सुबह एक उपन्यास को…
कल सुबह एक उपन्यास को पकड़ा और फिर ऐसा हुआ उस उपन्यास ने मुझे पकड़ लिया और तब छोड़ा जब वह खत्म हो गया शायद तब भी कहाँ छोड़ा ?
आखिर जिब्रान का क्या हुआ ? वह स्कूल गया या नहीं ? नुसरत कहानियों की किताब पढ़ते-पढ़ते कहानियां तो नहीं लिखने लगी ? चचा जान को किस बात का ग़म खा गया ? अब्बा जेल से छूटकर आ पाए या उन्हें फाँसी हो गई ?
किताब में छपे शब्द खत्म हो गए पर सवाल खत्म नहीं हुए, कहानी खत्म नहीं हुई…
मन किया उसको फ़ोन लगाऊं जिसने यह उपन्यास पढ़ा हो शायद वही कुछ बता पाए। क्या पता उसने उस सूत्र को पकड़ लिया हो जो मैं न पकड़ पाई।
अब इतनी रात को यह कैसे पता लगाऊं कौन-कौन इसका पाठक है ? सुबह का इंतज़ार किया। नींद अच्छी आई, जिस सुबह नींद में देखे सपने याद नहीं रहते उस सुबह मुझे लगता है नींद अच्छी आई थी।
ब्रश करते हुए नुसरत दिखाई दे रही है। चची जान के साथ किचिन में काम करती हुई। नुसरत कूड़ा फेंकने क्यों नहीं आई ? खाली जिब्रान नहीं मैं भी तो उसे देखना चाहती थी। वक़्त से पहले बूढ़ी होने वाली लड़कियां बहुत देखी हैं मैंने पर उन सबमें नुसरत थोड़ी अलग है, वह कहानियां पढ़ा करती है।
क़िताब उलट-पुलट कर लेखक का परिचय पढ़ना चाहा पर नहीं मिला। वैसे सही मामले में रचना या किताब ही लेखक का परिचय होती है। सईद अहमद द्वारा अनुदित ‘अल्लाह मियाँ का कारख़ाना’ मोहसिन ख़ान का मुक़म्मल परिचय है। कमाल की भाषा। बच्चे-सी सरल, दुनियावी बनावट से दूर, एक-एक शब्द पानी के तरह साफ़ मगर उस शब्द के अर्थ बहुत गहरे, चप्पल जैसे पाठक की ही टूट गई हो, कपड़े सेंता के जैसे पाठक ने ही रखे हों। पतंग, मुर्गी, अंडे, चूजे, तिलती, बकरी जैसे पाठक ही बचपन की स्मृतियों में घुसकर गोल-गोल चक्कर लगा रहा हो।
निम्नवर्गीय मुस्लिम समाज की मुश्किलों, विडंबनाओं और देश की सांप्रदायिक/ फासिस्ट नीतियों को, राज्य के इशारे पर चलने वाली पुलिस की असंवेदनशील कार्यशैली को जिस तरह से इस उपन्यास में बुना गया है, वह हिला देने वाला है। कैसे एक ज़रा-सी घटना के बाद एक परिवार पूरी तरह तबाह हो गया। पिता जेल चले गए। माँ मर गई। बच्चे अनाथ हो गए। माँ के मरने से याद आया लेखक ने एक जगह लिखा है- “माँ के मरने का ग़म क्या होता है ये वही जान सकता है जिसकी माँ मर गई हो।” हम कितनी भी संवेदना, सहानुभूति की बातें कर लें पर कुछ ग़म ऐसे होते हैं या फिर कहूँ ज़्यादातर ग़म ऐसे होते हैं जब तक ख़ुद न भुगतो दूसरे का दर्द समझ में ही नहीं आता। अमीर किसी भी धर्म या जाति का हो उसका काम तब भी चलता रहता है पर गरीब अगर मुसलमान हो, आदिवासी हो, दलित हो, स्त्री हो तो जीवन और ज़्यादा तकलीफ़ से भरता जाता है। इस क़िताब को पढ़ते इस बात को हर पृष्ठ पर महसूस किया।
आख़िर में एक निवेदन करती पर मुझे लगता है कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि मुझे यकीन है अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा होगा तो कमेंट करने से ख़ुद को रोक नहीं पाएंगे।
-नेहा