अपने युगीन समस्याओं से अवगत कराता संवेदना सिक्त कहानी संग्रह ‘सर्किट काका’
कहानी संग्रह : सर्किट काका
कहानीकार : राजकुमार ‘राज़’
प्रकाशन: मधुशाला प्रकाशन भरतपुर
कॉपीराइट : राजकुमार राज़
प्रकाशन वर्ष : 2023
मूल्य : 250/-
पृष्ठ सं. 116
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हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में एक सजग सिपाही के रूप में साहित्य के तमाम विधाओं पर अपनी लेखनी चलाने वाले सशक्त हस्ताक्षर राजकुमार राज़ हैं। जिनकी न केवल ग़ज़लें पढ़ने मिलती हैं, बल्कि वे छंदबद्ध सृजन के अतिरिक्त नवगीत लिखने में सक्षम हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उनका लिखा उपन्यास ‘चंद्रवदना’ 2022 में कादम्बरी सम्मान प्राप्त कर चुका है। उनके तीन ग़ज़ल संग्रह है मुंतज़िर, दिलफ़रेब, और जिसे तू कबूल कर ले, प्रकाशित हो चुकी हैं। ऐसे एक रचनाकार का सबसे बड़ा सम्मान उसका पाठक वर्ग होता है। पाठकों से प्राप्त प्रतिसाद अमूल्य होता है। मंचों पर उनसे मिलने वाली तालियाॅं सबसे बड़ा सम्मान होता है। राजकुमार राज़ विभिन्न मंचों पर अपनी ग़ज़लों से श्रोताओं का खूब सम्मान प्राप्त कर रहे हैं।
१४ अक्टूबर १९७१ को बैतूल मप्र. में जन्मे राजकुमार राज़ साइंस विषय के छात्र रहे और बैंक में कार्यरत होते हुए साहित्य लेखन में उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है, वह अद्भुत है। उन्हें देश के नामचीन शायरों में शोहरत हासिल है।
उनके दस कहानियों का संग्रह ‘सर्किट काका’ मुझे कल ही हस्तगत हुई। पहली कहानी ‘सर्किट काका’ मानवीय संवेदना को जागृत करती है। पुरुषोत्तम यादव जिनकी याददाश्त एक कार दुर्घटना में चली जाती है और आठ साल बाद बिजली करंट लगने से वापस आती है, तब वह सर्किट काका के नाम से जगदीश ढाबे वाले के आश्रय में रहता है। याददाश्त खोकर अपनों से बिछुड़े सर्किट काका की मार्मिक कहानी है।
आज जब लोग स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं। रिश्तों को महत्व नहीं दे रहे हैं। पैसों और जमीन-जायदाद के लिए अपने हाथ रंग ले रहे हैं। ऐसे समय में यह कहानी आदमी के भीतर सिमटती जा रही संवेदना को झंकृत करने में सक्षम है। आज समाज को जगदीश जैसे (कहानी के पात्र) लोगों की ही आवश्यकता है, ऐसा नहीं है कि ऐसे लोग अब भी समाज में नहीं है।
२०१३ के जून माह में केदारनाथ यात्रा के दौरान आई बाढ़ की विभीषिका के पृष्ठभूमि पर केंद्रित यह कहानी राजकुमार राज़ की संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकार को भी परिलक्षित करती है।
इस संग्रह की दूसरी कहानी ‘छह सौ चालीस रुपए’ एक मजदूर की जद्दोजहद को रेखांकित करती है। जिन्हें एक-एक पाई भी नाप-तौल खरचने पड़ते हैं। बावजूद इसके वह घर के सभी सदस्यों की जरूरतों को पूरा करने का यत्न करता है। मानो एक पिता और पति के कर्तव्य निर्वाह ही उसकी खुशी हो।
इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते मुझे अपनी छोटी-सी कविता स्मरण हो आया। जो कुछ यूं है –
जब भी बाजार जाता हूँ
लेकर खाली थैला
खरीद लाता हूँ
बीमार माँ के लिए दवाइयाँ
पिता के लिए गुड़ और मूँगफली
बच्चों के लिए
खिलौने
पत्नी के लिए सिंदूर की डिबिया थैले में
मैं नहीं जानता
किस रास्ते से
आती हैं
घर भर की खुशियाँ थैले में।
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तीसरी कहानी ‘सात फेरे सात दिन’ में एक ऐसे परिवार के संघर्ष को दिखाया गया है, जो अपनी गरीबी से त्रस्त और परेशान हो अपने गाॅंव से पलायन कर दूसरे राज्य में आकर मेहनत से मध्यम वर्ग के जीवन जीने लगता है किंतु विपन्नता से मुक्ति पाते ही दूसरी तरह की परेशानियाॅं से घिर जाता है। बेटी को दूसरों की अमानत समझने वाले लोग मानसिक रोग से पीड़ित बेटी की जानकारी छुपाकर विवाह बंधन में बांध उनके घर की सुख-चैन छीन लेते हैं। कानूनी पचड़े में घसीट देते हैं।
संग्रह की चौथी कहानी ‘मेहनत’ को आमजन से जुड़े आंदोलनों की सच्चाई को उघाड़ने के उपक्रम के रूप में रेखांकित की जानी चाहिए। जिसमें आंदोलनकारियों का असल मुद्दे से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं दिखता। ये कहानी किसान आंदोलन के पृष्ठभूमि में लिखी गई कहानी प्रतीत होती है। आज की सच्चाई यही है कि कृषि कार्य में रत आदमी के पास इतना समय नहीं कि आंदोलन इतना लम्बा खींच सके। कुल जमा यही कहा जा सकता है कि आज सारे आंदोलन राजनीति प्रेरित हो गए हैं।
यह भी सच है कि किसान शोषित हैं, मेहनत के सही मूल्य नहीं मिलने से पीड़ित हैं। इसी विडंबना को इस कहानी में उद्घाटित किया गया है।
‘लालकोठी’ में पैतृक संपत्ति के बंटवारे पर बेटियों को कानूनी हक मिलने से तीन बेटियों की बंटवारे पर दावे का मनोविज्ञान को खूबसूरती से पिरोया गया है।
‘प्रेम कहानी’ इस संग्रह की बेहतरीन कहानी में से एक है। इस कहानी में कहानीकार राजकुमार राज़ ने युवा पीढ़ी को जीवन के संघर्ष से परिचय कराने का ईमानदार कोशिश की है। साथ ही संघर्ष के समय यदि धैर्य खोकर नशे की ओर उन्मुख हो जाएं तो जीवन बेरंग हो जाता है। यह बात भी समझाने में कहानीकार सफल हैं। यूं तो नशा हमेशा विनाश ही करता है। अभिनव आप्टे जैसे सच्चे दोस्त की बदौलत जीवन में खुशियों के रंग लौट आते हैं। कहानी आपसी विश्वास और संवाद से रिश्तों में जान फूॅंकने की सीख देती है।
यूं तो दीपावली का त्योहार हर साल आता है। फिर नई या पुरानी दीपावली जैसी कोई बात नज़र नहीं आती। ‘नई दीपावली’ में नई शब्द का कोई औचित्य ही नहीं। इसके साथ अगली या पिछली शब्द सटीक प्रतीत होता है। इस संग्रह में शामिल अगली कहानी का शीर्षक ‘नई दीपावली’ पढ़कर एक बारगी कुछ अटपटा लगा, किंतु कहानी पढ़कर शीर्षक सार्थक लगा। कहानीकार राजकुमार राज़ ने इस कहानी में न केवल शीर्षक के रूप में नये शब्द गढ़े हैं अपितु छोटी उम्र में लगी वैधव्यता की दाग समाज से हटाने की सार्थक पहल की हैं। किसी के वैधव्य जीवन में खुशियों के रंग भरने का उपक्रम बेहतरीन है। कहानी में ठकुराई ईगो दिखाया गया है, जो स्वाभाविक है, जिसका विद्रोह भी है। जो वाजिब है। ठकुराई यहाॅं समाज को रूढ़ियों के खूॅंटे से बाॅंधे रखने में विश्वास करने का प्रतीक है। जो समाज के प्रगति में बाधक है। कहानी की बुनावट लाज़वाब है।
‘साहित्य-सेवा’ मुझे इस संग्रह की कमजोर कहानी लगी। शिल्प और कथानक की दृष्टि से व्यंग्य के करीब है। थोड़ी मेहनत कर साहित्य सेवा के नाम पर व्यवसाय करने वालों पर सशक्त व्यंग्य कसा जा सकता है। यद्यपि इसमें इन्हीं लोगों को आड़े हाथों लिया गया है।
कुछ वर्षों पूर्व पूरी दुनिया ने भीषण त्रासदी झेली है। जिसके दंश से कई परिवार अभी तक उबर नहीं पाया है और न ही उबर पाएगा। बुरे स्वप्न से कम नहीं था। कोरोना के आगे मनुष्य की विवशता को लेकर गुंथी गई बेहतरीन कहानी ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’ है। जिसमें एक तरफ सरकारी उपायों और तरकीबों का सम्यक विवेचन दिखता है। राजनीतिक दलों पक्ष-विपक्ष दोनों ठकी भूमिका पर वाजिब सवाल खड़ा किया गया है। जिसका जवाब भी कहानी में है। जो तार्किक है। दूसरी ओर भय से घरों में दुबके बैठे लोगों और पलायन से लौटते लोगों की पीड़ा को संवेदना के साथ उकेरा गया है। आज जब संवादहीनता से सभी तरह की रिश्तों में दुराव आ गया है, उन्हें सहेजने का अनूठा उपक्रम इस कहानी में है। हकीकत की पृष्ठभूमि पर बुनी इस कहानी में कहानीकार की कल्पनाशीलता देखते बनती है।
आदमी जीवन भर संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष विविध आयामों वाला होता है। इस संघर्ष में वह पूरी दुनिया से लड़ लेता है और जीत भी जाता है, लेकिन वह अपनों से लड़ नहीं पाता। अगर लड़ भी ले तो जीत नहीं पाता। दरअसल वह जग-हॅंसाई से बचना चाहता है। उसे डर रहता है कि दुनिया क्या कहेगी। संग्रह के आखिरी कहानी ‘अंतर्निहित पराजय’ में यही सब कुछ दिखाया गया। नौकरी पेशा होने के बावजूद धीरू जीवन में आनंद और शांति के लिए तरस जाता है।
कुल जमा यही कहा जा सकता है कि यह संग्रह अपने युगीन समस्याओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है। जिसमें जीवन संघर्ष, प्रेम, समर्पण त्याग के साथ स्वार्थपरता, धोखा, गरीबी एवं सामाजिक मूल्यों का समावेश है।
वास्तविकता के बहुत करीब होते हुए कहानी में कल्पनाशीलता कथानक के विस्तार हेतु जरूरी है। संग्रह के कहानियों में शिल्प के साथ कहीं कोई समझौता नहीं किया गया है। पात्र चयन के साथ संवाद एवं भाषा कहानियों को पठनीय बनाता है। कथानक, चरित्र चित्रण और प्रवाह कहानीकार के कुशलता और चातुर्य का परिचय दे रहे हैं। प्रसंगानुकुल मुहावरों का प्रयोग लालित्य बढ़ाता है।
मानवीय संवेदना को छूती कहानियों के संगह हेतु राजकुमार राज़ जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं!
पोखन लाल जायसवाल