छत्तीसगढ़ी कविता में जनवादी तेवर
जनवाद अंग्रेजी के डेमोक्रेसी शब्द का हिंदी प्रतिरूप माना जाता है। वैसे लोकतंत्र के अतिरिक्त जनतंत्र, प्रजातंत्र, जम्हुरियत, लोकशाही जैसे शब्द भी जनवाद के साथ-साथ डेमोक्रेसी के समनार्थी शब्द है। डेमोक्रेसी का शाब्दिक अर्थ है जनता का शासन। इसी जनता के शासन शब्द ने जनवाद के प्रति चेतना जाग्रत की है। जनता की शक्ति और उसकी चेतना के सहारे सर्वहारा के अधिकारों के प्रति जागरूक होना और उसके लिए सतत संघर्ष करना जनवाद का एक लक्ष्य है।
हिंदी कविता में तो जनवाद का व्यापक प्रभाव रहा है। हिंदी में आठवें दशक के दौरान जनवादी कविता का स्वर प्रमुख रूप से उभर कर आया और प्रगतिशील धारा के अनेक कवियों ने अपने समय की पड़ताल करते हुए जनवादी कविता को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहाुदर सिंह जैसे अनेक जनवादी कवियों के नाम हमारे सामने आते हैं। मुक्तिबोध यह महसूस करते थे कि तत्कालीन वस्तु-स्थिति की असलियत को हम ठीक तरह तभी पहचान सकते हैं, जब विरासत में प्राप्त जनतांत्रिक मूल्यों को पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान कर सकें । मेहनतकश लोग जब सामूहिक संघर्षों के साथ एकजुट होकर खड़े होंगे तभी शोषकों और तथाकथित सत्ताधारियों के सामंती तथा दमनकारी आतंक का मुुुंहतोड़ जवाब दे सकेंगे। जनवादी विचार का कवि अपनी धरती की गंध तो पहचानता ही है, वह अपने समय के शोषण को भी समूह के साथ महसूस करता है। यह महसूस करने का ताप उसके जनवादी तेवर को बढ़ाता है।
छत्तीसगढ़ी कविता को आदिकाल उसके गाथायुग और लोक से समृ़द्ध है । यह आश्चर्य है कि हमारी वाचिक परंपरा युग से पहले ही अपना तेवर दिखाती है। यह जनवाद को लेकर भी है। छत्तीसगढ़ी कविता के वाचिक युग में लोकगीतों में ऐसे अनेक तेवर हैं जो आज के जनवादी कविता से साम्य रखते हैं । लोक अपने समय के मनुष्य को अपने अधिकारों के प्रति चेतस रखता था और सांस्कृतिक रूप से उसे एकजुट होकर संघर्ष के लिए जगाता था। फुगड़ी जैसे लोकगीत के मध्य की एक पंक्ति का तेवर देखिए-
अपन खाथे गुदा-गुदा/मोला देथे बीजा
अपने समय में पीड़ित और शोषितों को एकजुट होकर सतनाम की ओर प्रवृत्त कराने वाले महान संत गुरू घासीदास जी भी मनखे-मनखे एक बरोबर का मंत्र देकर पंथी के सहारे सामाजिक भेदभाव के लिए एकजुटता का आह्वान करते हैं । छत्तीसगढ़िया मनुष्य को जगाते हुए सन 1904 में ही कवि लोचनप्रसाद पाण्डेय लिखते हैं- सुतत हवव नींद के भोर/हांड़ा बटकी ले गे चोर । आजादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ी के कवियों ने किसानों और मजदूरों को जगाने का अद्भुत काम किया । एक ओर गांधी गीत की परंपरा तो दूसरी ओर शोषण और सत्ता के खिलाफ बगावती तेवर । इसमें 1955 में प्रकाशित छत्तीसगढ़ी की पहली पत्रिका ने बड़ी भूमिका निभाई । इस पत्रिका का नाम ही छत्तीसगढ़ी था। हिंदी में आठवें दशक के दौरान जनवादी कविता का स्वर मुखर हुआ लेकिन बंशीधर पांडेय बरसों पहले लिखते हैं कि – उठौ उठौ छत्तीसगढ लाल/अपना जगा के देखो हाल । गिरवरदास वैष्णव, पुरूषोत्तम लाल और पं द्वारिका प्रसाद तिवारी जैसे कवियो ंने आठवें दशक से पहले ही सत्ता और शोषकों के खिलाफ एकजुटता का काव्य रच लिया था । अपनी कविता धन धन रे मोर किसान में विप्रजी किसानों की मेहनतकश जिंदगी का बखान करते हैं । कोदूराम दलित, कुंजबिहारी चैबे और भगवती सेन जैसे कवियों ने छत्तीसगढ के गांव-गांव में अलख जगाने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया । कुंजबिहारी चैबे की कविता चल मोरे भैया बियासी के नांगर का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा । इस गीत में उन्होेने लिखा-लागा बोड़ी म लेही साहूकार हर/भरना टोरना म लेही सरकार हर/डांड़-बोड़ी में मालगुजार लेही/जेबर बिथई मे कोटवार लेही/नइ रहिगे हमर दो कौड़ी के आगर/ चल मोरे भैया बियासी के नागर ।
समरथ गंवइहा जैसा एक कवि अपने समय से पहले ही छत्तीसगढ़ की पीड़ा को स्वर देता है और लिखता है- मारबो फेर रोवन नइ दन/तुमन सुख पाबो कहिथव कमजोरहा/ बुद्धि एको रचे नइये परे हव भोरहा/ तिजोरी के कुंजी तूं हमला देहे हव/ तुंहर सुख ला होवन नइ दन/मारबो फेर रोवन नइ दन। शोषकों की ओर से दमन की बात कह कर कवि अपने ढंग से अलग ही अलख जगाता है। इसी क्रम में प्रगतिशील चेतना के अग्रज कवि नारायणलाल परमार लिखते हैं कि- एक ले एक हे हुसियार/ में नो हौं महराज/ करे सब करिया कारोबार, में नो हौं महराजा/ कनवा ल कनवा कहइया होहीं कोनो दूसर/ गउ के किरिया हे हवलदार, में नो हौं महराज। भगवतीलाल सेन भी इसी तेवर में रचते हैं – झपटो,मारो, काटो ये राक्छस राज हे/बाढ़े हे बेसरमी कहां कामकाज हे।
आठवें दशक के आते-आते अनेक कवियों ने जनवादी चेतना को अपनी कविता में प्रमुखता दी । सालिकराम अग्रवाल शलभ लिखते हैं कि- मालिक ठाकुर मन क ेअब तक, बहुत सहेन हम अतियाचार/ आज गाज बन जाबो जम्मो छत्तीसगढ़ के हम बनिहार । छत्तीसगढ़ी कविता का तेवर समूचे छत्तीसगढ़ में विद्यमान था। बस्तर के कवि लाला जगदलपुरी लिखते हैं- दाना-दाना बर लुलवावत मनखे मरगे/खीर सोंहारी खवत-खावत मनखे मरगे । इस क्रम में अपनी ओजस्वी वाणी और दबंग शैली में गीत गाते छत्तीसगढ़ी गीतों को एक कवि जन-जन के लिए सुगम कर गया । ये कवि थे संत पवन दीवान । जो रचत हैं – सक्कर ल चांटा मन खादिन/तेल ल पी दिस मुसवा/मनखे होगे रिंगी‘चिंगी/ नेता होगे कुसवा/ दूदी दाना गंहृ मिलत हे/ थोथना म चटकालौ/हमर कमाई म पेटलामन / चारेच दिन मटका लौ/ कहां ले लसलस चुरे अंगाकर/नइहे चांउर पिसान/करलइ हे भगवान/ बताओं कइसे करे किसान । जनता को जाग्रत करने में छत्तीसगढ़ी के कुछ महत्वपूर्ण कवियों ने बड़ी भूमिका अदा की इनमें पवन दीवान, लक्ष्मण मस्तुरिया, मुंकुद कौशल जैसे कवि शामिल हैं जिनके तेवर जनवादी रहे ।
कवि मुकुंद कौशल का एक ग़ज़ल संग्रह है -बिन पनही के पांव । इस संग्रह में अनेक जनोन्मुखी ग़ज़लों के माध्यम से मुकुंद कौशल ने यथार्थवादी जनचेतना को परिष्कृत किया है। किसानों की दशा पर वे लिखते हैं- पीरा कोन बिसा सकही, जग मा आज किसनहा के/जेमन अन्न उपजइया हें, उनला कोन ठगत नइये/मिहनत करके खेत कमाथे वो ओकर फल नइ पावै/बोवइया हर आन रथे, अउ लुवइया हर आन रथै । मुकुंद जी के जनवादी तेवर का एक और उदाहरण देखिए- कइसे सब ला नींद आ जाथे जानत हस/ कोन सुताथे-कोन जगाथे जानत हस / कतको बड़हर होही, भाते तो खाही/कोन ह सोना-चांदी खाथे जानत हस । सत्ता के खिलाफ जाग्रत करने का उनका अलग ही अंदाज है-उंचहा-सुनथे, तेकर आगू, चिल्लाना घलव जरूरी हे/जागे भर ल ेनइ बात बनै, अंटियाना घलव जरूरी र्हे । और – खेत हमर, हमरे बिजहा, अउ नांगर-जांगर सब हमरे/तब उन्कर खरही गांजे बर, काबर फोकट मरबो हम/जुरमिल कौशल, परन करौ के, अब कउनो ला नइ घेपन/अब तो जे मन ठगहीं हमला, उन्कर मरूवा घरबो हम । सांस्कृतिक जागरण और अस्मिता‘-स्वाभिमान के एक बड़े कवि के रूप में उभरे लक्ष्मण मस्तूरिहा । छत्तीसगढ के किसान, जवान और मजदूरों की उपेक्षा से वे दुखी रहे और मंचों के माध्यम से ललकारते रहे – मंय सागर हंव, जब लहराहूं, धरती ला सबो भिंजो देहूं/मोर लहू पियइया बइला ला, मंय ठाढ़ ठाढ़ निचो देहूं/फेर दोस मोला झन देहू रे, मंय सांगन धरे कटारी अंव । उनका प्रसिद्ध गीत मोर संग चलव को जनवादी चेतना के लिए एक उदाहरण के रूप् में प्रकट कर सकते हैं- मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी/ ओ गिरे थके हपटे मन, ओ परे डरे मनखे मन/ मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी। मस्तुरिया जी ने अनेक ऐसी रवनाओं से सोते हुए छत्तीसगढ़ी मनुष्य को जगाने का उपक्रम किया – एच न एक दिन इही माटी के /पीरा रार मचाही रे/नरी काट के बइरी मन के/नवा सुरूज फेर आही रे । उनकी चिंता बंधुआ मजदूरों के लिए भी थी- लागे अइसे रोगहा मालिक/छुट्टी नइ देवत हो ही / बइला‘-भंइसा अइसन बूता/रात‘दिन लेवत होही । लक्ष्मण मस्तूरिया की एक कविता का एक अंश देखिए- झन कह मोला लेढ़वा डोगी करिया अंव ग/सीधा म सीधा नइ तो डोमी करिया अंव रे/मंय छत्तीसगढ़िया अंव रे । हरि ठाकुर भी एक क्रांतिकारी कवि थे । उनकी कविताओं ने मजदूरों को जगाया । वे लिखते हैं- भीतर-भीतर चुरत हवनज ी/ हम चांउर जइसे अंधन क । और कनिहा कस के सब बढ़ै चलौ/खुद भाग अपन तुम गढ़ै चलौ/सोसन, अन्याय गरीबाी ले/ सब जुरमिल के अब लड़े चलौ। एक लोकप्रिय गीतकार रहे वि़द्याभूषण मिश्र । वे लिखते हैं- सुरूज किरन म भिनसरहा मुंह धोथे मोर गांव/ जोंक असन पीरा आसा के तन ल चूसत हावै/ रोज गरीबी हर सपना के, मुंहटा बइठे हावय/ंसंसो के धुंगिया अइसन गुंगवावत हे मोर गांव । कविता के माध्यम से जागरण के लिए भारत भूमि से दूर अमेरिका में बैठा हुआ देवेंद्र नारायण शुक्ल जैसा कवि चिंता करता है- नदिया उप्पर पुलिया बनगे/मांझी हे न नाव/ अमरइया के पेड़ कटागे/नइहे इंहा छांव ।
नए समय के कवियों ने भी कविता की नवीन तरीकों का भी छत्तीसगढ़ी में प्रयोग किया । डाॅ राजेन्द्र सोनी छत्तीसगढ़ी हाइकू लिखकर अपनी बात कह लेते थे- कोलिहा हर/कहिने बाघी खाल/पहिचानव । इधर दुर्गा प्रसाद पारकर मुक्त छंद भी बहुत कुछ कह जाते हैं – इन ला सिधवा झन समझव हां, जउन दिन इंकर मन मा / स्वाभिमान ह सीपच जाही/ ओ दि/ गंगई मन ल छांट छांट के / जरमूर सुद्धा मुरकेट के/ गिधवा के नाव ल बूता देंही । कवि सुशील यदु ने जहां छत्तीसगढ़ी कवियों को जोड़ कर रखा, वहीं अपनी कविता में भी अलग जगाते रहे- धान कटोरा रीता होगे, कहां होही निरवाह रे/ छत्तीसगढ़ के पावन भुंइया बनगे चारागाह रे/बाहिर ले गोल्लर मन आके, ओइल गइन छत्तीसगढ़ म/ रउंद-रउद के गोदन कर दिस, भूकरत हे छत्तीसगढ़ मा । नए कवि प्यारे देशमुख लिखते हैं- हमरे पोसे कुकुर हमी ला करे हांव/हमन हा पर हो गेन उंखर होगे गांव।
डाॅ सुधीर शर्मा
अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
भिलाईनगर दुर्ग छत्तीसगढ़
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दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर 492010
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