व्यंग्य : चूके हुए तीरों भूलों को नमन
एक कवि की पंक्तियां हैं ,”नमन हैं उन्हें जो चले यात्रा पर लेकिन पहुंच कभी नहीं पाए/
प्रणाम है उन्हें जिन्हें कभी लक्ष्य नहीं मिला।”
गंभीर पंक्तियां हैं पर व्यंग्य यह है कि यात्रा पर चलने से पहले तैयारी नहीं की? टिकिट और यात्रा का अंदाजा नहीं था? कहां
गंतव्य है,कहां रुकना और कैसे पहुंचना है? यह तय किए बिना ही चलेगा जो वह कहीं भी नहीं पहुंचेगा।
फिर ऐसे नौसिखिया तीरंदाज जिन्हें धनुष भी नहीं साधना आता,वह तीर जब चलाएंगे तो कैसे लक्ष्य भेद होगा?
परंतु जिंदगी उन्हें ही विजेता घोषित कर देती है।
हमारे मित्र चारुमित्र को यह अनुभव इतनी बार हुआ कि उन्होंने तीर चलाना ही छोड़ दिया।क्योंकि जब जब तीर चलाए,कोशिश की हर बार नाकामी ही हाथ लगी,ऊपर से नुकसान अलग हुआ। भले आदमी ने तीर कमान रख दिया और शांति से भक्ति में लीन हो गए। जो है प्रभु करने वाले hain,वह भूखा तो नहीं ही मारेगे।
मैने बार बार कहा कोशिश करें तो जीत आपकी होगी। वह मुझे बेवकूफ,नासमझ प्रसाद का लड्डू मेरे हाथ में दिए और भगवान की जय हो का नारा लगा दिए। हमने भी तय किया कि इनका तीर निशाने पर एक बार तो जरूर लगवाएंगे,भले ही तीर पकड़ कर हमें ही तीर की तरह लक्ष्य में लगना पड़े। उनकी पीड़ा थी किसी को दिल का हाल सुनाएं,कुछ सुख दुख साझा करें और थोड़ा सा रोमांस ।यह थोड़ा सा रोमांस क्या होता है,हमें समझ नहीं आता। होता है या फिर नहीं होता है चाहे रोमांस हो या दुश्मनी? है तो है वरना नहीं। चारुमित्र के लिए हमने प्रारंभ किए प्रयत्न। उन्हें लघु पत्रिकाएं भेंट की जिसमें संपादक केवल सदस्यता,आजीवन लेने वालों की ही रचनाएं आंख कान बंद कर लगाते हैं। उन्हें पढ़ने की आदत लगाई। अच्छे खासी सरकारी नौकरी थी तो भेज दिए चंदा संपादकों को श्रद्धा अनुसार। फिर एक दिन खुश खुश हमारे पास आए,”यह कविताएं लिखी हैं तुम जरा देख लो।” हमें खुशी हुई और चिंता भी। खुशी इसलिए कि मित्र पर किया काम रंग ला रहा,चिंता इसलिए की बेसिर पैर की कविताएं अब अक्सर पढ़नी पढ़ेंगी। धन्य है वह चतुर, सुजान बहेलिए जो रात दिन सुंदरियों की एक जैसी,बेतुकी,अपनी रूटीन जिंदगी का सीमित वर्णन करती कविताएं (?) पढ़कर उनकी तारीफें भी करते हैं। हमने तो एक की दो कविताओं/गज़ल के बाद ही कह दिया था कि व्यस्त रहता हूं तो कविताएं न भेजें रोज। तब से वह मिस इंडिया से सुंदर युवती ऐसे नाराज हुई की आज तक बात नहीं की। यह जरूर बोली कि,” इन कविताओं की अमुक जी अमुक जी ने बहुत तारीफ की है और आप खराब बता रहे?” हमने अमुक अमुक जो ग़ज़ल और काव्य की दुनिया के बड़े नाम थे,को मन ही मन हैरान हुए कहना चाहा कि बुरी नहीं बेहद खराब कविताएं हैं।पर कह नहीं पाए क्योंकि सुंदरियों का दिल और दुखाने का मन नहीं था।उनकी बेहद खूबसूरत आंखों में यह गर्व दपदपा रहा था कि सौंदर्य और सुंदरी हिंदी साहित्य जगत के कई तथाकथित नामों पर भारी है। यह सभी बहेलिए फेसबुक,इंस्टा और एक्स पर अपना मजमा लगाए बैठे हैं। कुछ भी मिल जाए सिर आंखों पर।नो एज बार।
और जो पुरुष लेखक, साहित्यकार नाम लिखाने के इच्छुक है उन्हें गांठ का पूरा होना चाहिए। वह हैं तभी साहित्यकार ही नहीं वरिष्ट साहित्यकार कहलाए जा रहे। उस दिन एक कार्यक्रम में मंच पर मेरी बगल में सत्तर साल के व्यक्ति बैठे। वरिष्ट साहित्यकार कहके अध्यक्षता उन्होंने की।बोले बेतुका और कविता सुनाई मां पर ,क्योंकि मातृ दिवस पर गोष्ठी थी। आयोजकों का भोलापन की आयु देखते हुए वरिष्ट बना दिया। कुछ देर में मेरा वक्तव्य हुआ और कविता की बारीकी नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर,ज्ञानेंद्रपति,आलेख धनवा,निर्मला पुतुल,नीलेश रघुवंशी का जिक्र किया।शुक्र है हॉल में कुछ लोगों ने नाम नोट किए। अध्यक्ष जी बोले “यह सारे नाम तो मैंने सुने ही आज पहली बार।” मैने गहरी सांस ली और सोचा इन कवियों का सौभाग्य जो आपने नहीं सुना। यह चुके हुए तीर हैं।जिंदगी भर कमाई, नौकरी,घर,गाड़ी,बच्चों का ब्याह आदि करके मोटी पेंशन लेते हुए अब साहित्य में भी घुसा जाए किस्म के जानवर हैं। क्या है कविता? कुछ भी आठ दस शब्दों की पंक्तियों में लिख दो कविता हो गई। ऐसी ही तो लिखी जा रही,रोज देखता हूं फेसबुक पर। और लघु पत्रिकाओं के कुछ लालची संपादक इनसे हजारों रुपए का शुल्क लेकर इन्हें छाप भी रहे। क्या कीजे? यह हिंदी साहित्य जगत में लगी दीमक की तरह हैं जो खा रही है हिंदी को। मासूम सा बहाना देते हैं कि यदि हम इन्हें कमियां बताएंगे या बुरी कविता ,लघु कथा कहेंगे तो यह पढ़ना,लिखना छोड़ देंगे। रहें क्या नुकसान है? यह ऐसा कुतर्क है मानो बच्चा फेल हो रहा है हर वर्ष पर उसे डांटेंगे अथवा इलाज नहीं करेंगे कहीं हाथ से निकल न जाए। पर यह नहीं सोचते ऐसा व्यक्ति हिंदी जगत का क्या भला कर रहा? सिवाय आपकी लूट के? इतना भाईचारा है संपादकों में कि बड़े प्यार से बकरे को हलाल किया जाता है। पहले एक अधमरा करता फिर दूसरे के हवाले करता है। यह स्त्री पुरुष भी अपना नाम और फोटो छपा देखने का सुख पाने के लिए मनचाहा पैसा लुटाते हैं। अच्छी आसामी मिल गई डॉक्टर,उद्योगपति अथवा इनकी पत्नी जो हिंदी जगत में क्रांति लाएगी तो फिर लाखों में मामला चला जाता है। लोकार्पण पर ही लाख से अधिक व्यय।और सम्मानित अतिथि जो जाने माने नाम होते हैं वह आते हैं हवाई जहाज से मोटा लिफाफा लेते हैं और अगले दिन दिल्ली,मुंबई,बनारस जाने के बाद उस किताब उस व्यक्ति पर एक शब्द तक लिखते न बोलते। यही रिवाज चल रहा।
हम हमारे चूके तीर मित्र को इसी दुनिया में आहिस्ता से लाए इलाज के लिए। क्योंकि दोहरा फायदा है।कई स्त्रियां भी हैं जो लेखिका बनने का सपना संजो रही। उनमें से हर एक प्रतिदिन छह के हिसाब से काव्य,गीत, दोहा, गज़ल उत्पादन कर रही। यह देख कई नए शिकारी बने और उन्होंने ऑनलाइन साप्ताहिक,मासिक पत्र चार पन्नों के खोल लिए।उसमें एक पृष्ट पर दस की कविताओं को चमकते,लीपापोती किए चेहरों के सहित छाप रहे।
मित्रवर इतने अक्लमंद तो थे जब इक्यावन सौ रुपए आजीवन सदस्यता लेकर अपनी कविताओं की बगल में खूबसूरत फोटो की देशप्रेम से ओतप्रोत कविता फोन नंबर सहित देखी तो क्या करना है समझ गए।
छ माह बीत गए मैं भी अपने गवाएं अवसरों पर सोचता ,प्लान करता और शाम होते होते थककर, खाना खा,टीवी और फिर यूट्यूब देखता सो जाता।मुझ में कई कमियां।
पहली यह की रस रंजन सूट नहीं करता।कड़वा ही कड़वा।एक दो बार बैठने का अवसर मिला पद्मश्रियों के साथ तो मैं दूध या कोल्ड ड्रिंक पर रहा।मुझे देखकर जरूर उनका भी ड्रिंक खराब हुआ होगा।दूसरे जो निर्ममता चाहिए वह अपने में नहीं।तीसरे दरबारी नहीं बने। चौथे यह भरोसा,बचपन से ही दादी,मम्मी,ताई जी ने सिखाया कि मेहनत और ईमानदारी कभी बेकार नहीं जाती। भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। घूरे के भी दिन चौदह साल में फिरते हैं। दो दशक से अधिक बीत गए कोई फल नहीं मिला।दिन नहीं फिरे। लगता है भगवान चला गया है किसी और की किस्मत चमकाने की इसका तो कुछ हो नहीं सकता।
फिर हम भी खास किस्म के मन में रखते की यह कार्य करेंगे,उस राह पर चलते भी,फल का समय आता तो पीछे वाले दौड़कर आगे और अपन खाली हाथ। पर रहे हमेशा आशावादी की एक दिन सुनवाई जरूर होगी। हुई नहीं तो फिर नए तीर लाए,लाइन बदलने की भी सोची परंतु दूसरी लाइन क्या पकड़े? इसी में दस साल निकल गए।कुछ नया स्किल जैसे धोखा, फरेब देना,घाघ होते हुए भी चेहरा एकदम मासूम कर लेना,उगते सूर्य,मठाधीश के साए में चमचा बन पड़े रहना,कभी नहीं आया। तो बस पड़े है राहों में की एक दिन आएगा जरूर जब मूर्खों और ईमानदारों की भी कद्र होगी। उस दिन ईश्वर आएगा और मेरे अच्छे कर्मों का फल देगा। मेरी अथक मेहनत बेकार नहीं जाएगी और प्रभु मेरे सिर पर सफलता की टोकरी रख देगा। पर लगता नहीं है ऐसा कुछ होगा।क्योंकि हमारे सामने से अभी अभी सेवानिवृत्त हुए दो लोग गए है ,भारी टोकरी को अपने चमचों से उठवाए। साठ वर्ष तक एक किताब नहीं पढ़े अकाउंटेंट साहब और एक प्रमोटी आईएएस दोनों को अकादमी ने लखटकिया सम्मान दे दिया है। हमने भी पच्चीस वर्षों की साहित्य साधना के बाद आवेदन किया था तो वह अस्वीकृत हो गया।एक को कहा तो सदाबहार उत्तर,” कुछ कमी रही होगी और मेहनत करें।अगली बार।”। या फिर यह वाक्य भी,” इस बार बहुत टफ मुकाबला था।आप एक नंबर से रह गए। ” पूछना चाहता हूं कि वो जो अभी अभी दो वर्ष कर्व ही सक्रिय हुए उन्हें आपने किस आधार पर चुना? पर श …श …श… साहित्य हो या किसी भी विधा में समर्थ से यह पूछना आपके आगे के अवसर बंद कर सकता है। चूके हुए तीरों
, निराश न हो।एक दिन ऐसा आएगा जब यह बिना दीवारों वाले घर पर छत लगाने को तैयार लोग जागेंगे और किसी दूसरे खुले मैदान की तरफ बढ़ जाएंगे। तब तक चरेवेति चरेवेति ही करते रहो। या थाली के बैंगन बन जाओ जैसे बहुत से स्त्री पुरुष वो पाला,वो मार्ग छोड़कर इस तरफ घी दूध,मक्खन की नदियां बहती देख आ रहे हैं।
( डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक,कथाकार,व्यंग्यकार और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।
आपको देश विदेश से कई पुरस्कार प्राप्त हैं।
संपर्क :_ अजमेर ,राजस्थान 7737407061,
8279272900)