November 21, 2024

काफ़ी महीनों से Mridula Garg की किताब ‘कठगुलाब’ की प्रतीक्षा में रही हूँ। मेरे एक दो दोस्तों ने यह न केवल रिकमेंड किया, बल्कि किताब के पैसे तक दे दिये। पर लुका छिपी के खेल के चलते यह किताब कभी आउट ऑफ स्टॉक रहती, तो कभी स्मृति से लोप। अभी हाल ही में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रो० संतोष भदौरिया सर के व्यक्तिगत प्रयास से ‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं।’ पुस्तकालय का उद्घाटन हुआ है। जिसमें मुफ़्त सदस्यता के साथ विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए किताबें उपलब्ध कराई जा रहीं और पढ़ने के साथ-साथ पाठकीय टिप्पणी भी लिखना अनिवार्य है। इस तरह यह किताब मुझ तक पहुँच पाई। बहरहाल, मृदुला मैम से सादर कुछ असहमति सहित यह टिप्पणी आपके समक्ष है।
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भीड़ में असंपृक्त होना क्या होता? अवसन्न होने की स्थिति कैसी होती है? ‘स्व का आत्मदाह’ की अपेक्षा स्त्रियों से क्यों? भावनाओं, जिम्मेदारियों की गठरी उठाते हुए उन्होंने अपना सामान कब पीछ छोड़ किया, किसे फर्क पड़ता है!वह जिन्हें फर्क पड़‌ता है उन्हीं के लिए स्मिता ने कहा है कि मनुष्य जन्म लेते – लेते इनका पुरुषत्व घटता, और मनुष्यत्व बढ़ता गया है। यह कठगुलाब की कहानी है। यहाँ नाउम्मीदी की झाड़ी पसरती जा रही और उम्मीद का कठगुलाब झड़ता जा रहा। मापदण्ड के आधार पर की गयीं सैकड़ो समीक्षा उपलब्ध है। इसलिए उसके बनिस्बत बदलते समय में नयी अर्थवत्ता ग्रहण करते इस उपन्यास की उसी पद्धति पर जुगाली करने का कोई औचित्य नहीं। यह उपन्यास अन्तश्चेतना के क्षत-विक्षत और विगलित होने का रेहमनामा है। यह उपन्यास हमें जितना अन्दर ले जाता है उससे अधिक बाहर धकेलता है; उन चौरास्तों पर जिनकी सड़कें स्त्रियों के लिए कभी समतल रहीं ही नहीं। अनामिका जब कहती हैं –
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ़्त हो उनींदें
देखी जाती है क‌लाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद

इस मुख़्तसर सी ही बात को मांसलता दी है इस उपन्यास ने। ज़ाहिर है इस उपन्यास की अपनी सीमाएँ हैं, स्वभावतः पात्रों की भी। असीमा सीमाओं से परे आकार ग्रहण करने की अपेक्षाएं लिए हुए भी सीमाओं के बंधन में फंस जाती है। शायद यह लेखिका की अपनी सीमा है। सिमोन द बउआ जब कहती हैं- ‘स्त्रियाँ पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं।’ स्त्री विमर्श का पैरोकार यह उपन्यास इस सीमा को लांघ नहीं पाता। चार मुख्य स्त्री पात्रों और एक पुरुष पात्र के अन्तस् की आखिरी चाह कोख और मन का सूनापन है। ये सभी औरतें मातृत्व सुख के लिए बेचैन हैं। ‘गर्भ धारण’ शब्द की इतनी दफ़ा आवाजाही है कि यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है, बिना कोख मनुष्य का अस्तित्व, अस्मिता बेमानी है? मृदुला जी से पूछना चाहूँगी यह कहानियाँ किसी खाके में ढाली हुई सी क्यों प्रतीत होती हैं? जब असीमा की माँ कहती हैं – ”मुझे मर्दों से नफ़रत नहीं है। ज़रूरी नहीं है कि सब मर्दों की ख़्वाहिशें एक जैसी हों। मुझे मात्र शरीर बनकर जीना पसन्द नहीं था और मैं दया का पात्र भी नहीं बनना चाहती थी। यह मेरी किस्मत थी कि मुझे इन्हीं के बीच चुनना पड़ा।” अपनी स्त्री पात्र से यह कहलाने के बावजूद जॉर्ज के अलावा हर मर्द नामर्द, हवसी, आत्ममुग्ध, घाघ,जंगली, ज़ाहिल, वहशी और फाहश फरमाइशों वाला है। स्त्रियों के अंतरंग और बहिरंग उत्पीड़न से समाज को रूबरू कराना, इसका ध्येय है किंतु इस उपन्यास का आंकड़ा मानें तो 90% पुरुषों ने अपना स्वार्थ साधा है, धोखा किया है स्त्रीयों से?
एक मुद्दा ज़बरदस्ती का लेस्बियनिज्म का है। अगर कोई स्त्री किसी पुरुष का साथ नहीं चाहती तो किसी स्त्री को ही साथी के रूप में चुन लें, यह प्रसंग भी अहसास के चलते नहीं आता , आरोपित सा प्रतीत होता है। खैर… पर ऐसे तो इसे महज स्त्री विमर्श के खाके में डालकर किनारे नहीं फेंक दिया जाएगा? पुरुषों ने हमारे साथ न्याय नहीं किया, तो उसके बरक्स ही हम नया तंत्र खड़ा करेंगे जो सिर्फ हमारा पैरोकार बने, यह कहाँ का न्याय है!
वर्तमान बनते इतिहास की सिमटती स्मृतियों को कैद करने के लिए हमारे पारखी पुरखों को सलाई पकड़ाई गयी और उनके नायाब चश्मों ने महीन बिनाई पेश की। स्त्रियों की ओर दृष्टि डालते हुए उन्होंने चश्मा उतार लिया था। आखिर धुंधले चित्र को कोई कितना स्पष्ट पेश कर दे!

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ लिखते हैं –
कुछ औरतों ने
अपनी इच्छा से
कुएँ में कूदकर जान दी थी,
ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज है।
और कुछ औरतें
चिता में जलकर मरी थीं,
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है।

नहीं, पुलिस के रिकॉर्ड में कुछ गलत कहाँ दर्ज है। मारियान जब कहती है – “वह कैसे समझ पाया कि ठीक क्या कहने से मैं आत्मसमर्पण करूँगी? किन शब्दों के मोहजाल में फँसकर, मैं मजबूर किये जाने को, राजी होना मान लूँगी। पता नहीं, वह मेरी वेदनशक्ति का कमाल था या खुद उसकी घाघ दृष्टि का; जो था मुझे मात देने को काफी था।” स्त्रियों के इस नियति का जिम्मेदार कौन है? स्त्री स्वयं या वह पुरुष, वह समाज, लेकिन क्या बहस करना इसपे; इन किताबी बातों के अलावा कौन खाली है इसे समझने को। मेरे साथ का पुरुष वर्ग जब यह कहता है, ‘पूरी जवानी खाई बनवइ में जाता, अब बियाहे के बादौ बनवई पड़े त का फ़ायदा!’ यह बहुत छोटी सी बात है किंतु यह तथाकथित पढ़े लिखे समाज की चर्चा है। 21वीं सदी में भी भोजन बनाने जैसी जीवन से जुड़ी आवश्यकता को जेंडर बायस्ड होकर देखा जा रहा।
यह उपन्यास स्मिता, मारियान, नर्मदा, असीमा, नमिता, नीरजा, रूथ, एलेना, सूजन, रॉक्जॉन जैसी अनेकों औरतों की आपबीती है। ये प्रतिनिधि हैं हर उस औरत की जो इसे पढ़ते वक्त इन पात्रों में खुद को तलाश करती है। वक्त के बदलते आयाम में पीढ़ी दर पीढ़ी बहुत कुछ बदलता है, पर ये पात्र सबका प्रतिनिधित्व करते नज़र आ रहे। मारियान ने भी यह माना ही कि आज की तथाकथित स्वतंत्र और व्यक्तिनिष्ठ स्त्री, और समाज की अपेक्षाओं पर मर-मिटने वाली उन पुरखिन औरतों के बीच, कोई बुनियादी फ़र्क नहीं था। स्त्री-विमर्श पुरुष को गालियाँ देकर स्त्री की हीन और कारुणिक स्थिति को मजबूत और महिमामण्डित करने का मंच नहीं है।यह पितृसत्ता द्वारा पोषित पूर्वाग्रहों और माइंडसेट को झकझोर कर जेंडर न्यूट्रल समाज की संरचना का स्वप्न है जो स्टीरियोटाइप्स को तोड़े बिना सम्भव नहीं।
असीमा जब कहती है- “मुझे देख, मैंने अपनी नौकरी के पहले चार महीनों की तनख्वाह कराटे सीखने में खर्च की है। मर्दों की दुनिया में रहने के लिए होम साइंस नहीं, कराटे की जरूरत है।” जब मैं औरतों को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक मापदंडों पर कमजोर होने की बात लिख रही हूँ। तो मैं चाहती हूँ आप पिछली पंक्ति दोबारा पढ़ें और वक़्त के इस नाज़ुक दौर में इन शब्दों पर ठहरें और महसूस करें उस पीड़ा जिससे निजाद सिर्फ लड़कर नहीं पाया जा सकता है। स्मिता आत्मनिर्भर नहीं थी। ”जब आँख खुली तो वह एक दरिंदे के शिकंजे में थी।…सामने आदमकद शीशा रखा था।वह पूरा दम लगाकर चीखी तो उसका मुँह कपड़ा ठूंसकर बन्द कर दिया गया।…उसे पूरी तरह नग्न करके, उसने उसके बदन के हर हिस्से पर थूका, उस पर खुद को लथेड़ा। …छातियों पर लात घुसे बरसाए।” देश के किसी न किसी हिस्से में हर रोज़ किसी बेटी को इस बेमुरव्वत रोशनी से खीझ हो रही है। मेरे समाज से निकला एक वहशी दरिंदा पूरे समाज को पीड़ा की आग से दहका देगा। किस आज़ादी के लिए उठ खड़े हों? क्या स्मिता ताउम्र किसी सामान्य औरत सा महसूस कर पाई? ”हक माना जाता है जीजा का साली पर अश्लील मजाक करने का। …वह विकृत पशु, वह शीशा, जली बत्ती, बंधे हाथ, अवमानना का वह तांडव।” कितनी नमिता जैसी बहनें इन अधिकारों भरे फूहड़ मज़ाक को घर करेंगी अपने भीतर? कितनी बहनें बचाएंगी अपना सिंदूर और उदासीन हो जाएंगी स्मिता की कराहों से?
”बिरादरी की रीत है। दो बहनों से सादी में पाप ना हो है। कित्ते मरद कर चुके।” मृदुला जब यह लिख रहीं तो यह किसी औरत, पुलिस हवलदारनी के मुँह से कहला रहीं। कितनी सहजता से इस निकृष्ट बात को प्रमाणिकता दी जा रही है? दो-दो बीवियों का कमाई का पैसा खाने पर यह मर्द गनपत, नामर्द नही हुआ? कैसी विडंबना है! ”अरे, मार-पीट हम भी करे हैं पर ऐसे नहीं कि लेने -के-देने पड़ जाएं। कल को टाँग पसारकर पड़ रहेगी तो नुकसान किसका होगा?” यह दम्भी पुरुष औरतों पर दया भी अपने स्वार्थ से कर रहा है। समाज की फराखदिली का यह नमूना हमारे आस पास मौजूद है। जिन्हें देखने का चश्मा तोड़ कर फेंक दिया गया है।
रिफ्लेक्टिव शैली में लिखा गया यह उपन्यास पढ़ते हुए भी ख़ुद से खतोकिताबत कराता है। यहाँ घटनाएँ महज माध्यम हैं, भीतर के आयतन, द्वंद्व, पीड़ा के अहाते में प्रवेश कर सवालों को कलमबद्ध करने का। यह उपन्यास उन सब बिंदुओं की शिनाख़्त करने की कोशिश करता है जिसके सहारे औरतों की आज़ादी मुक़म्मल हो सकती है और हमारा समय, परिवेश और समाज उस आज़ादी की बौनी दीवार को ढहाने से नहीं चूकता। यहाँ सकारात्मकता इतनी ही है कि गिरकर भी खड़े रहने जज़्बा बटोर पा रही है असीमा। किन्तु किस एवज में? ”ब्लैक बेल्ट पाना, मेरे लिए, कराटे में सिध्दहस्त होना ही नहीं, मोक्ष प्राप्ति की तरह था। जीवित रहते मोक्ष-प्राप्ति, नारी सुलभ कोमलता और करुणा से।” वह जो औरत का गहना था इस समाज से लड़ने और डटे रहने के एवज में उसे भी खो बैठे। किन्तु स्मिता, बनने से बेहतर है ‘असीमा’ हो जाना। इस उपन्यास में कई सारे मुद्दों को उठाया गया है जैसे कि उच्च पदों पर बैठी स्त्रियाँ नहीं चाहती कि निम्न वर्ग की स्त्रियाँ पढ़ें क्योंकि उन्हें कम वेतन में काम वाली बाई मिलना बंद हो जाएंगी। यह मुद्दा स्त्री-पुरुष का है ही नहीं, यह वही मार्क्सवाद है जहाँ पूंजीवादी वर्ग कम वेतन में मजदूर चाहता है। यह उपन्यास उस समाज की बात करता है जहाँ औरतों को सहायक बनाने से ऐतराज नहीं। पर वे काम सीखकर, बकायदा मिस्त्री कहलाएं या निर्णय लेने की गुस्ताखी करें, उससे हर किसी समाज और परिवार की मर्यादा संकट में नजर आने लगती है।
ऐसी ही तमाम जुमलों, शब्दों और पूर्वाग्रहों की अपने पात्रों पर घटी घटनओं के माध्यम से बखिया उधेड़ती हैं मृदुला गर्ग।वे शब्द जो समय के साथ अपने अर्थ खोकर संकुचित हो गए हैं, उनमें अर्थ भरती है यह किताब। गगन गिल जब यह लिखती हैं तो रॉ में मौजूद हर औरत का सच है। यह रॉ उपन्यास का हिस्सा भी है और उससे कहीं अधिक उपन्यास के बाहर फैला हुआ है।

उस दिन से बहुत दिनों दूर
सपने में लड़की झाँकेगी
अंधे कुएँ में
भीतर होगी जिसके अंधी एक और लड़की
आँखें जिसकी देखेंगी जिसे भी
अंधा कर देंगी…

जहां हर औरत अपने और अपने जैसी तमाम औरतों के आपबीती, उत्पीड़न और उसके बाद आत्मपीड़न से भरे अन्तस् में मुब्तिला है। रेत की मछली के लतर जैसे पूरे उपन्यास में कठगुलाब की आवाजाही है। वह कठगुलाब जो काठ सा दिखते हुए भी नरम है, आसानी से उगता नहीं पर उगता है तो पसर जाता है, वह जो खिलता नहीं है पर खिलता है तो झनन-हूम करके, और दीप्त कर देता है आँखों को। किन्तु सूख के झड़ जाता है पत्ता-पत्ता। खैर, समय, रिहाइश और समाज के बदलते रूप के साथ इस बिम्ब के मायने बदलते रहेंगे। इति।

……………
विधि तिवारी

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