November 23, 2024

औरतों के दुख
बड़े अशुभ होते हैं,
और उनका रोना
और भी बड़ा
अपशकुन।

दादी
शाम को घर के आँगन में
लगी मजलिस में
बैठी तमाम बुआ, चाची, दीदी, भाभी और बाई
से लेकर हज्जामिन तक की
पूरी-की-पूरी
टोली को सुनाती है
औरतों के सुख-दुख का इतिहास।

समझाती है
सबर करना अपने भाग्य पर
कि विधि का लेखा कौन टाले
जो होता है
अच्छे के लिए होता है।

सुनी थी उसने
अपने मायके में कभी
भगवत कथा
थोड़ा-बहुत पढ़ा
रामायण और गीता भी
फिर पढ़ने से ज्यादा सुनने लगी
क्योंकि
ज्यादा पढ़ लेने से
बुद्धि खराब हो जाती है, मर्दों की नहीं
औरतों की।

पूछा था उसने भी
कभी अपनी दादी से
कि ज़्यादा पढ़कर ख़ाली औरतों की ही
बुद्धि क्यों खराब हो जाती है
मर्दों की काहे नहीं,
तभी डपट के खींचे गए कान
और फूँका गया था
एक मंत्र,
औरतों को नहीं पूछने चाहिए
कोई सवाल
ज़िन्दगी खराब होती है

नहीं पूछने चाहिए
कि कहाँ से शुरू होता
कोई भी प्रश्न
जैसे –
क्यों गए?
कहाँ गए?
क्यो नहीं बताया?
कब आओगे आदि-आदि?

ऐसे हर सवाल से लगती है
अच्छे-भले घर में आग

औरत को मुँह बन्द
और
दिमाग ख़ाली रखना चाहिए
इससे होती है बरकत
बसता है सुखी संसार
आते हैं देव,
विराजती है लक्ष्मी।

बन्द रखो दिमाग के
साँकल
सारे सवाल मन के ताल में
डुबो दो
सारी शिकायतें
दिमाग की देहरी पर
छोड़ दो
और हाँ,
मन की कुण्डी भी लगा लिया करो
ज़ोर से।

नहीं सुनना
कभी सपनों की कोई
आहट
सफ़ेद रखो मन की
स्लेट
नहीं खींचो कोई
तस्वीर

और
किसी अभागी रात, जो देख लो
कोई चेहरा
तो तुरन्त मिटा दो।

हमेशा
कोरी रहनी चाहिए
औरतों के मन की
स्लेट।

————–

होना अपने साथ

पीले पत्तों-से
बीमार दिन में भी
हरे सपने
आकर टंग जाते हैं
मन की सूखती सी
खुरदुरी डाल पर
और वहीं ख्वाहिशों की
छोटी सी गौरैया
फुदकती है
चोंच मारती है
सपनों के अधपके फलों पर

वही नीले-से दिन की
आसमानी कमीज पहने
निकलता है कोई
तेज धूप में

सच का आईना
एकदम से चमकता है
और चुभते हैं
कई अक्स माज़ी के
और नीला दिन
तब्दील हो जाता है सुनहरी-सुर्ख
शाम में

कुछ रातरानी और हरसिंगार
अंजुरी भर लिए
ठिठकता है
वक़्त का एक छोटा सा
खूबसूरत लम्हा
और एकदम उसी पल
खिल उठता है पूरा चाँद
किसी याद सा

देखती हूँ
दूर तक पसरती
स्याह रात
तुम्हारी बाँहों की तरह

बीमार पीले पत्तों से दिन
हो जाते हैं
दूधिया चाँदनी रात

सच ही है
उम्मीदें बाँझ नहीं होतीं
वे जनमती रहती हैं
सपने
उम्मीद खत्म होने की
आख़िरी मियाद तक

ठीक वैसे,
जिस तरह जनती है
कोई स्त्री
अपना पहला बच्चा
रजोवृत्ति के अंतिम सोपान पर।

—————
परिचय-संक्षेप
रंजीता सिंह “.फलक ”
साहित्यिक पत्रिका ‘कविकुंभ’ की संपादक।
सम्पादक -खबरी डॉट कॉम |
चर्चित काव्य-संग्रह – ‘प्रेम में पड़े रहना’, साक्षात्कार संकलन – ‘शब्दशः कविकुंभ’,”कविता की प्रार्थनासभा “,कविता का धागा,प्रारंभ ,एवं कई अन्य किताबों “में कविताओं पर चर्चा एवं कविता ,गज़लों , गीतों का प्रकाशन। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्पेशल न्यूज, परिचर्या, रिपोर्ताज, कविता ,गीत-ग़जलों का प्रकाशन,दूरदर्शन,आकाशवाणी एवं अन्य मंचों पर प्रसारण ।
कई राष्ट्रीय स्तर के सम्मानों से सम्मानित |
स्त्री-पक्षधर संगठन ‘ बीइंग वुमन’ की अध्यक्ष। पत्रकार ,शायरा, लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता।
अस्थायी निवास- सिरमौर मार्ग, कौलागढ़ रोड, देहरादून (उत्तराखंड) 248001
संपर्क – 9205185670 / 9548181083

#रंजीता सिंह ‘फ़लक’

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