दीपा साहू प्रकृति की दो कविताएं
अंतहीन पीड़ा से खुद से मोह मिट गया है,
अब दूर निकल जाऊँ मैं बहुत,
निर्जनता में,
कि,
हृदय के हालात समझ पाऊँ, मैं
कि विव्हल हो रही । (विव्हल-अशांत)
खुद को ले जाऊँ,एकाकीपन में,
वन ,विपिन ,कानन,
सुख की सरिता क्या,
“प्रकृति” को समझ पाऊँ मैं।
उस पीड़ा से,
खुद को निकाल लाऊँ मैं,
अंतहीन है जो मेरे अंदर।
खुद को ही कही छोड़ आऊँ मैं।
अब नहीं होता,
सहनशीलता की हद
अब टूटने लगी है,
डूब रही हूँ दुख के सागर में
खुद को कैसे बचाऊँ मैं।
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(दरख़्त -पेड़)
किसी दरख़्त सा निकल आई थी,
जिंदगी की चाह में,
उन दरारों से,
पर वो दरारें ही मेरी नहीं थी
मुझे नहीं पता था।
हवा ,पानी कहीं से,
बहा ले आई थी मुझे शायद,
और पल्लवित कर दिया।
अंश मात्र का घरोंदा।
कभी यहां कभी वहां
रोपते गए।
पर जिसे अपना कह सके,
वो ज़मीन कभी बनी ही नहीं।
हमेशा दूसरों की ज़मीन पर ,
क्यों प्रस्फुटित होना पड़ा।
मेरा कभी कुछ क्यों न था।
मेरा कहने के लिए इस
“प्रकृति”के पास कुछ नहीं।