सर्कस, द्रोण और डोली :विवाह के बदलते स्वरूप
राजेन्द्र उपाध्यापय
हाल ही में सूरत में एक शादी में जाने का मौका मिला। वहां बारात के ऊपर चलती सड़क पर द्रोण विमान उड़ रहा था और तस्वीमरें ले रहा था। लोग बहुत उत्सादहित थे कि ये लग्न के समय पुष्पोवर्षा भी करेगा। देख-देखकर धन्यण हो रहे थे। खाने-पीने की सामग्री भी देशी-परदेशी सब थी। टेप वाले फिल्मीण गानों की बजाय गानेवाली लड़की (बाई कहना तो ठीक नहीं होगा) अच्छेक सुर में पारम्पारिक विवाह गीत गा रही थी। दरवाजे पर ही तोरण की बजाय वरमाला डाल दी गई। दरवाजे पर ही बड़े-बडे रंगीन फोटो लड़की के परिवार के लगे थे और लड़के-लड़की के फोटो भी रंगीन ऐश्वकर्या राय – सलमान के जैसे लगे थे। थोड़ी देर के बाद ही देखा तो लड़की डोली में बैठकर आ रही थी। चार-पांच लड़कियां आगे खींच रही थी – चार-पांच पीछे। फूलो से सजी थी डोली।
द्रोण और डोली का यह संगम गुजरात में ही आप देख सकते हैं। एक तरफ तो इतनी आधुनिकता कि ड्रोन ले आए और दूसरी तरफ डोली-इतनी पुराने जमाने की चीज। या तो हम ठीक से आधुनिक हुए नहीं या फिर हम इतने आधुनिक हो गए हैं कि लाज शर्म सब ढंक दी है।
सूरत में ही शाम को अभी भी तीन-तीन बेलपत्र गिन-गिनकर खरीदे जाते हैं और भगवान को चढ़ाए जाते हैं। स्वाकमी नारायण मंदिर, अक्षरधाम, द्धारका सब यहीं हैं।
विवाह और स्वा गत भोज में अब कोई अंतर नहीं रह गया है। दोनों में वे ही मेहमान, वैसा ही एक जैसा खानपान। वैसा ही लॉन और परिसर। अलग-अलग टेबलें लगी हुई। वैसे ही लकदम फैशन, ग्लेपमर, नई काट के कपड़े, ब्यूगटी पार्लर से सीधी आई हुई लड़कियां। यहां तक कि जूस, पिजा, बर्गर, ग्रालिक ब्रेड, पातीपूरी, पनीर, कुल्फीग, आईसक्रीम, सलाद, चटनी, गर्म तवे की रोटी, तंदूरी रोटी आदि।
रिसेप्शकन में द्रोण ने पुष्पत वर्षा की। यहां उसे हेलीपैड बोलते हैं। दूल्हाश दुल्हेन जमीन से जैसे अवतरित हुए। पाताल-लोक से जैसे देवता आते हैं। वैसे निकले और ऊपर-ऊपर चढ़ते गए, खड़े- खड़े ही। कभी आसाराम बापू भी ये सब तकनीक दिखाते थे। मंच पर जहां दूल्हाा-दुल्हकन खड़े थे वहां एक झरना भी था जिससे पानी लगातार बह रहा था। उस पानी में शायद द्रोण की पुष्पथ वर्षा हो गई तो वह चैनल रूक गया। बगल में गानेवानी लड़कियों के साथ नाचने वाली लड़कियां थी। कोमल नाम की एक लड़की या महिला ने प्रेम रतन धन पायो गाने पर अच्छा नृत्य किया। गुजराती दो गाने भी अच्छेव थे। युगल-गान थे संगीत जरा लाऊड था। जगह-जगह खाने की मेज पर मेहमानबाजी के लिए सजी-धजी लड़कियां खड़ी थी – नेपकिन लिए साड़ी पहने। एक से मैंने नाम पूछा तो उसने जान्हडवी बताया। उसकी मदद को बैरा भी था।
गाने वाली स्टेैज पर बच्चोंस के लिए जादू का आयोजन भी था। रूमाल कैंची से काटा गया फिर भी वह साबुत निकला। खाली डिब्बेभ से खाली डिब्बे निकाले गए। बच्चोंु का एक बंदर के माध्य म से भरपूर मनोरंजन किया गया।
इसके बाद जैसलमेर का एक कलाकार आया। उसने मंच पर नृत्य किया। फिर बियर की बोतलें अपने पैरों से फोड़ी और उसके कांच के टुकडे पर खड़ा हो गया। फिर दो टयूबलाईटें लाकर अपने मुंह से तोड़ी और खा गया। मुंह से खून निकल रहा था। फिर चार गिलास पानी भी पी गया। पैरों से भी खून निकल रहा था।
फिर और किसी आईटम की कमी रह गई हो तो वह साईकिल के चार पहिये ले आया जिनके टॉयर नहीं थे। उनको मुहं से नचाने लगा एक सिर से घुमाने लगा। चार एक साथ बैलेंस किए था। तरह-तरह के करतब देखकर लग रहा था जैसे हम किसी सर्कस में आए हों – शादी में नहीं।
हमारी शादियां सचमुच सर्कस में बदल गई है। द ग्रेट इंडियन फैट वैडिंग की बजाय इसे द ग्रेट इंडियन सर्कस कहना चाहिए। इसमें भी लोग-बाग हाथी दरवाजे पर बांध देते हैं। दूल्हाी, बग्गीन पर राजा महाराजा की तरह तैयार होकर अभी भी आता है। शादी के बहाने घोड़ों, मनुष्यों , बच्चोंन पर कितना अत्यासचार होता है। बग्घीा के साथ-साथ छोटी-छोटी लड़कियां या लड़के गैस के हंडे या रोशन के डेक या टयूबलाइटें लेकर चलते हैं। उनमें से कई ने तो सुबह से कुछ भी नहीं खाया होता है। भूखे-प्या से वे चलते ही रहते हैं। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता।
एक तरफ इतना इंतजाम पर बारात पहुंचने पर बारातियों को सादा पानी। ठंडा भी नहीं, जूस भी नहीं। एक पुष्पद भी नहीं। लड़के के पिता को शॉल ओढ़ाकर स्वा गत किया गया।
स्वा गत समारोह में ही शादी की, तिलक की, सगाई की रिंग सेरेमनी की। विडियों, बड़े पर्दे पर चल रही थी। दूल्हा, – दुल्ह।न को फिल्मीी हिरो-हिरोईन की तरह प्याचर की मुद्राओं में दिखाया जा रहा था। दुल्हाी-दुल्हिन भी जैसे किसी नाटक के सिनेमा के, खेल के पात्र ज्यानदा लग रहे थे। दोनो अपने माता-पिता के साथ शाम 7 बजे से रात 12 बजे तक खड़े रहे भूखे प्याासे। रिसेप्शथन में आनेवालों – लिफाफा देनेवालों का तांता लगा था। कतार लंबी से लंबी होती जा रही थी। दूल्हाल-दूल्हतन किस किसको पहचानें। दुल्हन किस किस को याद रखेगी।
मेरी ते स्टेहज पर जाकर दोनों को आशीर्वाद देने या हाथ मिलाने या फोटो खींचाने की हिम्मपत ही नहीं हुई। दुल्हाय-दुल्हसन प्लाखटिस्कय की मुस्काोन लेकर मुस्काजए जा रहे थे।
इतनी बार पानी और जूस पी लेने के कारण बाथरूम ढूंढना अनिवार्य हो गया। किसी को पता न था। इतने बड़े लंबे-चौड़े मैदान में किसी को पता भी नहीं था। कुछ मजदूरों से पूछकर पर्दो के पार पीछे की ओर गया। इतना गंदा बाथरूम मैंने कभी देखा न था। उसमें रोशनी भी नहीं थी। मूत्रपात्र का पाईप भी नहीं था। नए कपड़ों पर वह गिर सकता था। हाथ धोने का पात्र भी इतना गंदा था कि सब खाया-पिया बाहर आ जाए।
आपने इतने लाख खर्चा किए। सजावट में, पुष्प वर्षा में, खान-पान में, थोड़ा बाथरूम पर भी करते। उसे भी साफ करवा देते। दिल्लीै में प्रयाग जी के साथ इंडिया आर्ट फेयर में गया – वो भी तो बगीचे में था लेकिन इतनी साफ-सफाई। बाथरूम के लिए बकायदा वैन थी जिसमें लेडिज-जैंटस अलग-अलग टायलैटस थे। साबुन था। शीशा था। बॉश-बेसिन था। सब साफ-सुथरा। और यहां हम आधुनिक तो हो गए। लाज शर्म सब छोड़ दी। दुल्हान का घूंघट शादी के दूसरे दिन ही नदारद था। दुल्हबन जैसे गुजराती नहीं-सीधे मुंबई की मायानगरी से आई हो। वैसा ही कृत्रिम केशविन्या्स, पोशाक। पोशाक भी आधुनिक। साढ़ी, लहंगा, चोली, घाघरा नहीं। दूल्हाा भ्ज्ञी बो टाई लगाकर सीधे अमेरिका से आया लगा रहा था।