November 21, 2024

पुण्यस्मरण : ल क्ष्म ण म स्तु रि या

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मोर धरती मैया जय होवय तोर
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• प्रकृति मनुष्य की मौलिकता की पहचान है।मौलिक होने की प्राथमिक सुगन्ध लोकसंस्कृति की भूमिका रचती है।लोक का मन प्रकृति की सदाशयता और संस्कृति की विविधवर्णी रूप में जीवंत होती है।
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•जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत छत्तीसगढ़ की प्रकृति और संस्कृति का मंगलाचरण है।मस्तुरिया धरती माँ की वंदना करते हुए लिखते हैं –

मैं बंदत हौंव दिन रात वो
मोर धरती मईया
जय होवय तोर
मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

मैं बंदत हौंव दिन रात वो
मोर धरती मैया
जय होवय तोर
मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

लोक की जनवाणी का प्रतिनिधि रूप है यह लोकगीत!यहां छत्तीसगढिया मन धरती मां की वंदना कर रहा है।जहां वह निवास करता है।जिस धरती से उसे दाना-पानी मिलता है।दिन रात वंदना करने का भाव यहां अलौकिक बिल्कुल भी नहीं है।यह चरैवेति- चरैवेति के संदेश का लोक मुहावरा है।जहां विश्राम नहीं। किसान जीवन की मूल जीवन राग है यह पंक्ति।यह किसान ही है जिनके कारण धरती में अन्न का पैदावार सम्भव होता है।ऐसी वसुंधरा की जय कहना मनुष्य की कृतज्ञता का प्रमाण है।यह कृतज्ञता मनुष्यता का सारांश है।

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सूत उठ के बड़े बिहनिया
तोरे पईया लागव
सूत उठ के बड़े बिहनिया
तोरे पईया लागव

सुरुज जोत मा करव आरती
गँगा पांव पखारव
सुरुज जोत मा करव आरती
गँगा पांव पखारव

फेर काया फूल चढ़ावव
वो मोर धरती मईया
हाय रे मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

धरती का असल पुत्र किसान धरती माँ को प्रणाम करता है।यह प्रणाम बनावटरहित और कर्मकांड से अलहदा है।इसमें अतिरेक नहीं है।यह प्रदर्शन से कोसों दूर है।वह धरती की वंदना असल देव जिनको वे देख सकते हैं।जिनके ताप को महसूस कर सकते हैं।जिनके उजाले से अपने तन को ऊर्जा और मन के अंधेरे को भेदकर आशा की उजास में स्नात हो सकते हैं।ऐसे सूर्य को वे जोत के रूप में धरती माँ की वंदना के लिए प्रस्तुत करते हैं।यह आरती श्लोक पाठ से अलग कर्मपाठ से जुड़ी है।जिसकी शुभज्योति स्वयं सूरज है।फूल के रूप में धरती पुत्र किसान स्वयं को अर्पित करता है।वह किसी डाली या पौधे से उसके रंगबिरंगे फूल को जुदा नहीं करता इसके बदले अपने काया(शरीर)को पुष्प की जगह समर्पित करता है।धरती मैया के लिए स्वयं को किसान भी अर्पित करता है और जवान भी।यह शहादत की पराकाष्ठा है।जिसे प्रसिद्धि नहीं चाहिए।इस लोकगीत के साथ अगर वैदिक ऋचा ‘माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या:’को मिलाकर देखते हैं तो एक नया पाठ खुलता है।वेद अगर मनुष्य की माता पृथ्वी को और मनुष्य को पृथ्वीपुत्र कहता है तो सच्चे अर्थों में पृथ्वीपुत्र कौन यह प्रश्न उठता है?मनुष्य के झुंड के बीच यह लोकगीत हमें सीधे और सच्चे अर्थों में बताता है कि पृथ्वीपुत्र वही है जो अपनी धरती माँ के लिए स्वयं के काया को हँसते- हँसते अर्पित कर दें।इस अर्पण की मीमांसा आत्मान्वेषण की मांग करती है।स्वत्व को खोजने के लिये उद्वेलित करती है।यह महाभाव देशभक्ति की भाववाणी को आंदोलित करती है। छत्तीसगढ़ का लोक भारत की नदी संस्कृति को प्रणाम करता है।यहां की गंगा अरपा,इंद्रावती,महानदी,शिवनाथ है।फिर भी यहां का लोकजीवन गंगा जी के प्रति अगाध श्रद्धा रखता है।वह अपनी धरती मैय्या का पांव गंगा जल से पखारना(पाद प्रक्षालन)करना चाहता है।

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मैं बंदत हौंव दिन रात वो
मोर धरती मैया
जय होवय तोर
मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

तोर कोरा सब जीव जंतु के
घर दुवार अउ डेरा
तोर कोरा सब जीव जंतु के
तहीं हमन के सुख दुःख
अउ ये जिनगी के घेरा
तहीं हमन के सुख दुःख
अउ ये जिनगी के घेरा

छत्तीसगढिया मन मनुष्य के साथ प्रकृति के सहअस्तित्व में विश्वास रखता है।धरतीपुत्र अपने साथ सभी जीव-जंतुओं को शरण देने वाली उदारमना धरती मैया को प्रणाम करता है।आज जब गौरेया के साथ अनेक पशु -पक्षी संकट में है धरती के कोरा (गोद)में सबके लिए स्नेह की यह आकाशधर्मा भावना हमें सच्चा मनुष्य बनाती है!

तोर मया मा जग दुलरामय
वो मोर धरती मईया
हाय रे मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

मैं बंदत हौंव दिन रात वो
मोर धरती मईया
जय होवय तोर
मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर!

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•यह लोकगीत इसलिए भी विशेष है क्योंकि सन्दर्भ छत्तीसगढ़ होते हुए भी लोक को ‘तोर मया मा जग दुलरामय ‘अर्थात् समूची जग की चिंता है।यह चिंता समूची मानवता को दुलारने की है।यह दुलार वात्सल्य का लोकरूप है।मानों छत्तीसगढ़ की धरती वह यशोदा है जो कृष्ण रूपी संसार को वात्सल्य में सराबोर करना चाहती है।निराला की कविता की शुभभाव जिसमें वे कहते हैं-“जगमग जग कर दे,वर दे वीणावादिनी ,वर दे!”या प्रसाद की विश्वमानवतावादी भाव जिसमें श्रद्धा की मंगलवाणी गूंजती है-“शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त/ विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय; /समन्वय उसका करे समस्त /विजयिनी मानवता हो जाय।”

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तोर महिमा कतक बखानव
वो मोर धरती मैया
हाय रे मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

मैं बंदत हौंव दिन रात वो
मोर धरती मईया
जय होवय तोर
मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

मोर धरती मईया
जय होवय तोर
मोर छईयां भुईयां
जय होवय तोर

ऐसी धरती की छत्तीसगढिया ‘लोक’ वंदना करता है।इस लोकगीत को पढ़ते हुए मिसाइलमैन ए.पी.जे कलाम साहब याद आते हैं जिनके अंतिम शब्द थे “पृथ्वी को जीने लायक बनाया कैसे जाएं!”यदि इस लोकगीत के सहअस्तित्व और मेहनत की संस्कृति को जीवन में आत्मसात कर लिया जाएं तो कलाम साहब के अंतिम शब्द को हम सब सार्थक दिशा दे सकते हैं।

गीत लिंक-

~~भु वा ल~~

प्रकृति चित्र -अनुज ओम[बस्तर भूषण]

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