अशोक कुमार की दो कविताएं
(1)
घास
मैं वहां खड़ा हूँ-
जहां रास्ता खत्म होता है
और सड़क शुरू.
हम सड़कों को-
रास्ता नहीं कहते
रास्ते हमें घर ले जाते हैं
और सड़कें शहर.
गांव का हरिया-
सड़क पर घास उगाना चाहता है
हरी-हरी घास
उसकी भेड़ों के हिस्से की
वो नरम घास
जिसे इंसानों ने चरा है.
(2)
उदासी
कई दिनों से वीरान पड़ा है
मेरे सामने वाला स्कूल
मैं पढ़ सकता हूं
उसकी निशब्द उदासी
आज बारिश हुई
तो उसका मैदान भीग गया
उसकी दीवारें नम हुई
और पेडों ने अपने पत्तों पर
कुछ बूंदे सहेज लीं
हवाओं ने
दरवाज़ों पर दस्तक दी
और खिड़कियों को
धीरे से खोल दिया
गेट की किनारी पर
तार के कांटो से लटकी बूंदे
मानो बूंदों का हार बनकर
बच्चों के स्वागत के लिए
तैयार खड़ी हों..!!!
मैं इस दृश्य में
प्रवेश करना चाहता हूं
जिसमें अभी-अभी
कोई प्रार्थना गाई गयी है..!!
जन-गण-मन के स्वर से
गूंज उठी है चारदीवारी
अभी-अभी कोई मासूम
अपनी उंगलियों के पोरों से
गाड़ियों के कांच पर अपना नाम लिख रहा है
अभी एक बॉल ने आकर
तोड़ दिया है मेरी खिड़की का कांच
कांच टूटने की आवाज़ से
मैं सहम जाता हूं
मैं देख रहा हूं
बारिश थम चुकी है
बूदों की लड़िया थककर
ज़मीन पर गिर पड़ी हैं
दरवाज़े बैंड हैं
खिड़कियां खामोश हैं
और स्कूल को फिर-
किसी डरावने सन्नाटे ने
अपने आगोश में जकड़ लिया है।
(लोकडाऊन के दौरान)
(3)
मुस्कुराहट
कुछ चेहरों को
अब मैं नहीं पहचानता
और कुछ चेहरे
अब दिखते ही नहीं
कुछ चेहरे आज भी
मुझे देखकर मुस्कुरा देते हैं..।
मैं उनकी मुस्कान को
आँखों में कैद कर लेना चाहता हूं
कितना अच्छा लगता है न..!
कि कोई बड़े दिनों बाद मिले
और मुस्कुरा दे…!!
भवदीय
अशोक कुमार
पता: जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश
(वर्तमान में रोहिणी सेक्टर-21 दिल्ली)
दिल्ली के सरकारी स्कूल में अध्यापक
मोबाइल:9015538006