1 जुलाई, 2021 को 101वें जन्म दिवस पर :”और यह तीसरा किनारा”
स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी
लगता तो असंभव है लेकिन आज की दुनिया में जहां मर्यादा का कोई माप-दण्ड न रह गया हो, क्या नहीं हो सकता, क्या नहीं होता? जब नदी तीसरे किनारे की ओर चल पड़े तो या कि खुद तीसरा किनारा बना ले तो? अब यह बात दूसरी है कि परंपरा से बने दो किनारों की अपनी भव्यता है, गरिमा है, लेकिन अपनी छाती पर बांध स्वयं बनवाकर पथरीले ऊबड़-खाबड़ तीसरे किनारे को अपने भीतरी प्रवाह से हरा-भरा बनाने की जिद कर बैठे तो दोष तो नदी का ही होगा न? परंपरा की शालीनता और विश्वास के दरख्तों की छाया से बंधे किनारे कर ही क्या सकते हैं?
___ नदी की कहानी भी तो अब युग-युग से चले आये विश्वास को तोड़ बैठी है। पैदा हुई कि बचपन संकरे दो किनारों के बीच खेलता-मचलता रहा। तरूणाई आई तो विशाल दो फैले हुए किनारों ने उसकी तूफानी लहरों को अपनी बांहों में बांध लिया और जब सागर की ओर बढ़ते और उसमें घुल-मिल जाने की प्रौढ़ता आई तब भी दो ही किनारों से बंधी रही नदी।
जी हां, नदी की जिन्दगी ऐसी ही तो रहती आई है। शुरू से लेकर आखिर तक। ऐसा नहीं कि कभी बदलाव नहीं आया उसमें। बदलाव तब आया जब बाहर की बाढ़ ने उसे तट-बंधों की सीमा तोड़ देने पर विवश कर दिया, लेकिन यह बदलाव भी क्षणिक ही रहा आया है। बाढ़ के हट जाने पर नदी हमेशा अपने चिर-परिचित किनारों की परिधि में लौट आई है, लौटती रही है।
लेकिन समय का फेर ही तो कहा जायेगा इसे कि वह अब अपने ऊपर बांधों के निर्माण को चुप स्वीकार लेती है- वह जाती है एक तीसरे नये किनारे की ओर सींचने के लिए नई-नई फसलों को, हरा-भरा करने बीहड़ बंजर धरती को और पीछे छूटे किनारे खाली-खाली से एकमात्र यह प्रत्याशा लिये रहते हैं कि कभी तो अमृहतमय जल की धारा लौटकर उन्हें फिर से हरा-भरा करेगी।
कहूं तो नदी और नारी के जीवन की तथा-कथा में कोई अधिक अंतर नहीं है। लगभग एक-सी ही कथा रहती है उद्गम से लेकर विलीन होने तक की- जन्म से लेकर अन्तिम सांसों तक की लेकिन जब एकाएक अप्रत्याशित बदलाव आये तो उसे क्या कहा जाये? क्या नदी भटक गई या बहक गई?
___ बात जो भी हो लेकिन तिमिरवरण जाने कितनी नदियों के प्रवाह से दो-चार होता आया है; कभी तो किनारा बना; कभी लहरों के भंवरजाल में डूबा-उतराया और कभी सागर जैसा शांत हुई मंथर गति की नदी की जलधारा को समाहित भी कर लिया उसने अपने विशाल विस्तार में।
लेकिन रेखा के बारे में अब कुछ भी तो नहीं कह पा रहा है? रेखा जिसकी टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी जिन्दगी बेतरतीब धाराओं की एक अजीब दास्तान है, जैसे किसी नदी का उद्गम स्थान दुर्बोध, अज्ञात-सा रहता है, रेखा का बचपन भी तिमिर के लिए आज तक उतना ही दुर्बोध अपरिचित रहा आया है। जाना तो केवल इतना कि एक सुशिक्षित पिता की स्नेहिल छाया से वह वैसी ही वंचित हो गई जैसे अपने उद्गगम के हरे-भरे आंचल से विलग कर दी जाये। मां की ममता तो मिली लेकिन बचपन से ही वर्जनाओं और ________________________________________
प्रतिबंधों के पाषाणी अवरोधों से जीवन की धारा को समगति से बहने का जो सुअवसर मिलना था वह रेखा के भाग्य में नहीं लिखा था। अजीब-सी लकीरें भी तो हैं रेखा की हथेली पर- बड़ी लंबी कलात्मक अभिरूचि की प्रतीक उंगलियों के बीच बनी हुई चौड़ी-सी तमाम संघर्षों के झेलने के निशान लिये हुए रेखा की हथेली। जब, जब कभी नजर पड़ गई तिमिर की इस हथेली पर तब रेखा के भीतर सन्निहित बहुआयामी प्रतिभा के लक्षणों को देखकर वह आश्चर्य से अभिभूत हो उठा है।
जब-जब सोच उठता रहा है तिमिर कि काश रेखा की जीवनधारा को स्वाभाविक गति से बहने का मौका तो मिल जाता लेकिन जब कभी उसे रेखा के मन के भीतर झांकने का मौका मिला- जब कभी आहिस्ता-आहिस्ता वह रेखा की जीवनधारा के पिछले प्रवाह से परिचित हुआ तब-तब उसके दृढ़ व्यक्तित्व की संकल्प-निष्ठा के प्रति समर्पण से वह स्वयं प्रभावित होता आया है। रेखा जिन संघर्षों के, संदेहों के, अभावों के पड़ावों को अक्सर वंचिता की तरह पार करती हुई आगे बढ़ती गई- अवरोधों को तोड़ते हुए जिन्दगी के अल्लम-गल्लम को अपनी स्नेहपूरित धारा के आंचल में समेटते हुए- उन स्थिातियों में शायद
और कोई होती तो टूट जाती, बिखर जाती और अपने जीवन के इतिहास की इतिश्री कर बैठती लेकिन अभावों के आघातों को सहते हुए– गलत या सही जो भी निर्णय लिया उसके पालन को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हुए रेखा ने जमाने के व्यंग्य-प्रहारों को भी झेल लिया सिर्फ सोचकर कि कभी तो वह सुबह आयेगी।
इस सुबह की सुनहली किरणों की आज भी प्रतीक्षा है रेखा को, और कोई बड़ी बात नहीं है कि ऐसी सुबह को वह स्वयं साकार न कर सके। लेकिन जाने क्या हो जाता है रेखा को ऐन मौके पर कि स्वयं अपनी जीवन-प्रवाह में ऐसे भंवर-जाल बना लेती है कि आगे की गतिमयी लहरें उस भंवर-जाल के चक्कर में ऊपर-नीचे डूबती-उतराती उसे अपने ही किनारों से दूर फेंक देती हैं। ऐसा नहीं कि रेखा स्वभावगत अपनी इस कमजोरी से अपरिचित हो लेकिन जन्मजात किसी सही या गलत भावना के उन्माद में बहकर लिया गया संकल्प स्वयं उसके लिए जान-लेवा बन जाता है। भले-बुरे की पहचान रेखा को है। एहसास है उसे कि कौन सही मायने में उसकी गति को और अधिक गतिशील बना सकता है। लेकिन तिमिर आज तक यह नहीं समझ पाया कि गाहे-बगाहे वह स्वयं ऐसा कुछ क्यों कर बैठती है जो न केवल उसके जीवन–प्रवाह की गति को अवरूद्ध कर देता है बल्कि ऐसा अवरोध नदी की धारा के बीच आये द्वीप-सा बन जाता है और तब नियति हो जाती है नदी जैसी किनारों से दूर द्वीप के आसपास चकायित होते हुए आगे बढ़ने के संघर्ष की।
अपनी लगभग आधी जिन्दगी के सफर में क्या नहीं झेला रेखा ने, क्या नहीं सहा और क्या नहीं बर्दाश्त किया, अपने तले अंधेरा रखते हुए भी दूसरों की राह रोशन करती रही और खुद बत्ती की तरह जल-जलकर फुआती रही- काली पड़ती गई बिना उफ् किये।
तिमिर का यह दुर्भाग्य था या सौभाग्य कि रेखा ऐसे में उससे टकराई जब वह स्वयं सुनसान-बियाबान में भटक रहा था- किसी ऐसी नदी का किनारा बनने की तलाश में जो तब तक के उसके कटे-पिटे जिंदगी की धरती के टुकड़े संवार दे, सहेज दे। और रेखा स्वयं अपने लक्ष्य की तलाश में- पहाड़ी ढलानी ऊबड़-खाबड़ घाटियों, सघन वनों और बंजर बीहड़ों के बीच अपना सफर तय करते हुए- खोज रही थी एक ऐसी जमीन, जहां वह सरलता से बह सके, बहकर आगे बढ़ सके।
तिमिर और रेखा का यह आकस्मिक संपर्क ही तो था जो न जाने कब और कैसे किनारा बन बैठा, तो रेखा की जीवन-धारा अनिश्चय के उहापोह में पड़ गई- कैसे दो नावों पर पैर रखे! मन के भीतरी ________________________________________
संघर्ष ने उसे झकझोर कर रख दिया किन्तु तिमिर ने तो विशुद्ध रूप से इसे पूर्व-जन्म का संस्कार मान लिया। चाहा तो इतना, कि किनारे को केवल स्नेह की धारा से सिंचित करता रहे रेखा का जीवन–प्रवाह।
रेखा भी तो तब तक तिमिर के भीतर-बाहर के जीवन के कोने-कोने से परिचित हो चुकी थी। उसकी स्नेहमयी धारा की तरलाई से जैसे किनारा हरा-भरा हो उठा और तब किनारों को सहेजती हुई नदी की तरह रेखा बढ़ने लगी और उसने अपने जीवन के पहले सपने को साकार कर लिया। उस दिन तिमिर को ऐसा लगा कि जैसे रेखा की नहीं, स्वयं उसकी दबी अतृप्त आकांक्षा पूरी हुई हो।
और फिर जैसा कि स्वाभाविक था नदी को जब गति मिली तो वह आगे बढ़ चली। रेखा ने जिंदगी के सफर के आगे के पड़ावों को पार कराने का निश्चय कर लिया। लेकिन सफर को सहज बनाने के लिए रेखा को आगे बढना पड़ा। फिर जाने क्यों कैसा हआ कि एक नई दिशा में बहते हए अपने ऊपर उठते हए बांध को देखकर भी अनदेखा कर गई रेखा; अप्रत्याशित बन गया एक तीसरा किनारा जिसने दूर बहुत दूर कर दिया तिमिर को रेखा से। समीर एक परित्यक्त किनारे की तरह आज भी नहीं सोच पा रहा है कि रेखा के जीवन–प्रवाह का यह मोड़ स्वयं उसकी विवशता से आया अथवा कि जान-बूझकर। सो जो भी हो, रेखा कहीं भी बहे, कितनी दूर बहे जाये किन्तु तिमिर का तिमिराच्छन्न किनारा आज भी किसी ऐसी बाढ़ की प्रतीक्षा में है कि जो रेखा के स्नेहिल आंचल का स्पर्श उसे करा सके।
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