November 21, 2024

सृजन वैष्णव की दो कविताएं

0

कच्ची मिट्टी की छितराई हुई
दिवार जहाँ एक दीमक लगी
खिड़की भी थी……

वहीं कहीं आस पास एक शाम ढली!!!!!

अमराई की परछायों सी
काली नुकीली शाखाएँ
हम दोनों की असीम
गहराइयों को छू कर गुज़र रही थीं……

जलमग्न तराई में जैसे किसी चित्रकार
ने उकेरा था हमारी कविताओं का स्वरुप
हवाओं की आहट मचल जाती थी
हमारे ह्रदय में….

ठीक उसी तरह हम प्रेम में डूबे कभी हँसते कभी रो देते थे
प्रेम कितना मासूम शिशु की तरह होता है हमें बड़ा होने नहीं देता….

तुमने दिखया था नीम पीपल के आपस में जुड़े पेड़ को
एक पल के लिए खो गई थी मैं…..

जैसे नीम हो गई थी और तुम पीपल
हाँ सच ही तो है मैं नीम सी कड़वी ही तो हुँ…..

और तुम पीपल से शाँत शीतल मुझे अपनी बाँहों में लेकर मुझमें मिठास भर देते हो….

क्यों बार बार चूम लेते हो मेरे उजाड़ मस्तक को अपनी ह्रदय की रेखाएं मुझसे जोड़ देते हो….

हे मेरे ईश्वर क्या तुम उस ढलती हुई शाम को
रोक सकते हो…..

मुझे उस कच्ची मिट्टी की दिवार को पूरा करना है…..
उस खिड़की से दीमक हटा कर उसे आज़ाद करना है …..
जहाँ साथ बैठकर आने वाली हर शाम को हम रोक सके….

जो वहीं कहीं आस पास ढल रही है…..
सृजन
———————————————————————————————————————–
जीवन नहीं देखता
रंग-रूप,जात-पात
धरती के हृदय से
कई फूल खिलते हैं!!

कुछ मुरझाए फूलों को भी
धरती दाना-पानी देती है
हवा नहीं रुकती किसी पे
आक्रोशित होकर
वर्षा होती ही है
लड़ के मर रहे लोगों के
पापों को धोने
सुबह होती है अपनी
चहचहाट साथ लाती है
घने फलदार वृक्ष
ढोते है बोझ
अपनी जड़ों से उठकर
पेट भरते ही हैं
अपने चोटिल आहों से
नहीं गाते कोई रुदन गीत

ईश्वर के झोले में सबकुछ
है
समय के साथ बदलती ऋतुओं
को भी तृप्त करती उसकी सहस्त्र
भुजाएं
इंसानों की अवा-जाही को चार नहीं
हज़ार कांधे देते हैं

पर ईश्वर के गर्भ में तीसरा
नेत्र भी है
रोते बच्चों के मांथे पे
शिकन
बूढ़े शरीर के पैरों के छाले
धरती के ताप को बढ़ा देते है
मृत्यु नहीं देखती प्रायश्चित

जीवन मुखाग्नि देता है
तब मृत्यु होती है
सृजन

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *