January 11, 2025

श्याम बेनेगल अद्वितीय हैं…

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लेखक : अशोक मिश्र
श्याम बेनेगल अद्वितीय हैं। खासकर हिंदी सिनेमा में उनके जैसा कोई और ढूंढ पाना मुश्किल है। असंभव है। उन्होंने जो काम किया है और जिस तरह का काम किया है, वह अनोखा है। उनकी फिल्में न सिर्फ भारत के लिए, बल्कि पूरे विश्व के लिए महत्वपूर्ण हैं। दुनिया में उनकी यही पहचान है, एक अलग और विशिष्ट निर्देशक के तौर पर।
उनके साथ मेरा जुड़ाव लगभग 35-40 सालों का है। मैंने पाया कि वे जितने सरल व्यक्ति हैं, उतना ही सरल उनका सिनेमा है। वह मुझे शुद्ध किस्म के इंसान लगते हैं, इसलिए उनका सिनेमा भी शुद्ध किस्म का है। चूंकि वह बहुत प्रगतिशील है, इसलिए उनका सिनेमा भी प्रगतिशील है। एक साथ सरल, शुद्ध और प्रगतिशील हो पाना बहुत मुश्किल काम है। किसी एक फिल्मकार में ऐसे तीनों गुण विरले ही मिलते हैं। इस कोशिश में कई फिल्मकार बहुत जटिल हो जाते हैं। अगर तुलना करें तो जैसे साहित्य में प्रेमचंद अत्यंत सीधे और सरल हैं, वैसे ही फिल्मों में श्याम बेनेगल अत्यंत सीधे और सरल हैं।
‘मनसा वाचा कर्मणा’ की उक्ति हमने सुनी है। श्याम बेनेगल पर यह उक्ति बिल्कुल सही बैठती हैं। उनके मन में जो होता है, वही उनकी बोली में होता है और वही उनके काम में भी दिखता है। अपने काम के प्रति उनका समर्पण बहुत ज्यादा है। यह उनकी फिल्मों में भी दिखता है। उनके कार्य और जीवन शैली में अनुशासन और समय की पाबंदी है। इसके असर से उनकी फिल्में सुनिश्चित समय पर पूरी हो जाती हैं। मेरा अपना अनुभव है कि उनके साथ काम करने पर समय बिल्कुल बर्बाद नहीं होता। उनके साथ लिखते हुए मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं कोई काम कर रहा। यूं कह सकते हैं कि वह दूसरों से अच्छी तरह काम लेते हैं। अपने लेखन और तकनीशिनों का वह भरपूर उपयोग करते हैं।
मेरे जैसे व्यक्ति को वे फिल्मों के लेखन में ले आए। मैं तो कहूंगा कि वह केवल ले ही नहीं आए, बल्कि उन्होंने मुझे स्थापित कर दिया। कितनी बड़ी बात है। उन्होंने कहीं यह जाहिर नहीं होने दिया कि वह मुझे प्रश्रय दे रहे हैं और स्थापित कर रहे हैं। यह उनका स्वभाव है। उन्होंने सिर्फ मेरे साथ ऐसा नहीं किया। उनके साथ काम करने वाले सभी लगभग यही बात कहेंगे। सबके अनुभव ऐसे ही होंगे।
सिनेमा को लेकर उनकी समझ बहुत अच्छी है। आप केवल उनकी फिल्मों की सूची देख लें। आप पाएंगे कि उनके काम में बड़ी वैरायटी है। उन्होंने अपनी फिल्मों में समाज के हर छोर को छुआ है। उनकी सभी फिल्मों की कहानी बिल्कुल अलग-अलग हैं। उन्होंने कभी खुद को नहीं दोहराया। आप उनकी फिल्मों से अनेक ट्रायोलोजी निकाल सकते हैं। उनका रेंज और कैनवस बहुत बड़ा है। पहली फिल्म ‘अंकुर’/ से लेकर अभी तक की आखिरी फिल्म ‘मुजीब’ तक में उनका सृजनात्मक विस्तार दिखता है।
श्याम बेनेगलन अपनी फिल्मों में मानवीय समस्याओं को बहुत अच्छी तरीके से प्रस्तुत करते हैं। उनकी सारी फिल्में मानवीय हैं। ह्यूमैनिस्ट अप्रोच रहता है उनका। ऐसा कह सकते हैं कि वे पूरे हिंदुस्तान को अच्छी तरीके से जानते हैं। देश का कोई भी ऐसा प्रांत नहीं है, जिसके बारे में उनकी जानकारी कम हो। वे महानगरों के साथ ही कस्बों और गांव-देहातों के बारे में भी पूरी जानकारी रखते हैं। वहां की बोली, भाषा और संगीत के बारे में जानते हैं। उनके महत्व को समझते हुए अपनी फिल्मों में वह उनका इस्तेमाल करते हैं। हिंदी में ऐसे निर्देशक अत्यंत कम हैं, जो हिंदुस्तान की आत्मा को समझ कर फिल्में बना रहे हों।
उनकी कार्यशैली संगठित और अनुशासित है। वह टीम वर्क में पूरा यकीन रखते हैं। यूनिट में वे हर किसी का पूरा सम्मान करते हैं। फिल्म के स्पॉट बॉय को भी लगता है कि यह उसकी फिल्म बन रही है। मैंने तो देखा है कि यूनिट के छोटे से छोटे बंदे को भी लगता है कि यह फिल्म उसकी है। वह हर किसी को अच्छी तरह शामिल करते हैं और उन्हें आजाद जिम्मेदारी देते हैं। वह पारखी निर्देशक हैं। किसी की प्रतिभा को पहचानना उन्हें आता है। हर प्रतिभावान की विशेषताओं को समझते हुए वे अपनी फिल्म के हित में उनका उपयोग करते हैं। उन्होंने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को अनेक प्रतिभाएं दी हैं। कलाकारों की तो पूरी फौज खड़ी कर दी उन्होंने। लेखकों को भी मौका दिया। बाकी टेक्निशियनों को भी उन्होंने अपनी फिल्मों में पहला मौका दिया। फिल्म इंडस्ट्री में मशहूर हो जाने या पहचान बना लेने के बाद तो सारे लोग काम देते हैं। श्याम बेनेगल इसलिए विशेष हैं कि वे प्रतिभाओं को पहला मौका देते हैं।
श्याम बेनेगल ज्ञान के सागर हैं। उनको बहुत सारी चीजों का बहुत अच्छा ज्ञान है। उनकी याददाश्त तेज है। 89 की इस उम्र में भी उन्हें सब चीजें याद हैं। आप उनसे किसी भी विषय पर बात कर सकते हैं और जान सकते हैं। वह आपको बता देंगे कि अफ्रीका का संगीत कैसा होता है? चेक गणराज्य का खाना कैसा है? किन देशों के डांस कैसे-कैसे हैं? भारत के सभी इलाकों के लोक संगीत और लोक नृत्य से वे परिचित है। आपको याद होगा उनकी एक फिल्म है ‘चरणदास चोर’। यह फिल्म उन्होंने छत्तीसगढ़ की भाषा में छत्तीसगढ़ के कलाकारों को लेकर बनाई थी। श्याम बाबू खुद हैदराबाद के पढ़े-लिखे हैं, लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ की प्रामाणिक फिल्म बनाई। लखनऊ की पृष्ठभूमि पर उनकी फिल्म है ‘जुनून”। उनकी फिल्मों की एक विशेषता है स्थानीयता। उन्हें लोक रीतियों और लोक त्योहारों के बारे में मालूम रहता है।
श्याम बेनेगल के साथ काम करने का मतलब है ज्ञान के गोते लगाना। गोता लगाने में वे लेखक की मदद करते हैं। उनकी फिल्म देखते समय मैं उनकी यूनिट का हिस्सा हो जाता हूं। उनकी खूबी है कि वह सभी को एकाकर कर लेते हैं। मेरा तो अनुभव है कि वे जैसा सोचते हैं, वैसा ही मैं भी सोचने लगता हूं। अपनी टीम के सभी सदस्यों के साथ उनका यही कार्य व्यवहार होता है। विचारों के आदान-प्रदान में वे यकीन रखते हैं। मैंने उनको सुझाव दिया कि ‘वेलडन अब्बा’ में क्यों ना हम डबल रोल की गुंजाइश रखें। वे तुरंत राजी हो गए। आमतौर पर कमर्शियल सिनेमा में डबल रोल का मसाला इस्तेमाल किया जाता है। फिर भी उन्होंने मुझसे कहा कि जरूर करो। वह बंद दिमाग से काम नहीं करते। अपनी सोच नहीं लादते।
कहानी फिल्मों की आत्मा होती है। श्याम बाबू की पकड़ रहती है कहानी पर। हिंदी फिल्मों में इन दिनों लोग कहानी भूलते जा रहे हैं। कमर्शियल सिनेमा में तो धेले भर की कहानी नहीं होती है। कहानी के अलावा वह बाकी तरीकों से दर्शकों को प्रभावित करना चाहते हैं।
मैंने उनके लिए तीन फिल्में लिखीं हैं। ‘समर’, ‘वेलडन अब्बा’ और ‘वेलकम टू सज्जनपुर’… ‘समर’ का एक प्रसंग बताऊं आपको। सच्ची घटना पर आधारित इस फिल्म को मेरे लिखने के बाद उन्होंने विमर्श किया कि फिल्म की शूटिंग कहां की जाए? मेरा सुझाव था कि इसे उसी गांव में किया जाए, जहां की यह घटना है। श्याम बाबू की राय थी कि ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि गांव के लोगों के जख्म अभी भरे नहीं होंगे। अगर हम वहां शूटिंग करेंगे तो उन जख्मों को कुरेदेंगे। उनकी राय मानते हुए हम लोगों ने रेकी की। अलग-अलग जगहों पर गए। यह नौतपा के दिन थे। 9 दिनों की उसे भयंकर गर्मी में हम घूम रहे थे। बुंदेलखंड के बंजर में घूमते हुए एक गांव में पानी की टंकी दिखी। मैं पानी की टंकी पर चढ़ गया कि दूर-दूर तक देख सकूं कहीं कोई गांव है या नहीं? एक गांव दिखा तो मैंने उन्हें बताया। यह सुनते ही वे पानी की टंकी पर चढ़ आए। उस उम्र में उनका यह जोश मुझे प्रभावित कर गया।
हमें शूटिंग के लिए कोई गांव नहीं मिला तो मैंने उनसे आग्रह किया कि एक बार चलकर उस गांव को देख लेते हैं। वे राजी हो गए। उक्त गांव में घूमने के बाद उन्होंने कहा, यह तो शूटिंग के लिए बहुत ही अच्छा है। फिर भी उन्हें आशंका थी तो उन्होंने पूछा कि यहां कोई दिक्कत तो नहीं होगी? गांव में दोनों ही पक्ष के लोग हैं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि कुछ नहीं होगा, मैं जिम्मेदारी लेता हूं। हम लोग ठाकुर के घर में शूटिंग कर रहे थे। उसका लड़का किसी काम से बाहर गया था। वह लौट कर आया। वहां सुरक्षा के लिए खड़े पुलिस वाले ने उसे लड़के को नहीं पहचाना तो अंदर नहीं आने दिया। इस बात से वह लड़का बिफर गया। उसे इस बात का गुस्सा आया कि मेरे ही घर में शूटिंग कर रहे हैं और मुझे नहीं आने दे रहे हैं। उसने शूटिंग बंद करवा दी। हम लोग लगभग एक हफ्ते शूटिंग कर चुके थे। श्याम बाबू घबरा गए कि अब क्या होगा? कहने लगे, मैं तो पहले ही डरा हुआ था। मैंने उस लड़के को समझाया-बुझाया। अपनी गलती मानी और आग्रह किया कि आगे की शूटिंग की अनुमति दे दे। फिर उसने कहा कि मेरे बाप इतने अच्छे थे, आप लोग उन्हें विलेन बना कर दिखा रहे हो। मैंने फिर से समझाया कि ऐसा नहीं है। हम तो यह बता रहे हैं कि तुम्हारे बाप को कैसे संघर्ष करना पड़ा?
बाद में मैंने श्याम बाबू से कहा कि यह सारी घटना जो हुई है, उसको मैं स्क्रिप्ट का हिस्सा बना देता हूं। खुश होकर उन्होंने कहा, बिल्कुल जोड़ो। हमारी फिल्म ‘फिल्म के अंदर फिल्म’ थी। मैं मानता हूं कि उनके लिए लिखी मेरी हर फिल्म में उनका बराबर का योगदान रहा है। अगर उनकी जगह कोई और निर्देशक होता तो शायद मैं इतना अच्छा नहीं लिख पाता। मेरा मानना है कि लेखक और निर्देशक का एकाकार होना यानी एक पेज पर होना बहुत जरूरी है। श्याम बाबू बहुत अच्छे उत्प्रेरक हैं। उनकी राजनीतिक सोच एकदम स्पष्ट है। उनकी हर फिल्म में राजनीति की अंतर्धारा रहती है। उनकी राजनीतिक समझदारी उनके सारे काम में दिखती है। फिल्म निर्देशक के राजनीतिक समझ का स्पष्ट होना बहुत जरूरी है। अन्यथा पूरी फिल्म कंफ्यूज हो जाती है। ऋत्विक घटक कहा करते थे कि अगर आपके पास दृष्टि नहीं है तो सिनेमा क्या, आप कोई भी कला सृजित नहीं कर सकते। फिल्मों में वैचारिकता तो होनी ही चाहिए।
अपनी फिल्मों में वे हमेशा विवादों से बचे रहते हैं। उन्होंने कभी कोई ऐसी फिल्म नहीं बनाई, जिसे लेकर विवाद हो।
उनके निर्देशन शैली की विशेषताएं कि वे सभी विभागों को पूरी आजादी देते हैं। उनका कहना है कि जिसका भी काम अच्छा होगा, उसकी तारीफ होगी। निर्देशक मैं हूं, लेकिन सभी विभागों की जिम्मेदारी उनके प्रधान की है। इससे फायदा यह होता है कि सभी लोग अपना अच्छा काम करने लगते हैं। अपनी यूनिट में सभी के साथ उनका बराबरी का व्यवहार होता है।
अंत में कहूंगा कि वह बहुत ही भरोसेमंद निर्देशक हैं। भविष्य में उनका सही मूल्यांकन हो पाएगा।
Ashok Mishra

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