“विश्व डाक दिवस”
वो भी क्या दिन थे जब डाकिए का इंतजार हुआ करता था। डाकिया डाक लेकर जब गली में प्रवेश करता था तब उत्सुकता मन में हिलोरें मारने लगती थी। चिट्ठी आई तो खुशी और नहीं आई तो उदासी। चिट्ठियों में कभी सुख के संदेश होते थे तो कभी दुःख के संदेश होते थे। पोस्ट कार्ड, अन्तर्देशी पत्र, लिफाफा, टेलीग्राम ये डाक के प्रकार हुआ करते थे। पोस्ट कार्ड में जवाबी पोस्टकार्ड की भी सुविधा होती थी। अतिरिक्त शुल्क द्वारा “एक्सप्रेस डिलीवरी” की सुविधा भी डाक विभाग दिया करता था। शहर के मुख्य स्थानों पर, डाक घर के सामने या रेलवे स्टेशन में आर एम एस (रेलवे मेल सर्विस) की सुविधाएँ हमें उपलब्ध थीं। अर्जेंट संदेश के लिए “टेलीग्राम” हुआ करते थे। टेलीग्राम अक्सर दिल की धड़कनों को बढ़ाने वाले होते थे। साधारण समाचारों के लिए पोस्टकार्ड, सस्ता सुन्दर और टिकाऊ साधन था। अंतर्देशीय पत्रों में अंतर की बातें लिख ली जाती थीं और अंतरंग व गोपनीय बातों के लिए बंद लिफाफा प्रयोग में आता था।
अंतरंग चिट्ठियाँ अक्सर ब्रेक ले-लेकर कई किश्तों में लिखी जाती थीं। ऐसे लिफाफे न केवल भावनाओं की खुशबू लिए होते थे बल्कि इत्र-फुलेल से भी महकते रहते थे। डाक विभाग की चिट्ठियों ने न जाने कितने दिलों के तार जोड़े हैं। कितने ही परिवार बसाए हैं। औपचारिक चिट्ठियाँ इत्र-फुलेल विहीन हुआ करती थीं। पत्र-लेखन, हिन्दी विषय का एक अनिवार्य चैप्टर हुआ करता था। मोबाइल और नेट आ जाने सेचिट्ठियों का जमाना तो गुम हो गया मगर हिन्दी के पाठ्यक्रम में आज भी पत्र लेखन अपनी अनिवार्यता बनाये हुए है।
चिट्ठियों पर उस दौर में अनेक अमर गीत भी बने जैसे –
भगवान तुझे मैं खत लिखता पर तेरा पता मालूम नहीं
आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की
तेरा खत ले के सनम पाँव कहीं रखते हैं हम
खत लिख दे साँवरिया के नाम बाबू
ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर तुम नाराज ना होना
फूल तुम्हें भेजा है खत में
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय
चिठिये नी दर्द फ़िराक वालिये ले जा लेजा संदेसा
डाकिया डाक लाया
आदि, आदि।
गजलें भी बनी जैसे –
चिट्ठी आई है आई है, चिट्ठी आई है
चिट्ठी न कोई संदेश, कहाँ तुम चले गए
आदि।
नेट, जी मेल और मोबाइल के दौर में ऐसे गीतों का सृजन ही बंद हो गया। ये बात और है कि कॉलेजों में कापियों-किताबों में दबा कर दी जाने वाली चिट्ठियों के लिए डाक विभाग की जरूरत ही नहीं पड़ती थी।
चिट्ठियों के अलावा डाक विभाग मनी आर्डर की सुविधा भी प्रदान करता था। मनीऑर्डर का आना क्या मायने रखता होगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सिक्सटी प्लस वालों को यह भी मालूम होगा कि रेडियो और ट्रांजिस्टर्स के लाइसेंस की फीस भी डाक घरों में जमा की जाती थी।
मेरे संकलन में बहुत ही विख्यात विभूतियों की हस्ताक्षरित, बहुत पुरानी चिट्ठियाँ अभी भी हैं। चित्र को ज़ूम करके देखिए, विभूतियों के बारे में जान जाएंगे। इस चित्र में पोस्ट कार्ड भी है, जवाबी पोस्टकार्ड भी है, अंतरदेशीय पत्र भी है तो डाक विभाग द्वारा जारी लिफाफे भी हैं। टेलीग्राम पत्र भी देखने को मिल जाएगा। तब की चिट्ठियाँ आज के लिए इतिहास बन गई हैं। डाकघर आज भी हैं। चिट्ठियाँ आज भी हैं मगर प्रायः सारी चिट्ठियाँ व्यापारिक , संस्थागत, शासकीय या अर्द्धशासकीय होती हैं। दिल से लिखी जाने वाली निजी चिट्ठियों के दिन अब गुम हो चुके हैं। विश्व डाक दिवस की शुभकामनाएँ।
आलेख – अरुण कुमार निगम
छत्तीसगढ़