवा दो सौ पन्नों की ये किताब महज आठ बरस में की गई कुछ यात्राओं की डायरीनुमा है जिसमें पहले पन्ने पर प्रोफेसर नीलिमा पाण्डेय लिखती हैं- ‘यात्राओं के दरमियान जनश्रुति, लोक परंपरा, पुराण, इतिहास और पुरातत्व का सानिध्य जरूरी होता है.’ ठीक वैसे ही जैसे खुशवंत सिंह के बामकसद सफर.
ऐसी बेशुमार पंक्तियां इस किताब के कई पन्नों पर दर्ज हैं जिन्हें एक बार पढ़ने के बाद दोबारा पढ़ने और अंडर लाइन किए जाने की ख़्वाहिश को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. मसलन-‘महज़ जगहों से गुज़रना यात्राओं को कमतर करता है. यात्रा माने इतिहास से एकरूप हो जाना. इतिहास के गर्व और शर्म को दोनों हाथों से थाम लेना.’ और इसी में यात्रा के लिए कहा गया है- ‘असल मुलाकात तो हम अपने आप से करते चलते हैं.’ किताब की प्रवेशिका उस लिफाफे की मानिंद है जो अंदर के मज़मून का हाल बयान कर जाती है. यकीनन इतिहास के गर्व और शर्म की बात करना बताता है कि किताब पूरी निष्पक्षता के साथ लिखी गई है.
‘सफर में इतिहास’ में बारह अध्याय हैं और इनमें से ज़्यादातर बुद्ध के गिर्द परिक्रमा करते गुजरते हैं. साल 2015 से 2023 के बीच किए गए इन सफर में जो कुछ लिखा गया है उसे तथ्यात्मक, दिलचस्प और शानदार बनाने वाली टूलकिट पाठक को न सिर्फ किताब से बांधकर रखती है बल्कि हर चैप्टर में पाठक को उस जगह के दीदार का न्योता देने की खूबी भी नजर आती है. जी हाँ! इस टूल किट में शामिल है- इतिहास की विस्तृत और बारीक पकड़, स्याह को स्याह और सफेद को सफेद कहने की हिम्मत और भाषा पर बेहतरीन लगाम. हमेशा से एक धुंध और गुबार में पाया जाने वाला इतिहास इस सफर और टूल किट के बहाने काफी शफ़्फ़ाफ नजर आता है.
सफर के दौरान इतिहास और वर्तमान के बीच तारतम्य बैठाते हुए कुछ कटाक्ष भी हमसफर हुए हैं जिनमें से कुछ का जिक्र किए बिना आगे बढ़ना ज़रा नाइंसाफी होगी. ‘यह वह मगध नहीं’ अध्याय में ‘गया से बोधगया’ शीर्षक के तहत पृष्ठ 37 पर दर्ज इबारत- “गया पितृ तीर्थ का प्रसिद्ध स्थल है. फल्गु नदी के किनारे बसे इस शहर की प्रसिद्धि विष्णु पद मंदिर से है. नदी तट पर स्थित मंदिर पण्डे, पुरोहितों का प्रिय ठीहा हैं. यहां स्वर्ग और नर्क की रस्साकशी में फंसा जनसमुदाय उनको रोजगार मुहैया करवाता है. यजमान यहां आडम्बर और पाखंड की तनी हुई रस्सी पर भयग्रस्त कदम साधे चलते हैं.” या फिर इसी शीर्षक के तहत पृष्ठ संख्या 43 से – ‘…बनारस में मृत्यु का कारोबार प्रबल है जबकि गया में श्राद्ध का.” इसी पृष्ठ से- “देवलोक तो देवलोक पृथ्वीलोक के वासी भी आए दिन इंद्र को हैरान करते रहते हैं, इधर किसी तपस्वी ने आसान जमाया और उधर इंद्र का सिंहासन डोला.”
‘भोपाल से आगे…’ अध्याय में ‘पुरखों का घर भीमबेटका’ शीर्षक में जिन औजारों की जानकारी दी गई है वह एक लाख से चालीस हजार वर्ष पुराने हैं और इस तरह मानव विकास के साथ औजार और चित्रकारी के विकास तक की झलक मिलती जाती है. इतिहास के साथ भूगोल की जानकारी विस्मृत करने वाली है जब ‘नवाबों का शहर भोपाल’ के सफर में जिक्र आता है- ‘…जहां से कुछ ही दूरी पर कर्क रेखा गुजरती है.’ इस मालूमात ने शाह अज़ीमबादी की याद दिला दी जिनकी मालूमात की कमी उन्हें मक़बूल कर गई थी, उनकी ही ज़ुबानी कुछ इस तरह –
सुनी हिकायत-ए-हस्ती तो दरमियां से सुनी
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
मगर इस सफर में इब्तिदा और इंतिहा के साथ बहुत कुछ ऐसा था जिसने हैरान भी किया. मसलन पृष्ठ 77 पर ‘कुशीनगर में एक दिन’ शीर्षक के तहत बुद्ध और आनंद का वार्तालाप. “महापरिनिब्बान सुत्त में गौतम बुद्ध के अंतिम संस्कार से सम्बंधित सूचनाऐं दर्ज हैं. इसी सुत्त में हमें जानकारी मिलती है कि जब आनंद ने बुद्ध से यह जानना चाहा कि, ‘उनका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए?’ तो उन्होंने संक्षेप में उत्तर दिया, “जैसा चक्रवर्ती सम्राटों का होता है.”
ज्ञान प्राप्ति के लिए राज-पाठ और परिवार का त्याग करने वाले बुद्ध का यह जवाब हैरान करने वाला लगा और एक बार ख़याल आया कि कहीं कुछ टाइपो एरर तो नहीं. आगे बढ़ने के लिए डनिंग-क्रूगर प्रभाव से बाहर निकलना बेहतर लगा ताकि बाकी के पन्ने पलटे जा सकें.
क्योंकि इतिहास में इतिसिद्धम नहीं होता इस लिए इस पर ईमान लाना आसान नहीं, वह भी ऐसे युग में जब व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी का प्रोडक्शन अपने उरूज पर हो. जिन दिनों व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी नहीं थी तब भी इस विषय की गॉसिप की परवाज बड़ी लम्बी हुआ करती थी. हम में से ज़्यादातर का बचपन इस किस्से को सुनते बीता है कि शाहजहां ने ताजमहल बनाने वाले मजदूरों के हाथ कटवा दिए थे. जिन्होंने इतिहास को विषय की तरह चुना उनका पता नहीं मगर बाकियों के साथ यह किस्सा ताउम्र साथ चला और जरूरत पड़ने पर उसने इस दलील का भी सहारा भी लिया.
इसलिए ‘सफर में इतिहास’ के पाठक को इस किताब और लेखिका का शुक्रगुजार होना चाहिए. खासकर हिंदी पाठक को जिसके पास दुरुस्त इतिहास तक पहुंचने के विकल्प बहुत कम रह जाते हैं. ऐसे में किताब और भी प्रासंगिक हो जाती है जब इतिहास का अंड-बंड संस्करण और व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की सप्लाई का सैलाब, सूनामी का रूप धार चुका हो.
पत्रकारिता कहती है- ‘जो चल कर आए वह खबर नहीं’ और यही बात इतिहास के लिए भी लागू होनी चाहिए कि जो रात-दिन मुहैया कराया जाए उसका पाठक होने से कोरा रह जाना बेहतर है. सटीक से सटीक इतिहास की तलाश हिंदी पाठक को हमेशा मायूस करती है और नीलिमा पाण्डेय की यह किताब इस मायूसी को दरकिनार करने का ज़रिया बनती है.
इस किताब को पढ़ते समय टेलीविजन की दुनिया से जुड़ी कुछ यादें भी मस्तिष्क पटल पर दोहराती गईं. किताब के शीर्षक ने कई ऐसे चेहरे सामने ला दिए जो खुद को बुद्धिजीवी वर्ग में रखने के माहिर रहे हैं. अपनी दलीलों में जिन्हें ये कहते सुना है- ‘भई हम तो सिर्फ डिस्कवरी या नेशनल ज्योग्राफिक चैनल ही देखते हैं. क्या कमाल की रिसर्च करते हैं ये अंग्रेज, फोटोग्राफी का भी जवाब नहीं. एक बार इस चैनल की आदत पड़ जाए तो उसके बाद कोई इंडियन प्रोग्राम भाता नहीं.”
यह किताब ऐसे लोगों के सिरहाने होनी चाहिए और एक से ज़्यादा बार पढ़ी जानी चाहिए. महज इसलिए नहीं कि इसमें सफर है, रिसर्च है, इतिहास और भूगोल है, वर्तमान है, भाषा है, मौसम है, रीति-रिवाज और साहित्य है, इसमें अगर धरोहरों को सहेजने का शुकराना तो उनसे ज़्यादती की आलोचना भी है, बल्कि इसे इस नज़रिए से भी पढ़ा जाना चाहिए कि इतिहास पर रिसर्च करने वाली एक घुमक्कड़ महिला की डायरी में उसके विषय से हटकर भी कितना कुछ दर्ज करने की खूबी हो सकती है.
इस किताब के साथ जिस एक कमी को बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया है वह है इसमें मानचित्र का न होना. कई बार अपने सूबे या फिर देश के कुछ हिस्सों का इतिहास पढ़ते समय उसके भूगोल को जानने की ललक में नक़्शे की कमी बहुत खली. ऐसा लगा बीच में न सही अंत में ही अगर कुछ ऐसा इंतिज़ाम हो जाता तो जानकारी को जैसे मजबूती मिल जाती.
‘सफर में इतिहास’ पढ़ते समय आधुनिक इतिहास से एक बेहद अज़ीज चेहरा लगातार साथ रहा था. उसके ज़िक्र के साथ अपने इस सफर का समापन करना चाहेंगे-
मोहन दास करमचंद गांधी, देश या दुनिया के किसी भी हिस्से में होते और उन तक ये किताब पहुंचती तो इसे पढ़ने के बाद वह तीन चिट्ठियां लिखते. लखनऊ भेजे जाने वाले पहले पोस्टकार्ड पर लिखा होता- ‘नीलिमा! तुम ईमानदार लेखिका हो. तुम्हारी रिसर्च और यात्रा ने इस किताब को लिखकर तुम्हारे होने का हक़ अदा कर दिया है. दूसरी अच्छी बात है तुम्हारी भाषा. यह वही भाषा है जिसकी मैं पैरवी करता हूं, हम सबकी हिंदुस्तानी भाषा. आगे भी ऐसी यात्राएं करती रहो और लिखती रहो. शुभकामना.”
दूसरी चिट्ठी में वह सेतु प्रकाशन को धन्यवाद के साथ ताकीद भी करते कि इस मिशन को जारी रखना और तीसरी चिट्ठी में नेहरू को मुख़ातिब करते हुए कहते- ‘अब तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं. डिस्कवरी ऑफ इण्डिया के बाद भी न सिर्फ इतिहास रचा जाएगा बल्कि रिसर्च, ईमानदारी और तटस्थता के साथ रचा जाएगा.”