November 21, 2024

कविता बंग्ला मूल के कवि सुनील गंगोपाध्याय की है जिसे हिन्दी में हम तक पहुंचाने का जिम्मा जिस ईमानदारी से अनुवादक-कवयित्री सुलोचना वर्मा ने उठाया , वह काबिले तारीफ़ है । कविता अच्छी होती , सुंदर होती है , कहीं-कहीं अध्यात्मवाद से जुड़ दार्शनिक भावों में परिलक्षित भी हो जाया करती है ; लेकिन इन सबके इतर एक कविता के वैशिष्ट्य और खूबी उसके अनगढ़ होने , ऊबड़-खाबड़ होने और गहरे इतिहास बोध से भरे होने में है । हमें जिससे तात्कालीन समय स्थिति का उद्भास होता है , और वह बेहद मायने रखती है । सुनील गंगोपाध्याय की यह प्रस्तुत कविता भी इसीलिए कहीं अधिक ग्रहणीय और महत्वपूर्ण है । अनुवाद एक वो बड़ी विधा है और उपकृत विधा है जो न सिर्फ भारतीय भाषाओं के रचना समय और संसार से हमें अवगत कराते हैं अपितु वैश्विक साहित्य से जोड़ हमें समृद्ध भी बनाता है। तभी न हम गोर्की को ग‌ए , तभी न हम तालस्ताय को जाने , जाने-बुझे रवीन्द्र बाबू , सुनील गंगोपाध्याय को । सुलोचना वर्मा अनूदित सुनील गंगोपाध्याय की यह कविता उन दीवानों और परवानों की है जिन्होंने देश के लिए , लिख दी..आ…जा…दी और देख रहा हूं कि ‘देश’ ने उन इबारतों को ढहा दिया । हमारा दंभ यह कि हमीं हैं और हम कहीं नहीं है । साथियों आइए मनन करें शानदार अनुवाद की इस बेहतरीन कविता के माध्यम वे कहां थे ? और हम कहां ; किस जगह खड़े हैं !
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इधर हिंदी पट्टी में इस विधा पर Mita Das Shitendra Nath Choudhury जगदीश नलिन भी उम्दा कार्य कर रहे हैं उम्मीद से भरे कार्य कर रहे हैं । स्वागत किया जाना चाहिए ।

वो सारे स्वप्न
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कारागार के अन्दर उतर आयी थी ज्योत्स्ना
बाहर थी हवा, विषम हवा
उस हवा में थी नश्वरता की गन्ध
फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाभी को,
“मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं |”

मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है
घण्टा बजता है प्रहर का, संतरी भी क्लान्त होते हैं
सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्ष बोध करती है |
कंडेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य,
“माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ?
आज चारों ओर देखो,
लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं,
मैं जिंदा ही रहा माँ, अक्षय”

कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ,
घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया
पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदण्ड
अन्तिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने
पोस्ट कार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को,
“अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक,
साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं,
आज मैं बहुत ज्यादा नहीं लिखूँगा
सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुंदर है। ”

लोहे की छड़ पर रख हाथ,
वह देख रहे हैं अंधकार की ओर
दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अंधेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय
सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी,
“मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ?
सिर्फ एक ही चीज,
मेरा सपना एक सुनहरा सपना है,
एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था।”

वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं
सुनायी पड़ता है साँसों का शब्द
और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता
अमरत्व के अन्य नाम होते हैं
कानू, संतोष, असीम लोग …
जो जेल के निर्मम अंधेरे में बैठे हुए
अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं ।

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