सुप्रिया शर्मा की तीन कविताएं
दुविधा
विधा है दुविधा की,
हम ख़फा है दुविधा से।
मन न हो परेशान दुविधा से।
ये तो विधा है दुविधा की।
इसको भी जाना है कहीं ओर।
ये भी कहाँ टिकती।
विधा की विधा है,
दुविधा की भी व्यथा है।
न आरजू इसे टिके रहने की।
न ही वक्त का ठहराव है।
आरजू में भी आस है,
हर दुविधा का नाश है।
व्यर्थ ही न हो मायूस,
हर मायूसियत का भी नाश है।
ये तो विधा है दुविधा की,
हर दुविधा का नाश है।
विधा की विधा है,
खुश रहना ही नींव है संसार की।
सुप्रिया शर्मा
—
सब हिसाब बेहिसाब हुए,
जिंदगी के गुणा,बाकी में।
क्या घटाया,क्या बढा़या,
सब हिसाब बेहिसाब हुए।
समय चक्र ने ली अँगडा़ई,
बुजुर्गों की सीख ही काम आई।
कोरोना इस काल में।
सब हिसाब बेहिसाब हुए।
स्वाबलंबी बन,आत्मनिर्भर बन,
प्रकृति का तू ख़्याल रख।
प्रकृति ही है अन्नदायनी,श्वाँसवाहिनी,
जगत् जन् नी।
सब हिसाब बेहिसाब हुए।
मितव्ययी,स्वल्पहारी,
संतोष परमधर्मः।
सब हिसाब बेहिसाब हुए,
कोरोना इस काल में।
सुप्रिया शर्मा
—
पृथ्वी,अम्बर,पेड़-पौधे,
ये सब हैं जीवन की रौनक।
व्यस्त हुए हम सुख-सुविधा में,
भूल गए अपनी… जिम्मेदारी।
एसी,फ्रिज़,वाहन,
खूब दौड़ते हैं सरपट।
सीफसी के उत्सर्जन ने,
किया छेद ओजोन लेयर में।
पृथ्वी का पारिस्थिक बदला,
खूब किया दोहन हमने, अपनी माता पृथ्वी का।
इसके पेडो़ को काटा,कारखानों की नींव रखी।
जल नदियों को दूषित किया,पोलीथीन का उपहार दिया।
त्राहि-त्राहि भू-मंडल हुआ।
पृथ्वी-वासी जागो।
थोडा़ संयमित करो स्वयं को।
पेडो़ को संरक्षण दो।
यहाँ वहाँ मत फेंकों प्लास्टिक-कचरा,
अपना फर्ज तुम भी निभालो।
कोरोना ने भी त्रस्त किया है,
अजैविक कचरे को और बढा़या।
मास्क,पीपीई किट के डिस्पोजल का संकट,
द्वार खडा़ पृथ्वी माता के।
आओ सब मिल एक हो जाए,
अपने पर्यावरण को हम बचाए।
सुप्रिया शर्मा