November 21, 2024

देवेश्वर ही है हमारे पथ- प्रदर्शक

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*डॉ. मृणालिका ओझा*

डॉ. शीला गोयल की कृति “पथ प्रदर्शक देवेश्वर” कृष्ण -भक्ति के पथ को प्रशस्त करती हुई दो भागों में सृजित है। पूर्वाद्ध गद्य रूप में है और उत्तरार्द्ध पद्य रूप में है। आपने कृष्ण के संपूर्ण जीवन को बहुत संक्षेप में प्रस्तुत किया है।‌ शीला जी लिखती हैं – “श्री कृष्ण के सागर जैसे व्यक्तित्व से एक बूॅंद भी नहीं निकाल पाई हूॅं, मुझे लगता है सब कुछ मुझसे छूट गया।” (पृष्ठ 13)
लेखिका बहुत ही संक्षिप्त और संतुलित शब्दों में स्पष्ट करती हैं कि – “कृष्ण एक प्रेमी हैं, ज्ञानी हैं, तापस हैं, वीर हैं, योद्धा, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ और दार्शनिक भी हैं।(पृष्ठ -15)” वे यह भी मानती हैं कि श्री कृष्ण के संपूर्ण व्यक्तित्व पर प्रकाश डालना उनके वश की बात नहीं। वे श्याम से विनय करती हैं –

*देह – गेह की, असन – वसन की, सुध-बुध सकल भुला दो श्याम,*
*मधुर वेणु के मृदु आसव का, मादक घूंट पिला दो श्याम।*
(पृष्ठ -16, )

श्री कृष्ण- चरित्र का औदात्य
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(1) राजसूय यज्ञ में सब की पत्तल उठाने वाले
(2) घोड़ों की स्वयं सुश्रुषा करने वाले कान्हा के लिए कोई भी कार्य निषिद्ध नहीं है।‌ (पृष्ठ – 17 )
कृष्ण ने कभी भी सत्ता के लिए कोई युद्ध नहीं किया। वे धर्म के लिए क्रांति का शंखनाद जरुर करते हैं और समाज को जागृत कर आगे बढ़ जाते हैं। आज युग को फिर से कृष्ण की ज़रूरत है। तार -तार होती मर्यादा और चूर-चूर होती संवेदनाओं की रक्षा के लिए वे कृष्ण से पुनः अवतरित होने का निवेदन भी करती हैं।
(२)
लेखिका के शब्दों में – “श्री कृष्ण आस्था, विश्वास, पुराण, आध्यात्म, और प्रेम के वैश्विक रूप में विद्यमान थे और आज भी हैं। ( पृष्ठ-20)।‌ आपने श्री कृष्ण की ‘आनंद – सागर’ और श्री राधा जी की उनकी ‘प्रेरणा – स्रोत’ के रूप में आराधना की है।

*श्री राधा – माधव चरणं बन्दौं बारंबार।*
*एक तत्व दोउ तन धरे, नित रस पारावार।*

*पीतांबरं, पद्मनाभं, पद्ममाक्षं पुरुषोत्तम्।*
*पवित्र परमानंदम् तं वंदे परमेश्वरम्।* (पृष्ठ 37)

श्री कृष्ण के परमतत्व के साथ ही बांसुरी के भी महत्वपूर्ण नामों और उनकी विशेषताओं का उल्लेख आपने किया है। इतना सूक्ष्म विश्लेषण पुराणवेत्ता और कथावाचक भी कई बार नहीं बता पाते। अतः हमें इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिए, चिंतन, मनन और इनके विचारों को धारण (आत्मसात) भी करना चाहिए।‌ श्री कृष्ण के माध्यम से गायों के विषय में भी बहुत सुंदर आध्यात्मिक – धार्मिक विवेचन और उनकी प्रजातियों के नामों का ज्ञान भी हमें होता है।‌ कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के साथ उनकी उम्र का भी उल्लेख हुआ है और यह अत्यधिक महत्वपूर्ण बात है। विशेष रूप से 80 प्रकार के नाग की प्रजातियों की जानकारी भी इस पुस्तक में उपलब्ध है।
बहुत ही सुंदर ढंग से आपने स्पष्ट किया है कि श्री कृष्ण महामानव थे, पर्यावरण प्रेमी थे, अति महान कलाकार थे, योद्धा थे, योगी थे, वाक्शक्ति के धनी थे, प्रेमी थे, लेकिन साथ साथ वैरागी भी थे।
लेखिका मानव समाज को प्रेरित करती हुई कहती हैं –

*जिंदगी जिओ ऐसे, जिसमें कुछ आस हो,*
*राम की सी मर्यादा हो, कृष्ण का रास हो।* ( पृष्ठ – 23)

इस पुस्तक में गीता के 18 अध्यायों का 18 वाक्यों में सार संक्षेप भी प्रस्तुत किया गया है( पृष्ठ -85) और साथ ही द्रोपदी के आठ नामों का भी उल्लेख है।(पृष्ठ -91)
तात्पर्य ये कि बेहद महत्वपूर्ण बातों का लेखिका ने इसमें सार – संक्षेप में समावेश किया है, जो शायद आपको श्रीमद्भागवत कथावाचकों से भी सुनने नहीं मिलता होगा।
इस ग्रंथ का उत्तरार्द्ध काव्य रूप में है जो पाठक को विशेष रूप से प्रभावित करता है। इस भाग में कृष्ण प्रेम को लेखिका ने पूर्ण समर्पित भाव से अनेक रूपों में प्रस्तुत किया हैं। इसमें प्रेम, भक्ति, वात्सल्य, सख्य, सेव्य (सेवा), माधुर्य और समर्पण जैसी पुनीत भावनाएं निःस्वार्थ आत्मिक रूप में प्रस्तुत हुई हैं। एक भक्त की निष्ठा और समर्पण का सबसे बड़ा प्रमाण (1) आराध्य के प्रति विरह – व्याकुल होना और समर्पित होना है। यह उनकी निष्ठा और अभिव्यक्ति की पारदर्शिता को प्रमाणित करता है।
(2) कृष्ण का जीवन कर्तव्य – निष्ठा और निःस्वार्थ प्रेम की अखंड ज्योति है।‌ इसी प्रेम की व्यापकता में संपूर्ण ब्रह्मांड सिमट गया है। लेखिका के शब्दों में –

*वेदना ने स्वर दिया है, वेदना ने सुर दिया है,*
*वेदना कुछ कम अभी है, और संचित कीजिए।*
*प्रीति तन की साधना है, प्रीति मन की ज्योत्सना है,*
*सारा जग जगमग लगेगा, प्रेम नियमित कीजिए।* ( पृष्ठ-127)
आपकी काव्य रचनाओं में
(3) समसामयिकता और सार्वकालिकता दोनों का वैशिष्ट्य है जो चिंतन की सूक्ष्मता का प्रमाण है। आज की राजनैतिक परिदृश्य पर भी आपकी पंक्तियां सटीक बैठती है –

*भरत बनना है अगर, अभिमान मर्दित कीजिए,*
*दर्प की समिधा बनाकर, मोह की दुविधा जलाकर,*
*नेह चिन्मय होयगा, गर्व तर्पित कीजिए।* ( पृष्ठ-128)

श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण ने चार प्रकार के भक्तों का उल्लेख किया है –

*चतुर्विधा भजन्ते मां जना:, सुकृतिनोsर्जुन:,*
*आर्तो, जिज्ञासुराथार्थी, ज्ञानी च भरतर्षभ:।*

भक्त चार प्रकार के होते हैं (1) आर्त ( दुःखी), (2) जिज्ञासु (3) अर्थार्थी (4) ज्ञानी
लेखिका यहां चौथे प्रकार की ज्ञानी भक्त प्रतीत होती हैं, क्योंकि वे केवल कृष्ण ( परमात्म स्वरुप ) से अपने (आत्म स्वरूप) वियोग और दूरी को ख़त्म करना चाहती हैं।
आध्यात्म के इसी उजास में वे कृष्ण को प्राप्त करना चाहती हैं। लेखिका की अटूट और निःस्वार्थ भक्ति और विश्वास उनके इन शब्दों में प्रकट होता है –

*मैंने किसी से कभी भी, की नहीं याचना,*
*आप ही से मांगूंगी, आप सर्वकाम हैं।*
*क्यों दुनिया को आकर बताते नहीं,*
*जो भी हैं श्याम के, उनके ही श्याम हैं।* (पृष्ठ: 171-172)

एक ओर लेखिका की भक्ति की आभा में सर्वत्र उजास है, सगुण भक्ति के रूपों में वात्सल्य, बाल लीला, माधुर्य, कांत, दास्य और सख्य सभी भावनाएं आलोड़ित हो रही हैं तो दूसरी ओर वियोग की अधिकांश अंतर्दशाएं भी आपके काव्य में हैं। यह सब कुछ आपकी रचनाओं को बेहद मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली बनाता है।‌ वस्तुत: इसी मनःस्थिति में लेखक और पाठक की अनुभूतियों में एकात्मभाव का प्रस्फुटन होता है। इस एकात्मभाव की प्रगाढ़ता ही लेखक की सफलता होती है।‌ यही लेखन की सफलता का ठोस प्रमाण भी है।
हम सभी जानते हैं कि श्री कृष्ण केवल भारतीय समाज के ही नहीं अपितु वैश्विक रूप में भक्ति साहित्य के स्थापित नायक हैं।‌ पूरे विश्व में ‘इस्कॉन’ संस्था इसका जीवंत प्रमाण है।‌ आज बहुत जरूरी है कि विश्व शांति के लिए मनुष्य असत् से सत् की ओर प्रस्थित हो और इसके लिए हमारे भीतर निःस्वार्थ प्रेम, भक्ति तथा मानवता का होना ज़रूरी है। वस्तुत: यही ज्ञान योग है, ऐसा मेरा मानना है। हमारे विचारों में, जीवन में, कर्म में इस औदात्य को अपनाने के लिए बहुत जरूरी है कि अहंकार का अज्ञान रूपी पर्दा नष्ट हो।‌ डॉ. शीला गोयल ने बहुत ही प्यारी बात कही है –
*अब नहीं मन तरसेगा, तन मन सब सरसेगा।*
*कब तलक न सरकेगी, अज्ञान की यवनिका।* ( पृष्ठ -161)

निश्चित रूप से डॉ. शीला जी की रचनाओं में ‘सूर’ की रचनाओं जैसा ‘विरह – रुदन’ है, मीरा बाई का ‘करुण क्रंदन’ है, तुलसीदास जैसा ‘असीम विनय’ है और जायसी जैसी ‘प्रेम पथ पर चलते हुए अद्वैत में लीन होने की’ विशिष्टता भी है। वियोग, प्रेम, भक्ति, विनय के साथ संपूर्ण समर्पण की अंतर्दशाओं ने इस काव्य रचना को, इस पुस्तक को विशिष्ठ रूप प्रदान किया है, जो (भक्त) पाठक को पूर्णतया प्रभावित करता है।
डॉ. शीला जी की यह कृति उनके वृहद एवं गहन अध्ययन का एक और प्रमाण है। उन्हें बहुत-बहुत साधुवाद और शुभकामनाएं कि उनकी कलम निरंतर चलती रहे और हम सब देवेश्वर का पथ प्रदर्शन पाते रहें।

घर ऑंगन सूना है,
वृंदावन सूना है,
सूना है मन मेरा
श्याम हमसे रूठ गए।

आप संग चल न सकी,
विरह में मचल न सकी,
बंधन है जगत का,
करम मेरे फूट गए।

आने की कह गए थे,
भावना में बह गए थे,
अब तक आए न हरि,
वादे सारे झूठ हुए।

लगती थी बड़ी भली,
ना आई याद कुंज गली,
कितने दिन बीत गए,
आपको वृंदावन गए।
(पृष्ठ – 148-149)
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पुस्तक – पथ प्रदर्शक देवेश्वर
लेखिका – डॉ. श्रीमती शीला गोयल
प्रकाशक – वैभव प्रकाशन, न्यू चंगोराभाठा, रायपुर,( छत्तीसगढ़)

समीक्षिका :
डॉ मृणालिका ओझा,
बंजारी मंदिर के पास,
पहाड़ी तालाब के सामने,
वामन राव लाखे वार्ड – 66,
कुशालपुर,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
492001

मोबाइल नंबर
7415017400
8770928447

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