November 21, 2024

असग़र वजाहत

देश की सभी बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने एक राय होकर यह फैसला कर लिया कि बूढ़े लोग देश और समाज के लिए बिल्कुल बेकार हैं। उनका जो योगदान होना था वह हो चुका है और अब वे कुछ करने लायक नहीं बचे हैं। लेकिन वे खाते – पीते हैं, जगह घेरते हैं,इलाज कराते हैं, यात्रा करते हैं। नागरीकों को दी जाने वाली सभी सुविधाएं भोगते हैं, देश की ऑक्सीजन लेते हैं, देश की धूप खाते हैं और इसका जो बोझ देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है वह देश को पीछे ले जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि बूढ़े लोगों द्वारा की गई देश सेवा को पूरी मान्यता देते हुए बहुत सम्मान के साथ उनसे निवेदन करना चाहए कि वे अपनी इहलीला पर विचार करें।

बूढ़े लोगों की सामूहिक हत्या और क्रियाकर्म के लिए अच्छे शब्दों की तलाश शुरू हो गई। माना जाता है कि अच्छे शब्दों के बिना बुरे काम तक नहीं किए जा सकते। तलाश करते करते करते करते कई शब्द मिले लेकिन अन्त में ‘ससम्मान आत्म उत्सर्ग महोत्सव’ को फाइनल किया गया। अंग्रेजी में इसे ” Illustrious Self- Abstinence Carnival” (ISAC) कहा गया।

इसलिए आम चुनाव के ठीक बाद सत्तर साल के ऊपर के सभी लोगों को हर शहर गांव मोहल्ले में बहुत सम्मान के साथ बुलाया गया। उनको हार फूल पहनाए गए। उनके योगदान की भरसक चर्चा की गई। उनके गले मिलकर उनके संबंधी और रिश्तेदार बहुत रोए। उसके बाद नेताओं ने बुजुर्गों को विदाई भाषण दिए।

देश के संसाधन बचाने के लिए न तो बुजुर्गों को गोली मारी जा सकती थी न उन्हें बिजली की कुर्सी पर बिठाया जा सकता था। न ज़हर के इंजेक्शन दिए न जा सकते थे। न उन पर गैस बर्बाद की जा सकती थी .. चूंकि बुज़ुर्ग परम्परा से प्रेम करते थे इसलिए रस्सी के फंदे बनाए गए। बुजुर्गों से कहा गया हमारी क्या हिम्मत है कि हम आपके गले में यह फंदे डालें।आप ही सम्मान पूर्वक वीरता, साहस और आस्था के साथ अपनी इच्छा से यह पूण्य काम करें। देश आपका आभारी रहेगा। फूलों की वर्षा होने लगी। ‘ए मेरे वतन के लोगों…..” और ” कर चले हम फिदा जनो – तन साथियों……” गाने बजने लगे। एक समय पर एक साथ पूरे देश के कई लाख बुजुर्गों ने देश के विकास में अपना योगदान दे दिया।

कुछ वर्षों बाद यह सोचा गया की पचास से साठ के बीच के बुजुर्गों भी अपने को सम्मानित कर दें तो बहुत बढ़िया हो। क्योंकि पूरे देश में बलिदान का वातावरण बन गया था इसलिए पचास से साठ तक के लोगों के आत्मा बलिदान करने में कोई कठिनाई पेश नहीं आई।

राष्ट्रीय स्तर पर यह बातचीत शुरू हो गई कि कौन अधिक देश सेवा करता है? निश्चित रूप से जिसके अंदर शक्ति ही नहीं रह जाती वह देश की क्या सेवा करेगा। ऊर्जा से भरपूर युवा देश की सेवा करते हैं। यह भी कहा गया कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे वैसे पदोन्नति क्यों होती है? वेतन क्यों बढ़ता है ? जबकि बढ़ती उम्र के साथ व्यक्ति की कार्य क्षमता तो घटती है। इसलिए बढ़ती उम्र के साथ वेतन कम होते चले जाना चाहिए। पदोन्नति की जगह अवनति होना चाहिए। इस विचार का बड़ा स्वागत किया गया और इसे क़ानून बना कर लागू कर दिया गया। कई नारे बनाए गए जिसमें “सिंहासन खाली करो हम आते हैं” बहुत लोकप्रिय हुआ।

‘पुराने’ शब्द से लोग नफरत करने लगे। सब से पहले पुरातत्व विभाग बन्द कर दिया गया।पुरानी ऐतिहासिक इमारतें तोड़ी जाने लगीं।पुरानी किताबें जलाई जाने लगीं। पुराने साहित्य को ‘बैन’ कर दिया गया । अगर किसी के पास कोई पुरानी किताब मिल जाती थी तो उसे सज़ा दी जाती थी। पुराने जंगल काट दिए गए। पुरानी नदियां बंद कर दी गयीं। पुराने पहाड़ टुकड़ा टुकड़ा कर दिए गए। पुराने फिल्मी गाने सुनने वाले अगर पकड़ में आ जाते थे तो दंड स्वरूप उन्हें नई फिल्मों के पांच हज़ार गाने सुनवाए जाते थे। जिसके बाद अपराधी या तो मर जाता था या नई फिल्मों के गाने पसंद करने लगता था।

बात यहां तक पहुंची कि अट्ठारह साल का युवक बेकार है और चालीस साल का आदमी नौकरी पर लगा हुआ है। यह कहां का न्याय है? अट्ठारह साल के युवकों से कहा गया कि यदि चालीस साल का आदमी नहीं रहेगा तो उसकी जगह उन्हें नौकरी मिल सकती है। फिर क्या था हर परिवार में, गांव मोहल्ले, शहर देहात में लोग अपने परिवार के चालीस साल तक के मां बाप को, रिश्तेदारों को, परिचितों को पकड़ पकड़ कर ISAC के लिए पेश करने लगे।

दस साल और अट्ठारह साल वालों के बीच जो संघर्ष शुरू हुआ वह बहुत खूनी था। खून की नदियां बहने लगीं। इसमें न तो अट्ठारह साल वाले बचे न दस साल वाले बचे।
उसके बाद नौ साल वालों ने सफलतापूर्वक देश का शासन संभाल लिया और बड़ी सफलता से देश आगे बढ़ने लगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *