विमर्श में तुलसी बनाम जायसी
विमर्श में तुलसी बनाम जायसी
बेचारे तुलसीदास ब्राह्मण न होते तो शायद इतने आग्रहपूर्वक ग़लत न ठहराये जाते। वही बात कोई और कहता है, मसलन कबीर या जायसी, तो एक बेहद मुखर क़िस्म का मौन दिखायी देता है। लेकिन तुलसीदास के महाकाव्य का कोई चरित्र किसी परिस्थिति में कह देता है तो विद्वान लोग तुलसी को कोसने लगते हैं।
जिसने ‘रामचरितमानस’ पढ़ी है, केवल दूसरों के मुँह से चर्चा नहीं सुनी है, वह जानता है कि सुंदरकांड में समुद्र राम से कहता है—
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
हम पूरा प्रसंग न भी लें, केवल इतना देखें कि यह कथन समुद्र का है तो एक चरित्र की उक्ति को आधार बनाकर कवि पर हमला करना रणनीति हो सकती है, तर्क नहीं। समुद्र खल पात्र है, यह अलग से कहने की ज़रूरत है क्या? तुलसीदास जिसे गाली देते हैं उसे शठ या जड़ कहते हैं। समुद्र को उन्होंने जड़ ही कहा है—
विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, बिनु भय होहि न प्रीति॥
तो इस जड़ पात्र ने एक जड़तापूर्ण विचार रखा, लेकिन ग़ैर-जड़ विचारक उसके लिए तुलसीदास को दंड देने का अभियान चलाते हैं।
यह कथन कुछ व्यापकता लिए हुए है। केवल स्त्री के बारे में और कवियों की उक्तियाँ भी सर्वविदित हैं। कबीर ने तो किसी चरित्र द्वारा नहीं, स्वयं प्रतिपादित किया है कि—
नारी की झाँईं परत अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिनकी कौन गति जो नित नारी के संग॥
अवश्य यह उक्ति नारियों की प्रशंसा में नहीं है। पर कबीर के बारे में कहकर देखिए! तुलसी-निंदक अगर आपको किसी गाली से बख्श दें तो!!
तुलसी के अवधी पुरखे हैं जायसी। उनका नायक रत्नसेन जब पद्मावती के लिए चित्तौड़गढ़ से सिंहल गढ़ के लिए चलने लगा तो उसकी पत्नी नागनती ने साथ चलने को कहा। रत्नसेन ने उसे डाँटा—
तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी।
मूरख सो जो मतै घरनारी ॥
मतलब साफ़ है। फिर भी, भ्रम की गुंजाइश न रहे इसलिए कह देता हूँ: तुम औरत हो, तुम्हारी बुद्धि तुच्छ है। वह पुरुष भी मूर्ख होता है जो पत्नी (या औरतों) की सलाह पर चलता है।
बेशक, यह जायसी का नहीं, उनके एक पात्र का कथन। लेकिन यह पात्र कोई और नहीं, काव्य का नायक है।
विद्वानों की पहचान यह है कि समुद्र के कथन को तुलसी पर मढ़ कर उन्हें गाली देने वाले रत्नसेन के कथन पर जायसी को दोषी नही ठहराते।
जायसी को दोषी न मानना बिलकुल सही है। लेकिन उसी तर्क से तुलसी को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मुझे आपत्ति उस कुतर्क पर है जो इस दोरंगी नीति के पीछे है। वह है जातिवादी नज़रिया। कबीर या जायसी ब्राह्मण कुल में नहीं जन्मे, इसलिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाता।
चूँकि लंबे सामंती काल में ब्राह्मण पुरोहितों ने सामंत वर्ग के हितों की रक्षा के लिए श्रमजीवियों पर जातिगत आधार पर बहुत अत्याचार किये इसलिए अब उस सबका बदला लिया जाएगा।
यह वैसा ही प्रतिशोध है जैसा सात-आठ सौ साल के “मुसलमानी” शासन के अत्याचारों का बदला आज लेने की राजनीति है। खून इन हिंदुत्ववादियों का भी खौल रहा है और इन विमर्शवादियों का भी।
मैं फिर कहता हूँ कि यह आलोचना जातिगत आधार पर नहीं, वैचारिक आधार पर करता हूँ—यह विमर्शवादी कुतर्क की आलोचना है। ऐसे विमर्शवादी यह बताएँ कि कम-से-कम नारियों के प्रश्न पर तुलसी की उक्ति कैसे अधिक रूढ़िवादी है और कबीर या जायसी की उक्तियाँ कम रूढ़िवादी हैं?
यदि हम मध्ययुग या प्रारंभिक आधुनिकता की ऐतिहासिक परिस्थितियों और उलझनों को ध्यान में नहीं रखेंगे तो इसी प्रकार असंगतियों के शिकार होंगे और अहं से असंगतियों को ढँकने का प्रयास करेंगे।
विद्वत्ता के क्षेत्र में यह अहं कहीं नहीं पहुँचाता, सिवा चाटुकारों की मंडली के। और ऐतिहासिकता की दृष्टि से यह अहं अंततः सामंती, पूँजीवादी और साम्राज्यवादी हितों की सेवा में समर्पण कराता है। इसके उदाहरण कुछ दलितवादी और पिछड़ावादी ‘विचारक’ सबके संज्ञान में हैं।
डॉ अजय तिवारी