मैं नाटककार कैसे बना?
सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’
यह लेख क्यों
यदि मैं हँस राज पी जी कालेज में २३ अक्टूबर 2018 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी मंं आमंत्रित न होता और भाग लेने नहीं आता तो शायद यह लेख आपको पढ़ने को नहीं मिलता। इसके लिए मैं प्रधानाचार्या डा रमा और डा हरीश अरोड़ा का हार्दिक रूप से आभारी हूँ। हँसराज कालेज में मैं दूसरी बार अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी में आया था। इस कार्यक्रम
में गगनान्चल पत्रिका के सम्पादक और मेरे लेखक मित्र हरीश नवल उपस्थित थे।
प्रवासी साहित्य पर छपी अनेक पुस्तकों का अवलोकन साहित्य पुस्तक स्टाल पर किया और बहुत से शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत शोध पत्रों को ध्यान से सुना। प्रवासी साहित्य और वैश्विक सन्दर्भ में हिंदी पर अनेकानेक दृष्टियां सामने आयीं पर नाटकों पर बहुत कम साहित्य छपा है। अपनी आदत के अनुसार समय से पहले आकर हाल में बैठ गया था और अंत तक उपस्थित रहकर गोष्ठी का पूरा लाभ उठाया।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में इसी वर्ष डॉ. लहरी राम मीणा के साथ दो बार गया और वहां स्टाल पर किताबों का अवलोकन किया और अध्यापकों, कलाकारों और संगीत नाटक अकादमी भी जाकर विचार विमर्श किया जिसने मेरे अंदर नाटककार मजबूत हुआ।
31 जुलाई को ओस्लो में प्रेमचंद जयन्ती पर यहाँ के पूर्व टाउन मेयर, राजनैतिज्ञ और लेखक थूरस्ताइन विंगेर ने और भारतीय दूतावास में सचिव प्रमोद कुमार ने आशा व्यक्त की कि वह मेरा नाटक ओस्लो में देखने की ईच्छा रखते हैं।
नाटकों का असर
जहाँ तक मुझे स्मरण है मैं कक्षा आठ में पढ़ता था। मेरे पड़ोस में श्री राम कृपाल कुशवाहा जी ऱहते थे. वह देवरिया जिले के हैं और वह एवरेडी कम्पनी, लखनऊ में कार्यरत थे। एवरेडी कम्पनी की तरफ़ से वार्षिक कार्यक्रम में नाटक का मंचन रवीन्द्रालय में होता था। वह मुझे दो बार नाटक दिखाने ले गये। उन नाटकों के शानदार मचंन का मुझपर बहुत असर पड़ा।
मैं पुरानी श्रमिक बस्ती, ऐशबाग, लखनऊ में रहता था। गर्मियों के दिनों में एक नाटक मन्डली आती थी और वह दो सप्ताह तक विभिन्न नाट्य प्रस्तुतियाँ करती थी। जिसमें राजा हरीशचन्द्र, श्रवण कुमार, कृष्ण जन्म, सीता स्वयंबर, चन्द्र शेखर आजाद आदि मुझे आज भी स्मरण है।
चंद्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ के अवधी में प्रहसन /रेडियो नाटक ‘बहिरे बाबा’ विविध भारती कार्यक्रम में नियमित सुनता था रमई काका से कई बार अपनी पहली काव्य पुस्तक ‘वेदना’ के सम्बन्ध में मिला था। आज भी जब भारत में होता हूँ तो लगभग नौ बजे रात्रि विविध भारती में हवामहल में नाटक सुनता हूँ।
पहला नाटक लिखा जागते रहो
मैं 26 जनवरी 1980 को नार्वे पहुँचा तब से वहां रहकर साहित्य सृजन कर रहा हूँ। पर उसके पहले हम लखनऊ के पुरानी श्रमिक बस्ती ऐशबाग में रहते थे। कालोनी में बनी संस्था युवक सेवा संगठन नामक संस्था द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक बार अपराधी कौन नामक एकांकी का निर्देशन किया था और एक नाटक लिखा जागते रहो। विद्यार्थी जीवन में लिखे जाने के कारण कोई विशेष महत्त्व नहीं मिला।
अर्थाभाव के कारण लेखक रेलवे में श्रमिक और स्किल्ड श्रमिक के रूप में रेलवे में (सवारी और माल डिब्बा कारखाने आलमबाग लखनऊ) नौकरी करते हुए शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इसका कारण था कि जब मैं (सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’) स्कूल में फेल /अनुत्रींण हुआ तो मेरे पिता चिंतित हुए और पिता ने मेरी नौकरी लगवा दी थी जो स्वयं भी रेलवे में कार्यरत थे। नौकरी और शिक्षा से जो भी समय मिलता उसमें मैं साहित्य पढ़ता और लिखता। त्योहारों पर अपनी बस्ती में मित्रों की मदद से कार्यक्रम कराते और स्वयं भी भाग लेते।
इस समय तक मैंने नाटक लिखा ‘जागते रहो’ पर वह इसे छपवा नहीं सके। पर उस समय कविता से अधिक प्रेम करने और नाटक का महत्त्व कम समझने के कारण मेरा पहला काव्य संग्रह ‘वेदना’ 1976 में छपा मैं तब डी ए वी कालेज में छात्र था।
आलोचकों और इतिहासकारों की दृष्टि कम
विदेशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार बढ़ रहा है और उसे पाठकों द्वारा पसंद भी किया जा रहा है।
जहाँ तक प्रवासी साहित्यकारों के नाटकों की बात है उस पर बहुत कम प्रकाश डाला गया है।
हिन्दी के आलोचक और इतिहासकार पर बहुत बोझ है इसलिए वे स्वयं कम और खोज करते हैं।
अखबारों में पढ़कर भी उसे अनदेखा कर दें तो कोई नयी बात नहीं है।
पर जब कभी कोई साहित्यकार प्रवासी साहित्य (कहानी, कविता या नाटक) पर टिप्पणी लिखता है तो उस साहित्य को प्रकाश में आने में देर नहीं लगती। एक बार कमल किशोर गोयनका जी ने इतना जरूर लिखा था कि नार्वे में प्रवासी साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल ने दो नाटक लिखे हैं इसे भी लिखे सम्भवता एक दशक बीत गया।
सन 1985 और 1986 में मैंने साप्ताहिक हिन्दुस्तान और कादम्बिनी में राजेंद्र अवस्थी जी के नेतृत्व में तीन महीने हिंदी पत्रकारिता के गुर सीखे थे। तब राजेंद्र अवस्थी जी की कथा पर आधारित फिल्म दिल्ली दूरदर्शन बना रहा था आठवाँ चाचा जिसका निर्देशन किया था। शिवशंकर अवस्थी जी ने जो डी ए वे पी जी कालेज में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं राजेन्द्र अवस्थी जी ने जब जाना कि सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’ एक नाटक लिख चुके हैं और फिल्म में बहुत रूचि लेते हैं तो उस फिल्म में अभिनय के लिए एक रोल भी दिलाया और फिल्म प्रबंधन में भी साथ लिया। इस फिल्म में हाल ही में खालसा पी जी कालेज दिल्ली में अवकाश प्राप्त करने वाले प्रोफ़ेसर हरनेक सिंह गिल ने भी शानदार अभिनय किया था।
नाटककारों और फिल्मकारों से प्रभावित:
मैं नार्वे की लघु फिल्मों और नार्वे के नाटकों को बहुत पसंद करता हूँ। हेनरिक इब्सेन मेरे आदर्श हैं और रवींद्र नाथ टैगोर मेरे भारतीय संस्कृति पर आधारित नाटकों के आदर्श हैं। फिल्मों में सत्यजीत रे और लीव उलमान से बहुत प्रभावित हूँ।
लखनऊ में नाटककार विलायत जाफरी से भी प्रभावित रहा हूँ जो पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली और बाद में लखनऊ दूरदर्शन पर निदेशक रहे और अनेकों बड़े नाटकों का मंचन किया आजकल अस्वस्थ हैं। आनंद शर्मा जी के बारे में लिख चुका हूँ।
प्रोफ़ेसर स्व. कृष्ण कुमार कक्कड़ बी एस एन वी डिग्री कालेज में मेरे गुरु थे जो मुझे खुद गुरु कहकर अक्सर सम्बोधित करते थे. वह भी हमेशा साँस्कृतिक नाटकों में हमारी भागेदारी को पसन्द करते थे।
आज भारत और गरीब देशों में शरणार्थियों, मध्यपूर्व एशिया में धार्मिक युद्ध की तरह आपसी टकराव, अफ्रीका के अनेक देशों में भुखमरी, भारत में साक्षरता को उपेक्षित किये जाने से और भारत में मॉब लिंचिंग, दलित एवं आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार और भेदभाव से बहुत द्रवित हूँ। आगामी लेखन इन विषयों पर भी होगा।
हाल ही एक कहानी कश्मीर पर 370 पर विदेशों में प्रतिक्रया पर आधारित ‘प्रतिबिम्ब’ कहानी लिखी है जो प्रकाशाधीन है।.
नार्वे में लिखे नाटकों का लखनऊ में मंचन
मेरे तीन नाटकों और एक रूपांतरित/अनुवादित नाटक का मंचन लखनऊ में हो चुका है।
गुड़िया का घर लेखक: हेनरिक इबसेन। हिन्दी में रूपांतरित/अनुवादित: सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’ जो 2008 में प्रकाशित हो गया था और अनेकों बार आनन्द शर्मा जी के निर्देशन में मंचित किया गया।
मेरे नाटक के प्रेरणाश्रोत हेनरिक इब्सेन, रवींद्र नाथ टैगोर और आनन्द शर्मा
मेरेे नाटकों में आदर्श थे ऱवीन्द्र नाथ टैगोर. जब मैंने नार्वे पहुँच कर हेनरिक इबसेन के नाटक देखे और पढ़ेे तब बहुत प्रभावित हुआ और मेरे मन में नाटककार बनने की ललक जगी. इसके बाद मैने इबसेन के नाटकों का अनुवाद शुरू किया. सन 2008 और 2009 में मेरे अनुदित /रूपान्तरित नाटक गुड़िया का घर और मुर्गाबी छपा.
मेरे नाटकों के प्रेरणाश्रोत लखनऊ के फ़िल्माचार्य आनन्द शर्मा जी हैं जिन्होंने न केवल नाटकों का मन्चन कराया बल्कि उन नाटकों में अभिनय और निर्देशन भी किया.
फ़िर हमने नार्वे से प्रकाशित पत्रिका स्पाइल-दर्पण की तरफ़ से लखनऊ के फ़िल्म और रंगमन्च के युवा कलाकारो को सम्मानित करना शुरू किया जिसमें आनन्द शर्मा जी सहयोग करते हैं.
लखनऊ महोत्सव और अन्य नाटक महोत्सवों में मेरे नाटक लखनऊ और देवा मेला में दिखाए गये.
इसके लिए बहुत बहुत आभार और धन्यवाद फिल्माचार्य और नाट्यचार्य आनंद शर्मा जी का जिन्होंने मेरे नाटकों का निर्देशन किया जैसा कि पहले लिख चुका हूँ.
यह जानना बहुत जरूरी है कि लखनऊ में संयुक्त रूप से नाटक और लघु फिल्म में अभिनय और निर्माण सिखाने वाले आनन्द शर्मा जी एक मात्र आचार्य/शिक्षक हैं.
नाटकों के क्षेत्र में बहुत नाम जुड़े हैं पर यहाँ जिक्र केवल अपने नाटकों के सम्बन्ध में कर रहा हूँ।
लखनऊ में मंचित होने वाले नाटक निम्नलिखित हैं:
1 अन्तर्मन के रास्ते
यह नाटक नार्वे की पृष्टभूमि पर लिखा नाटक है। एक प्रवासी युवक अपनी पत्नी और छोटे बेटे के साथ नार्वे में रह रहा है। नार्वे की चमक-दमक देख कर बहुत प्रभावित होता है. वह अपने कर्तव्यों की तरफ से विमुख होता जाता है। उसे ज्ञात है कि नार्वे दुनिया में अच्छी जगह है रहने के लिए. यहाँ सभी का ध्यान रखा जाता है. युवक शराबी हो जाता है। एक दिन उसके दिमाग में आता है कि क्यों न मैं अपनी पत्नी को घर से बाहर करूँ और ऐश आराम से रहूँ। वह शराब के नशे में अपनी पत्नी को घर से निकाल देता। वहां से शुरुआत होती है नाटक की। उसके बाद का सफर उसकी पत्नी और पांच वर्षीय बेटे को नार्वेजीय समाज में संघर्ष और नाटकीय स्थितियों का वर्णन है।
2 अन्ततः
आजकल भारत में बहुत प्रचलित है बच्चों को विदेश भेज कर शिक्षा देना और अपनी संस्कृति की शिक्षा या संस्कार के अभावों में क्या हाल होता है इस नाटक के कथानक में बड़े नाटकीय अंदाज में मिलता है।
यह एक पिता और उसके पुत्र की कहानी है। पुत्र पिता से आर्थिक सहायता लेकर विदेश पढ़ने जाता है. विदेश में पुत्र पिता के पैसों पर आनंद ले रहा है और पिता भारत में उसका इन्तजार बेसब्री से इन्तजार कर रहा है। पुत्र मोह किसी नहीं होता। समसामयिक नाटकों में इसका स्थान है. कई लोगों को अपनी कहानी लगती है।
3 डेथ ट्रैप (मौत का पंजा).
यह नाटक आजकल बच्चों द्वारा खेले जा रहे फोन और आई पैड पर तरह तरह के खेलों की आदत बढ़ती जा रही है। इससे बच्चों के पास खलने कूदने के लिए समय काम हो गया है। माता-पिता और हमउम्र बच्चों के साथ मैदान में खेलना काम होने लगा है. यदि अविभावकों ने ध्यान न दिया तो स्थिति बहुत बिगड़ सकती है।
जब बच्चों के इंटरनेट पर खेल खलने के कारण कभी-कभी वह ऐसे खेल खेलने लगते हैं कि जिनकी आदत पड़ने पर जान लेवा भी हो सकते हैं। इसी तरह के एक खेल ब्लू ह्वेल पर प्रकाश डाला गया है जिसमें बच्चा आत्महत्या के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
4 वापसी
एक प्रवासी युवक की कहानी है. कैसे वह युवक विदेश जाता है और विदेश से स्वदेश लौटकर किन स्थियों का सामना करता है. उसका किन स्थितियों से सामना होता है और कैसी-कैसी नाटकीय स्थितियों से सामना होता इस नाटक में दर्शाया गया है। नाटक वापसी का पहला मन्चन 15 दिसम्बर 2018 को शाम 6:30 बजे राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह, लखनऊ में होगा।
आधी रात का सूरज (नाटक)
इस नाटक का मंचन लखनऊ में 7 अगस्त को राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में हुआ था।
नाटक की कहानी पिता पुत्र और सामजिक विसंगतियों की कहानी है जहाँ नार्वे और भारतीय संस्कृति और वहां के वातावरण में किस प्रकार जीवन पद्यति है। यह समाज की विसंगतियों पर तंज करता है।
विदेशों में ईमानदारी से कैसे सभी लोग पूरी समाज के लिए बिना जातपात, बिना भेदभाव एक दूसरे के लिए जीते हैं और समाज को सबके लिए ऐसा बनाते हैं कि व्यक्ति उसका होकर रह जाता है।
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