November 22, 2024

कुछ विचार .. मेरे पुराने लेख का एक अंश .. मानबहादुर सिंह , भगवत रावत और मुक्तिबोध

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कथातत्व और जीवन के आधार पर मानबहादुर सिंह भी मुक्तिबोध की अपेक्षा स्पष्ट हैं लोकधर्मी कवियों में सबसे बेहतरीन कथात्मक कविताएं मानबहादुर सिंह ने लिखी हैं चूँकि वह गाँव मे रहते थे और वहाँ के सामन्तों के विरुद्ध राजनीति में भागीदारी भी करते थे इसलिए जीवन के वास्तविक व अनुभूत बिम्ब उनकी कविताओं की प्राणवत्ता है । माँ जानती है , लेखपाल , भूतग्रस्त कविता संग्रह मे पचास फीसदी कथात्मक कविताएं हैं विशेषकर वह कविताएँ जो उन्होने अपने गाँव की सामाजिक व्यथा कथा को लेकर लिखी हैं अपनी कविता को उन्होने अपने स्वभाव , व्यक्तित्व और विचारधारा के अनुसार जीवन के बीच लाकर बैठा दिया है उनकी लम्बी कविता है “पूँछे कोई” इसका एक अंश देखिए और अन्धेरे की बेतरतीब खोजों से इसकी तुलना करिए “अपना गाँव / कैसे लडाया उसे कैसे तोडी उस लडकी की शादी / करके बदनाम / मैले अंगौछे से पसीना भीगीं नोटें / वकील को देते समय क्यों भूल जाते हैं वे / कल के लिए नही है घर में आटा दाल ” यह भी मध्यमवर्गीय चेतना का बिम्ब है और मुक्तिबोध का काव्यनायक भी मध्यमवर्गीय आदत का प्रतिनिधित्व करता है बस अन्तर यह है कि मुक्तिबोध काव्यनायक को व्यक्तित्व नही प्रदत्त कर पाते हैं और मानबहादुर उसकी वर्गीय अवस्थिति को मूर्त करके आदतों को भी मूर्त कर देते हैं । मुक्तिबोध का काव्यनायक विचारशील है फिर भी वह भाग दौड मे उलझा है । विचारवान होना और फिर भी उलझे रहना परस्पर विलोम है ।मानबहादुर का नायक विचारशील नही है इसलिए वह मेहनत की कमाई को वकील और कचेहरी पर लुटा रहा है । वह इसलिए उलझा है कि वह चेतन नही है उसे कल की चिन्ता नही है ।यह जीवन का बिम्ब है ऐसे ही बिम्ब भगवत रावत की कविता मे हैं ।भगवत रावत भी उसी संकट के कवि हैं जिस संकट की बात मुक्तिबोध के आलोचक खोजते हैं । मगर भगवत रावत मे यथार्थ की इमानदार और प्रमाणिक स्वीकृतियाँ हैं जो मुक्तिबोध मे नही है । भगवत रावत लगाव और आत्मीयता के कवि हैं जब लगाव और आत्मीयता के बाद भी आपेक्षित निष्कर्ष नही निकलते तो कवि का संताप मध्यवर्गीय अपराधबोध से गुजरने लगता है । भगवत रावत स्वयं मे मध्यमवर्गीय थे मगर वैचारिक रूप से वामपंथी थे अपनी इस मध्यमवर्गीय स्थिति को उन्होने बडी इमानदारी से स्वीकार किया है । जबकि आलोचक मुक्तिबोध के काव्यनायक को मध्यमवर्गीय कहते हैं वह क्रान्ति और परिवर्तनों से डरता है अपराधबोध का शिकार कम होता है कूछेक स्थलो में अपराध बोध है मगर वह वह आत्मालोचन की उद्दातता से युक्त नही है । इस सन्दर्भ में भगवत रावत मुक्तिबोध से एक कदम आगे हो जाते हैं वह मध्यमवर्गीय आदतों का इमानदारी से उल्लेख ही नही करते बल्कि इन आदतों की मुखालफत का विजन भी देते हैं मुक्तिबोध ऐसा नही करते हैं । इसका मतलब है मुक्तिबोध के पास कमजोरियों से बहुत लगाव है उन्होने एक जगह कहा भी है “कमजोरियाँ सब मेरे संग हैं” जबकि भगवत रावत इस मध्यमवर्गीय आईडियल दायरे को तोड देते हैं ” मैने कभी उन लोगों के साथ / पेढ के नीचे पत्थर पर बैठकर / खाना नही खाया / अभी उनकी हथेलियों की बट्टों को / अपनी उंगलियों के पोरो पर / महसूस नही किया” ( कैसे बताऊँ उन्हे ) यह संताप और आत्मालोचन मुक्तिबोध मे नही है । आत्मालोचन मुक्तिबोध मे आया है लेकिन बस आलोचन के लिए आया है बाकी अन्तहीन खोज और गुमशुदा वस्तु की प्रकृति मे कोई तब्दीली नही है जबकि भगवत रावत अपने ऊपर ही नही विचारधारा पर भी सवाल खडा करने की हिम्मत रखते हैं इसका आशय यही है कि भगवत रावत का आलोचन सपने का आलोचन नही है वह जीवन जगत का सचेतन आलोचन है “लगता है क्रान्ति का सपना आपका पूरा हो गया है / देखिए न अपना बिगुल / आप ही बजा रहे हैं / आप ही सुन रहे हैं ( भगवत रावत प्रतिनिधि कविताएँ ) आलोचन चिन्तन और वस्तुपरकता के लिहाज से मध्यमवर्गीय आदतों पर भगवत रावत के विचार मुक्तिबोध से बीस ठहरते हैं ।जनपक्षधर की कविताओं का सबसे शक्तिशाली पक्ष चरित्र होता है । चरित्रों का प्रयोग त्रिमुखी होता है । पहला यथार्थ का वास्तविक चित्रण , द्वितीय जीवन की विभीषिकाओं का वस्तु बिम्ब , और परिदृष्य के विरुद्ध सचेतन प्रतिरोध की गतिशीलता । यह तीनों काम चरित्र करते हैं । लोकधर्मी कवियों मे लगभग सभी कवियों ने चरित्रों का सृजन किया है । त्रिलोचन , केदार , नागार्जुन , मलय ,विजेन्द्र , सुधीर सक्सेना , शम्भुबादल , स्वप्निल श्रीवास्तव , नासिर अहमद सिकन्दर सबकी कविताओं में मूल विनिर्मिति चरित्र हैं । चरित्रों के सन्दर्भ मे सबसे बडी जरूरत है कि व्यक्तित्व का प्रकटीकरण हो जब तक व्यक्तित्व का प्रकटीकरण नही होगा चरित्र पाठक के मन मे स्थाई प्रभाव नही छोड पाते हैं । केदारनाथ अग्रवाल की कविता में बहुत से चरित्र हैं और उनका सधा हुआ व्यक्तित्व है । केदार चेतन मनुष्य से लेकर अचेतन प्रकृति और विचारों को भी व्यक्तित्व की आकृति दे देते हैं इस सन्दर्भ में जनपद बाँदा और बाँदा की केन नदी का व्यक्तित्व देखने लायक है । बाँदा की पहचान केदार हैं और केदार की पहचान बाँदा है । बाँदा को पहचानकर केदार को जाना जा सकता है और केदार को पढकर बाँदा को जाना जा सकता है । केदार के चरित्र चाहे प्रकृति से लिए गये हों या जन से बुन्देली लोक की छटा विद्यमान है । ” रनियाँ के कर मे हँसिया है / घास काटने में कुशला है / मेरे हाथों में रुपिया है / मै सुख सौदागर छलिया हूँ” यहाँ रनियाँ आम मजदूर स्त्री है । कवि अपने आपको विपरीत वर्ग में दिखा रहा है । इस वर्गीय चित्रण से पाठक भली प्रकार समझ लेता है कि वर्गीय अवस्थिति का वैयक्तिक कर्म मे कितना प्रभाव पडता है । ऐसी मजदूर औरतें बुन्देलखंड और बाँदा मे हमेशा दिखाई देती हैं ।यह पहचान वर्गीय होने के साथ साथ लोक की पहचान भी है जिस चरित्र से व उसके व्यक्तित्व से उसके लोक या जमीन की जानकारी न हो तो वह कैसा चरित्र ? यही कारण है केदार की कविताओं मे गाँव और गाँव के किसान , मजदूर , स्त्री , बच्चे , प्रकृति के चित्र बार बार भिन्न भिन्न परिवेश मे सम्मिलित हो जाते हैं ।यह व्यक्तित्व की पहचान ही है जो अपने लोक और वर्ग के साथ जुडकर आती है । यही लक्षण मानबहादुर की कविता में है । उनकी कविता मे एक भी चरित्र वर्गीय पहचान से परे नही है उनका कविता संग्रह माँ जानती है मे उनके गाँव के सामन्ती और श्रमिक वर्ग के चरित्रों का चित्रण है ।मानबहादुर सिंह सामन्तवाद के भोक्ता थे जीवन भर सामन्तवाद से जूझे और टकराए और इसी सामन्तवाद से लडते लडते मानबहादुर सिंह शहीद हुए ।माँ जानती है में सामन्ती चरित्रों का जैसा वर्णन मानबहादुर सिंह ने किया है वैसा वर्णन हिन्दी मे दुर्लभ है । भय और आतंक समावेश किस तरह किया जाता है चरित्र की आदत को कैसे संवेद्य बनाया जाता है मानबहादुर सिंह की कविता से सीखा जा सकता है चरित्र के विवेचन में प्रयुक्त विधान पाठक को उसके आतंक और शक्ति से रूबरू करा देते हैं ” नगीना खिलखिलाए / बोतल से जैसे शराब उडेली जाए / नगीना मुस्कराए / धूप मे जैसे गेहुँवन साँप रेंग जाए” नगीना की मुस्कराहट भी भयकारी थी गेहुँवन सांप जहरीला होता है उसका काटा पानी नही माँगता । किसान इसे देखते ही डर जाते हैं नगीना की मुस्कराहट को गेहुँवन सांप जैसा कहने मात्र से कवि के भीतर व्याप्त भय को समझा जा सकता है ।यह कला चरित्र की वर्गीय पहचान के साथ साथ उसकी हैवानियत को भी उजागर कर देती है यहाँ कुछ भी अमूर्त नही है सब अनुभव से पुष्ट है इसलिए यथार्थ है । यही गुण भगवत रावत की कविताओं में भी है उनके चरित्र भी जीवन से जुडे और आस पास के पास पडोसी होते हैं । चूँकि भगवत रावत अपने आस पास के नातों रिश्तों से चरित्र खोजते हैं इसलिए उन पर किसी किस्म की शंका नही रहती है न अविश्वशनीयता का दोष आता है।भगवत रावत का समय राजनैतिक अपराधीकरण , मुक्तबाजार , साम्प्रदायिकता के उभार का समय था यह आम आदमी को उसके हक से विस्थापित करने का समय था । भगवत रावत ने खुद इन समस्याओं से मुठभेड की इसलिए वह समय के सार्वमुखी संकट के विरुद्धृ चरित्रों के माध्यम से विकलताओं और विफलताओं का चित्रण करते हैं उनकी कविता “मैं सन सैतालिस या उसके बाद नही पैदा हुआ ” में अपने नायकत्व में युगीन विसंगतियों का आख्यान रच देते हैं । इस कविता मे मैं एक सक्रिय और चिन्तशील व्यक्ति के रूप मे है उसका लक्ष्य युग का सही चित्रण है और वह सफल हो जाता है इसी तरह “इन दिनो” कविता मे वह दर्शक के रूप मे रहकर बाबरी मस्जिद ध्वन्स के बाद की कटुतम अनुभूतियों को कह देते हैं ।इसी तरह हीरामन एक ऐसा चरित्र है जो कवि के नाम के साथ जुड गया है बहुत से आलोचक हीरामन की चिन्तनधारा को कवि की चिन्तनधारा समझते हैं हीरामन के माध्यम से भगवत रावत ने शोषण और जलालत की अछूती परतों को खोला है । तीजनबाई कविता मे तीजनबाई का व्यक्तित्व कला का व्यक्तित्व बनाकर प्रस्तुत किया गया है । कला और बाजार के आपसी प्रभावों को व्यक्त करती यह कविता आज के दौर की श्रेष्ठ प्रतिरोधी कविताओं में से है । सब कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भगवत रावत के लिए चरित्र एक माध्यम है विचारधारा और युग की अभिव्यक्ति का वह चरित्रों का प्रयोग अपनी वैचारिक अवस्थिति के अनुरूप करते हैं इसलिए चरित्रों मे मुक्तिबोध जैसी अविश्वशनीयता और अराजकता नही दिखाई देती है ।मुक्तिबोध के चरित्र संगठन पर बात की जाए तो उनमे सबसे बडी कमजोरी यही दिखाई देती है कि वह चरित्र में व्यक्तित्व का अधिरोपण नही कर पाते हैं । व्यक्तित्व के लिए जरूरी है कि उसके उपलक्षण हों मगर मुक्तिबोध पहचान के किसी भी उपलक्षण को स्वीकार नही करते हैं “गहन रहस्य अन्धकार ध्वनि सा / अस्तित्व जनाता” जब वह रहस्य तो अस्तित्व कैसे जनाएगा ? और फिर वह दिखाई नही देता है मात्र उसकी आवाज सुनाई पड रही है कि वह चक्कर काट रहा है । पहचान की अस्वीकारोक्ति चरित्र संगठन को कमजोर कर देती है । जब पहचान नही होगी तो उसका व्यक्तित्व नही होगा जब व्यक्तित्व नही होगा तो उसका वर्ग कैसे होगा ? जब वर्ग नही होगा तो वह कैसे अपनी पक्षधरता दिखाएगा । वह रहस्यमय व्यक्तित्व है । इसलिए उसके कर्म भी रहस्यमय रहते हैं वह दीन दुनिया मे विचरण नही करता वह आलौकिक जगत मे आलौकिक घटनाएं देखता है वह आलौकिक कल्पनाएं करता है । आलोचकों का कहना है कि यह मध्यमवर्गीय व्यक्तित्व है उसका प्रकाशन है ।अन्धेरे में कविता मे ऐसा कौन सा बिम्ब है कि उसके मध्यमवर्गीय व्यक्तित्व का लौकिक खुलासा हो ? जब अस्तित्व ही सन्दिग्ध है तो वर्ग कैसे ? हम मान भी लेते हैं कि वह मध्यमवर्गीय अवस्थिति का आलोचक है तो लेखक का पक्ष कौन है ? वही रहस्यमय परम सत्ता ? वह भी अमूर्त है पहचान के संकट से जूझ रही है । और यदि मध्यमवर्गीय है तो कविता का निष्कर्ष क्या मात्र चित्रण है ? कोई कार्ययोजना चरित्र के माध्यम से क्यों नही आई ? ,कविता के बिम्ब या प्रतिबिम्ब नही होती एक कार्ययोजना भी होती है जिसका अभाव मुक्तिबोध मे साफ दिखाई देता है । यह ठीक है वह कथानायक भागदौड करता है मगर वह कार्ययोजना नही है वह लक्ष्य और विंसगति से मुठभेड होने प्रतिरोध का आवाहन तो दूर वह संकेतात्मक आलोचन भी नही करता वह केवल यथार्थ से भागता रहता है ” भागा मैं दम छोड / ,घूम गया कई मोड” ।भागदौड और कायरता के अधिष्ठाता नायकत्व को हम महज “मध्यमवर्गीय” कहकर बचा नही सकते हैं । क्योंकी वह मध्यमवर्गीय तभी होगा जब उसकी पहचान स्पष्ट होगी । यही कारण है मुक्तिबोध की कविताओं के चरित्र अजीबोगरीब , अयथार्थ और आत्मग्रस्त अहंमान्यता के शिकार होते हैं ।केदारनाथ अग्रवाल , मानबहादुर सिंह और भगवत रावत जैसी “पहचान” और “वर्ग” से आच्छादित चरित्र मुक्तिबोध मे दुर्लभ ही नही असम्भव भी है। उमाशंकर सिंह परमार

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