बूढ़ी हुयीं बुआ पर हर
बूढ़ी हुयीं बुआ पर हर
सावन में मैके आ जाती हैं!
बापू के सँग विदा हो गये
सब अधिकार दुआरे के
आँगन चौखट और कोठरी
चली गयीं अम्मा ले के
सूखे हुये ताल से जाकर
जाने क्या क्या बतियाती हैं !
आँखों में मोतियाबिंद है
जाने कैसा धुआँ मचा
बचपन में जो नीम खड़ा था
अब बस केवल ठूँठ बचा
उसी ठूँठ के नीचे रुककर
कुछ भूला बिसरा गाती हैं
हर पीपल बरगद गलियारे
से बचपन का नाता है
खुद ही चलकर आ जाती हैं
कोई नहीं बुलाता है
जाते समय ज़रा से चावल
हर घर में बिखरा आती हैं
– ज्ञानप्रकाश आकुल