ट्राम की सुनहरी यादें
ट्राम हमारे लिए उतने ही ज़रूरी थे जितना ज़रूरी था हमारे लिए राशन, ट्राम के बिना जीवन की कल्पना की ही नहीं जा सकती थी। जैसे कलकत्ता और ट्राम का रिश्ता है वैसा ही हमारी स्मृतियों और ट्राम का रिश्ता है, बहुत कम लोग स्कूटर से दफ्तर जाते थे, ज़्यादातर पुरूष ट्राम से ही दफ्तर जाते थे, हमारे घर के कुछ बच्चों के स्कूल १०.३० बजे के होते थे और कुछ के दोपहर १ बजे से, उनमें से अधिकतर बच्चें ट्राम में ही जाते थे। घर की औरतें, बुज़ुर्ग भी ट्राम से ही दोस्तों से मिलने, सब्ज़ी, मछली लेने, एक पाड़ा से दूसरे पाड़ा तक ट्राम से ही जाते थे। किसी शुभ कार्य के लिए जाते समय ट्राम में ही मन में अभ्यर्थना की। मानिकतल्ला डाकघर, कांगुरगाछी, नोनापुकुर और मौलाना आज़ाद कॉलेज तक जाती ट्रामों में हम बड़े हुए हैं। न्यू पार्क स्ट्रीट, खिदिरपुर, गरियाहाट से होते हुए टॉलीगंज तक सफर करते हुए हमने अपने टीनएज का एक अच्छा खासा समय बिताया है। इन्हीं ट्रामों में हमने अपने बुज़ुर्गों को चढ़ते उतरते देखा है। ट्राम में उन्हें नये दोस्त बनाते देखा है, उन दोस्तों के लिए घर से आधा घंटा पहले निकलते और घंटा भर देरी से आते देखा है। जाने कितने प्रेमियों को ट्राम में बाते करते देखा, रूठते मनाते देखा और यह सब देखते हुए हम कज़न्स एक दूसरे को देखकर चुपचाप मुस्कुराते थे। वैसे तो हमारे बड़े हमारे लिए ऐसा कहते हैं कि हम बचपन में ऐसे थे, वैसे थे, हम इस तरह बड़े हुए, उस तरह खेलते देखा परंतु ट्राम से जुड़ी स्मृतियों में हमने अपने बुज़ुर्गों को बच्चा बनते देखा। ट्राम की घंटी और विद्यालय की घंटी ही स्मृति में रही।
ट्राम में ही जीवन की जूझ से लड़ते, संघर्ष करते लोगों को उदास सफर करते, जेब से पैसे निकाल कर गिनते, कभी देर तक अपने पैरों की उँगलियों को घूरते देखा, लोगों को नाखून चबाते देखा, पहली तनख़्वाह से घरवालों के लिए उपहार खरीद कर ले जाती लड़कियों को देखा, ट्राम के पंखे के नीचे शिशुओं को सोते देखा। टैक्सी में कहीं जाने पर घर से बार बार फोन आते, ट्राम में सफर करने पर घर में कभी किसी को चिंता नहीं होती थी। ट्राम घर के एक कमरे की तरह था, बेफिक्र बैठे रहे हम। शोक सभा से लौटते हुए लोगों को एकटक खिड़की से बाहर आकाश की ओर देखते देखा। ज्ञानेंद्रपति की कविता ट्राम में एक याद जब पहली बार पढ़ी, तब कलकत्ता में घरवालों को सुनाई, जिन्हें हिंदी नहीं आती थी, उन्हें बांग्ला में अनुवाद करके बताई। चेतना पारीख को बार बार ईमैजिन किया, बनानी बनर्जी को भी। जल्दबाज़ी में घर से निकलने पर ट्राम में ही नाश्ता किया। कुछेक बांग्ला फिल्मों की शूटिंग भी ट्राम में देखी।
कभी ट्राम ठसाठस भरी रहती, कभी खाली परंतु ट्राम की इतनी स्मृतियों के मध्य मैंने बचपन को गायब होते देखा, माँ पापा की ऊँगली छूटी, खिड़की की सीट मिली कभी खड़े खड़े ही यात्रा की परंतु ट्राम ने सदैव सहारा ही दिया। जिन लोगों ने ट्राम में बाँसुरी बजाई, दोतारा बजाया, उनकी एक भी वीडियो नहीं बनाई परंतु वे मन से मुक्त नहीं हो सके।
आज पता चला कि पश्चिम बंगाल सरकार १५० साल पुरानी ट्राम सेवा को बंद कर देगी। एक विरासत खंड को छोड़कर अन्य ट्रामें बंद कर दी जायेंगी। बढ़ते वाहन, जाम और भीड़ के कारण यह फैसला लिया गया। इसके विरोध में सीयूटी ने एक हैशटैग अभियान शुरू किया है। अब बस एक ही रूट पर चलेगी ट्राम।
हमारी एकमात्र स्मृतिवाहन अब बंद हो रही है। कोई पताका हाथ में लेकर हम कुछ नहीं कर पायेंगे। बहुत सारी चीज़ों की जगह अन्य चीज़ों को जगह लेते देखा। घर में आखिरी बार तार तब आया था जब नाना की मृत्यु हुई थी। तार सेवा, मनी ऑर्डर, डीडी १, रेडियो, छोटी ब्लैक एण्ड वाईट टी.वी, लूना, बहुत सारी चीज़ों को दृश्य से ओझल होते देखा। बचपन से बिना इंटरनेट के बड़े हुए।
जिन चीज़ों के साथ बचपन से बड़े हुए, वे सभी धीरे धीरे चली जा रही हैं।
मंगल में, अमंगल में, अनुद्विग्न मन से, उद्विग्न मन से, प्रिय के साथ, प्रिय के विछोह में, भूखे पेट, भरे पेट, धन के अभाव में, हँसी में, क्रंदन में, सदैव ही ट्राम ने आलय दिया।
तस्वीर – गूगल से ली है।
जोशना बैनर्जी