मेरा जूता है जापानी…
अगर आपको गीतकार शैलेंद्र का लिखा गीत ‘मेरा जूता है जापानी’ यूँ ही लिखा गया कोई साधारण गीत लगता है, तो मेरा ये लेख पढ़िये।
आज से करीब डेढ़ दो बरस पहले यही गीत सुनते हुए मेरा ध्यान अचानक ‘लाल टोपी रूसी’ पर अटक गया। मुझे यकीन हो गया कि ये साधारण गीत तो नहीं हो सकता। फिर मैंने कड़ियाँ मिलानी शुरू कीं। तो मैंने पाया कि ये गीत तो तत्कालीन नवस्वतंत्र भारत और पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रगतिशील विज़न और भविष्य के लिए निर्धारित विकास के भारतीय दृष्टिकोण पर आधारित है। कैसे? आगे पढ़िये।
अंतरिम सरकार बनने के बाद सरकार चलाने के विज़न पर गाँधी जी का बयान था कि “मैं रहने के लिए ऐसा घर कभी नहीं चाहूँगा जो चारों ओर से बस मोटी मोटी दीवारों से घिरा हो और जिसमें एक भी खिड़की न हो। कमरे में खिड़की भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि दीवार। यही अवधारणा एक खुशहाल राष्ट्र की भी है। हर देश की अच्छाइयों का भारत स्वागत करेगा।” गाँधी जी के इसी विज़न से गीत की शुरुआत होती है। कि
मेरा जूता है जापानी
ये पतलून इंग्लिसतानी
सर पे लाल टोपी रूसी
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
अच्छा एक बात और। जूता जापानी ही क्यों? क्योंकि उस वक़्त पूरी दुनिया में ये perception था, जो कि काफी हद तक सही भी था कि made in Japan चीजें काफ़ी सस्ती होती हैं जिसका एक कारण जापान का सधा हुआ औद्योगिकरण भी था। दूसरा ये भी कि भारत और जापान के ताल्लुक उस समय भी काफी अच्छे थे कि न केवल एशिया बल्कि पूरे मिडिल ईस्ट और आधे से ज़्यादा यूरोप और अमेरिका महाद्वीप में पंडित नेहरू की छवि एक वैश्विक नेता की थी।
इसके बाद पतलून इंग्लिसतानी का मतलब ये हो सकता है कि… देखिये ज़ाहिर तौर पर हिंदुस्तान, ब्रिटिश हुकूमत की कॉलोनियल सिस्टम का हिस्सा तो था ही। अब अपने स्वार्थ के लिए ही सही, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में जो भी infrastructure development किया था उसका लाभ तो भारत को ही मिलने वाला था, इस बात भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। रेल उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अब बात आती है ‘लाल टोपी रूसी’ की। यहाँ पर लाल रंग कम्युनिज़म यानी साम्यवाद का प्रतीक है। और रूस ने दुनिया को स्टालिन जैसा बड़ा कम्युनिस्ट लीडर दिया है। अब रूस ही क्यों, चीन क्यों नहीं? क्योंकि चीन में भी माओ जैसा बड़ा लीडर हो चुका था और उस वक़्त भारत से चीन के ताल्लुकात भी काफी अच्छे थे। ये शायर शैलेंद्र का व्यक्तिगत चयन हो सकता है। गीत का अगला बंध है –
निकल पड़े हैं खुल्ली सड़क पे
अपना सीना ताने
मंज़िल कहाँ, कहाँ रुकना है
ऊपर वाला जाने
बढ़ते जाएं हम सैलानी
जैसे इक दरिया तूफानी
सर पे लाल…
देखिये, तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंग्सटन चर्चिल वैश्विक मंचों पर भारत को स्वायत्तता न देने की ये दलील देते थे कि अगर ब्रिटिश ने भारत से अपना तम्बू तनात उठा लिया तो भारत का क्या होगा, भारत इतनी बड़ी आबादी को कैसे संभालेगा? दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान अपनी लंदन यात्रा में गाँधी जी ने ये बयान दिया था कि “ऐसा कौन सा मुल्क है जहाँ समस्या न हो? हर देश की अपनी समस्या है। हालांकि ब्रिटेन को ये ग़लतफहमी है कि भारत की समस्या ब्रिटेन की है। अपनी मेहनत की सूखी रोटी भी उधार के पकवान से बेहतर है। आज़ाद हिंदुस्तान में समस्याएं शायद थोड़ी ज़्यादा हों, पर वो समस्याएं हमारी अपनी होंगी।” गीत की इन पंक्तियों का मतलब भी यही है कि आज़ाद हिंदुस्तान भी अब, बाकी दुनिया की तरह तरक्की की खुली सड़क पर निकल चुका है। ‘मंज़िल कहाँ, कहाँ रुकना है, उपरवाला जाने’। यानी रास्ता अभी धुंधला सही पर हमारे पास एक क्लीयर विज़न है। और इसलिए ‘बढ़ते जाएं हम सैलानी, जैसे इक दरिया तूफानी’। गीत अपने अगले बंध में कहता है –
ऊपर नीचे नीचे ऊपर
लहर चले जीवन की
नादाँ है जो बैठ कराने
पूछे राह वतन की
चलना जीवन की कहानी
रुकना मौत की निशानी
सर पे लाल…
गीत का अगला मुखड़ा अगली सियासी गतिविधि की तरफ इशारा करता है। भारत के आज़ाद होते ही सोवियत यूनियन और अमेरिका दोनों की निगाहें इस बात पर थीं भारत किस गुट में शामिल होगा या उसका झुकाव किस गुट की तरफ होगा। क्योंकि रूस और अमेरिका दोनों जानते थे कि भारत में समस्याएं इतनी हैं कि उसे विदेशी मदद की ज़रूरत तो पड़ने ही वाली है। लेकिन इन दोनों देशों की सोच से उलट, पंडित नेहरू ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए दुनिया को ‘गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत’ से परिचित कराया और किसी एक गुट में शामिल होने के बजाय तटस्थता की नीति अपनाई। नेहरू जी का स्पष्ट मानना था कि अपनी समस्या को दूर करने भारत सक्षम है और इसके लिए उसे दुनिया के ताकतवर मुल्कों की खैरात नहीं चाहिए। यही बात इस बन्ध में है कि
ऊपर नीचे नीचे ऊपर
लहर चले जीवन
नादाँ है जो बैठ कराने
पूछे राह वतन की
हमें लाख तरह की समस्याएं हैं पर वो हमारी अपनी हैं और हम ही उसे सुलझाएंगे। अब गीत का आखिरी बंध, जिसमें थोड़ा सा शैलेंद्र का साम्यवाद भी है –
होंगे राजे राजकुँवर हम
बिगड़ेदिल शाहज़ादे
हम सिंहासन पर जा बैठे
जब जब करें इरादे
सूरत है जानी पहचानी
दुनिया वालों को हैरानी
सर पे लाल…
इस फिल्म श्री 420 के लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास कम्युनिस्ट विचारधारा के थे, ख़ुद शैलेंद्र भी उन दिनों IPTA से जुड़े हुए थे जहाँ तरक्कीपसंद तहरीक के शायरों की भरमार थी। शैलेंद्र ख़ुद भी कंयुनिस्ट थे, हालांकि पंडित नेहरू की नीतियों के प्रशंसक भी थे। हाँ तो गीत पर आते हैं। Late 40’s और early 50’s में भारत के साथ और भी कई मुल्कों को आज़ादी मिली थी ब्रिटिश कॉलोनियल सिस्टम से। चीन भी उनमें से एक था। चूंकि कम्युनिस्ट शासन को लेकर बाकी दुनिया का रुख हमेशा से थोड़ा आलोचनात्मक रहा है, इसे इंगित करते हुए शैलेंद्र कहते हैं कि
होंगे राजे राजकुँवर हम
बिगड़ेदिल शाहज़ादे
हम सिंहासन पर जा बैठे
जब जब करें इरादे
कि भई कहने को कोई कुछ भी कह ले, हमने (कम्युनिस्टों ने) अपनी इच्छाशक्ति पूरी दुनिया में साबित कर दी। हालांकि भारत के नज़रिए से देखें तो ये बंध अपना दूसरा अर्थ बताता है। जगज़ाहिर है कि पंडित नेहरू का ताल्लुक बेहद रईस खानदान से था। और नेहरू जी के आलोचक इसे लेकर उनकी भरपूर आलोचना किया करते थे। इस पर शैलेंद्र, नेहरू जी के हक़ में कहते हुए लिखते हैं कि ‘
होंगे राजे राजकुँवर हम
बिगड़ेदिल शाहज़ादे
हम सिंहासन पर जा बैठे
जब जब करें इरादे
और अगली लाइन कि ‘सूरत है जानी पहचानी, दुनिया वालों को हैरानी’ ये लाइन उन देशों पे एक तंज था, जो ये समझते थे कि भारत को आज़ाद कर दिया गया तो अकेला अपनी समयाओं का समाधान नहीं कर पाएगा और घूम फिर कर दोबारा ब्रिटेन का उपनिवेश बन जाएगा। कि जिसे शक था वो देख लें, सूरत है जानी पहचानी, यानी कि भारतीयों ने ही भारत की सत्ता संभाल ली है और अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा है।
– सौरभ ‘सफ़र’