२१ वी सदी में आदिम मानव की साहित्य सभ्यता
मनीषा खटाटे नासिक महाराष्ट्र.
प्रास्ताविक —
काल समय के अनुसार बार बार लौटता है.वर्तमान मनुष्य की सभ्यता फिर से वही आदिम काल को लेकर भाषा पूराने संरचनाओं में विकसित हो रही है.भाषा विकास में भी हम आज उतने ही प्रागैतिहासिक तथा पाषाण काल से जुड रहे है.भाषा की मुख्य जडे भी चित्र,चिन्ह,शब्द तथा अक्षरों से अनुबंध करते है.जो गुफाओं में आदिम काल का मनुष्य स्वयं को व्यक्त करने में धीरे, धीरे समर्थ हो रहा था.आज भी हम उसी भाषा का प्रयोग कर रहे भले ही तंत्रज्ञान कितना भी विकसित हुआ हो.सोशल मीडिया की भाषा भी आदिम चिन्हों को ही नये रुप में प्रस्तुत कर रही है.सोशल मीडिया पर बातचित करने का जर्रिया भी ज्यादातर ये चिन्ह बन रहे हैं.२१ वी सदी मे हमने भाषा की उसी आदिम विधा को चूना है.फेसबुक,व्हाट्सअप,मेल,ट्विटर,यू ट्युब इन मीडिया के भाषा संचना में चिन्हों का उपयोग होता हैं.हँसने वाले,रोने वाले तथा हर तरह के भाव व्यक्त करने वाले चिन्ह,वस्तु,फल,पौधे,चाँद,सूरज,सितारे और प्रेम को व्यक्त करनेवाले चिन्हों का प्रयोग किया जाता हैं.सोशल मिडिया की भाषा का एक अलग से निर्मान हुआ हैं.
भाषा का यथार्थ —
साहित्य,कला,संस्कृती, दर्शन,धर्म,विज्ञान,देश इन सबकी पहचान होती है भाषा.आपकी भाषा जितनी समृध्द होगी उतनी ही साहित्य,कला,संस्कृती, धर्म भी मानव चेतना के आकाश को छुएंगे. अभिव्यक्ति भाषा से ही होती है.भाषा ही मानववंश के सभी आयामों की पहचान होती है.भाषा से ही हम जगत तथा सत्य को जानने मे समर्थ होते है.भाषा से ही हमारे रिश्ते,नाते अच्छे होते है और बिगडते भी भाषा से ही है.भाषा ही वह आईना है जिसमे हम मनुष्य तथा समाज का भी चित्र देख सकते है.भाषा का व्याकरण और साहित्य जितना सृजनशील होगा उतनी ही भाषा समृद्ध हो जाती है.अर्थात भाषा के विकास के साथ सृजनशील साहित्य का निर्मान होना जरुरी हैं.हिंदी भाषा को भी अगर विश्व भाषा बनना है तो हमे भी इन तथ्यों से अवगत होना होगा.परंतु हम अभी राष्ट्रभाषा के लिए ही झुज रहे है.हमारी क्षेत्रिय भाषाओं का भी वही हाल है.भाषा का विकास यह कोई राजकीय आंदोलन नही है.सृजनात्मक साहित्यिक आंदोलन है.हमारे भाषाओं के विरोध ही अभी खत्म नही हुए है.तो हन कहां अपेक्षा कर सकते है.अनुवाद एक प्रयास है भाषा को समृद्ध करने का.अनुवाद,व्याख्या,विवेचन की समर्थता किसी भी भाषा को जीवित रखती है.भारत और विश्व साहित्य कृतियों का आपस मे अनुवाद होना चाहिये.वह अनुवाद शाश्वत,कालजयी तथा उस साहित्य कृती के सत्य का अनुबंध करती हो.कालानुक्रम से भाषा भी अपने पूर्वाधार बदलती हैं.अपने चयन के साथ वह संस्कृती जनमानस को भी बदलती हैं.अगर हमें २१ वी सदी की भाषा की विधाओं पर विमर्श करना है तो तंत्रज्ञान और विज्ञान का प्रभाव साफ दिखाई पडता हैं.आंचलिक भाषा जो भारतीयता की एक पहचान है वह भी आधुनिकता की आंधी में खत्म होने की कगार पर हैं.लोक भाषा,लोक संस्कृती,लोक धर्म की जडे भी हिल रही हैं.साहित्य,धर्म और संस्कृती को जीवित रखना है तो हमारी भाषा को समर्थ होना होगा , सशक्त होना होगा.
भाषा के विकास पर और एक आक्रमण हो रहा है वह यह है की गुगल(Google)की हुकूमत बढ रही है.२१ वी सदीं मे हम गुगल के माध्यम से कैसे बच सकते है?शायद हम भाषा का भाव खो देंगे.यह भी डर है.भाषा विश्लेषक,संश्लेषक तथा सृजनात्मक आयामो मे मनुष्य चेतना के साथ विकसित होनी चाहिए.
भाषा के संरचनात्मक आयाम को भी समझना अत्यावश्यक है.राजनीती,धर्म,दर्शन,साहित्य,विज्ञान की भी अपनी भाषा होती है.इनकी मर्यादाओं को अगर नही आंकते है तो हम मानवता के आयामों की गहराई और ऊँचाईयों को भी समझने में कारगर नहीं होंगे.फिर हम कैसे ना समझते हुए भी एक दुसरे पर किंचड उछलते हैं.
भाषा के उच्चतम् मूल्यों के साथ मनुष्य चेतना तथा मानववंश का रुपांतरण या विकास जरुरी हैं.तो भाषा ही इस रुपांतरण का माध्यम बनेगी.हमे बेहतर विश्व बनाने के लिए एक बेहतर भाषा का भी निर्मान करना चाहिए.भाषा ही मनुष्य,समाज,संस्कृती,मानववंश की पहचान है.हम भाषा के साथ ही विकसित होते है अर्थात् हमारी समस्या भी भाषा के अंर्तगत ही पलती है.इस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए.
२१ वी सदी का साहित्य —
आधुनिकवाद.अस्तित्ववाद और उत्तरआधुनिकवाद के बाद हम उत्तर उत्तरआधुनिकवाद के युग में प्रवेश कर रहे हैं.साहित्य पर अब राजनिती,समाज से ज्यादा तंत्रज्ञान और स्वतंत्रता हांवी होगी.असिमीत स्वतंत्रता सृजनात्मक परिवेश मे आकार लेगी.दुनिया अब विश्व साहित्य का आगाज करने जा रही हैं.
२१ वी सदीं में साहित्य दर्शन कैसा होगा ? अभी तक साहित्य की साहित्य विधांये एक तरह से संरचनावाद की उत्पाद हैं.उनके आकृतीबंध शुरुवात,मध्य और अंत इस तरह से होते हैं.यह एक इमारत की भाती रचना खडी होती है.,पहले मकान ऐसे ही बनते थे.परंतु आज इमारत बनने की शुरुवात अलग ढंग से होती हैं,रचना कहीं से भी शुरु होके बनती है.साहित्य विधाये भी इस तरह नये रचना शास्त्र के साथ जोडकर देखना चाहिये. उदाहरण के तौर पर कुछ दिनों पहले हिंदी के महान साहित्यिक विष्णू प्रभाकरजी की पुण्यतिथि थी,मै उनकी कृती “आवारा मसिहा ” सून रही थी,यह किताब भारत के मशहूर उपन्यासकार शरदचंद्र चटर्जी के उपर चरित्र ग्रंथ हैं.यहां उन्होंने शरदजी का चरित्र संरचना के ढंग से नहीं लिखा हैं.उन्होंने शरदजी के जींवनी को उनके उपन्यास को जोडकर देखा हैं.और यह साहित्य में एक लिक से हटकर कृती हैं.हम अकसर जीवनी मे जन्मतिथि या ऐसे अनेक अंश पढते है .परंतु एक लेखक या लेखिका की चेतना का विकास भी उसके अभिव्यक्ति के साथ होता है.इस तरह से हमे सिकने को बहुत मिलता हैं.लोरेन्स स्टर्न का उपन्यास ट्रिश्टम शँडी संरचना की दृष्टि से एक अनोखा उपन्यांस हैं.बीच बीच में जो रिक्त स्थान प्राप्त होते थे उनको एक तो अर्थ पाठकों को गढने है या लेखक के अपने अर्थ शब्दों के पार है ऐसा प्रतीत कराना चाहता हैं.यह उपन्यास रहस्यवाद की तरफ झुकता हैं.साहित्य में अद्भूतरम्यतावाद और यथार्थ वाद के अलावा साहित्य कृतियाँ अलग से प्रेरित होकर जन्म नहीं लेती है.कल्पनाशक्ती और अंतः प्रेरणा मनुष्य के सृजन कर्म को बल देती हैं.जो एक नयी संस्कृती का आगाज करती हैं.
आदिम मानव की साहित्य सभ्यता – वर्तमान काल में गूगल की भाषा लोक भाषा बन रही है और साहित्य की भाषा हमेशा की तरह लोक भाषा से अलग अपना स्थान रखती हैं.यह दूरी हमेशा से रही हैं. तो नये साल से कुछ नया सोचते हैं.ईक्किसवी सदी गुगल,यूट्यूब की है या आर्टिफिशियल इंटेलिजन्सि की है.उसकी समस्यांये आना बाकी है,मगर एक भावनिक संघर्ष आयेगा तभी हमे भावनाओं को संभालने वाले साहित्य की जरूरत होगी.
आदिम मानव की साहित्य सभ्यता में हम गूगल के माध्यम सें पहुँच चुके हैं.आम भाषा के संवाद में सोशल मीडिया पर हम ज्यादातर संवाद और भावनाओं को चिन्हों और प्रतिमाओं से करते हैं.आर्टिफिशियल इंटेलिजंन्सी के साँफ्टवेअर तांत्रिक भाषा मे अनुवाद करा सकते है,मगर कलात्मक और सृजनात्मक तथा उस भाषा की बारीकियाँ नहीं अंकित कर सकती.भाषा के चैतन्य को पकडने में असमर्थता व्यक्त होगी.और इसका प्रभाव हम अभिजात साहित्य की कडीयों से टूटते चले जायेंगे.हमारा साहित्य भी महज एक मशीनों की उपज बनकर रह जायेगा.फिर हम साहित्य के उद्देश्यों को पूर्ण करने अपने आपको सिद्ध मानेंगे ?आनेवाले समय में इन सवालों के उत्तर खोजे जा सकते हैं.