बारिश…
हरे को और हरा करती ,
नम को और नम करती,
एकांत को और गाढ़ा करती
स्मृतियों की धार को और पैना करती।
बारिश…
बाहर गिरती
भीतर भिगोती ।
बारिश…
मुझमें धँसती
मुझे चीरती,
कांच बूंदों से लहूलुहान कर मुझे समूल नष्ट करती ।
बारिश, यह बारिश …
जो मुझे बार बार जन्मती है ,
क्या आकाश से पानी गिरने की एक घटना मात्र है ?
—–पल्लवी