भारती शर्मा की दो कविताएं
शब्द और अर्थ
ऐसा होता है अक्सर मेरे साथ
कभी शब्द खो जाते हैं
तो कभी अर्थ ही गुम जाते हैं..
भूलभुलैया में दोनों रह जाते हैं।
तलाश करने लगती हूँ पुनः
शब्द.. जो मेरी भावनाओं को
सम्प्रेषित कर सकें दूसरों तक
मेरी आँखों से उतरकर
ढल सकें निश्चित आकार में
होठों की मुंडेर पर बैठे
तकते ना रहें बेगाने से
और यूँ ही ना उड़ जायें..
यूँ ही ना अस्तित्व खो जाएें..
शब्द.. जो पुल निर्मित कर दें
उखड़े तरख़्तों को रोपन दें
उधड़ी तुरपनों को सिल दें
रिसते से जख्मों को भर दें
दग्ध ह्रदय को शीतल कर दें
उलझे रिश्तों को सुलझन दें
ढूंढती रहती हूँ अक्सर अर्थों को..
अर्थ.. जो भावनाओं को उभार दें।
गलतफहमियों की भूल भुलैया से
रिश्तों को निकाल कर सहेज लें।
आँखों के रास्ते दिल में उतर लें,
क्षण क्षण थाम स्थिरता भर दें।
विध्वंस से सृजन को जोड़ लें।
निरर्थक से बढ़ते सार्थक हो लें।
ऐसा होता है अक्सर मेरे साथ
कभी शब्द खो जाते हैं
तो कभी अर्थ ही गुम जाते हैं..
भूलभुलैया में दोनों रह जाते हैं।
भारती शर्मा
मथुरा उत्तरप्रदेश
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“प्रेम है… ”
कह देते हो.. कहने को तुम..
कि प्रेम है मुझसे..
पर क्या वाकई..
प्रेम को जी सकते हो
महसूस कर सकते हो??
मेरे चेहरे.. स्पर्श से इतर??
या बस..
मेरी बातों से उपजे..
तुच्छ से आकर्षण को
प्रेम समझ कर..
गले से लगा बैठे हो तुम?
या बस…
सबकी तरह मेरे चेहरे
से उपजी मन्त्रमुग्धता को
प्रेम समझ कर..
मृग मरीचका में..
दौड़ लगा रहे हो तुम?
तुम बस..
उसे महसूस कर लो
अपनी साँसो में..
अपनी मुस्कान में..
बसा लो सचमुच..
हर इच्छा और उम्मीद
को कर दो स्वतंत्र..
बस प्रेम को महसूस करो।
उसकी रोशनी को..
बसा लो अपने अस्तित्व में।
जी लो सच्चे प्रेम को।
(स्वरचित व मौलिक )
भारती शर्मा
मथुरा