November 22, 2024

याद:ओमप्रकाश वाल्मीकि

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आज फेसबुक में एक- दो पोस्ट देखीं तो पता चला प्रसिद्ध लेखक – कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की जयंती है। साथ ही आज ही कवि नागार्जुन की भी जयंती है। नागार्जुन समानता के लिए व्यवस्था बदलने के लिए अपने ही ताप और तेवर में जिये और लिखे। उन पर आज बहुत से कार्यक्रम भी हो रहे हैं। यह अच्छा है पर ओमप्रकाश वाल्मीकि पर ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं गुजरा सामने से। ऐसे में इंटरनेट पर उनकी कुछ कविताओं को पढा और जब तीसरी या चौथी बार ‘जूठन’ के अंश पढ़े तो मन विचलित हो गया…। साहित्य में समाज का यह उपेक्षित हिस्सा आना जरूरी था। यहां याद करना चाहूंगा राजेन्द्र यादव को जिन्होंने ‘हंस’ के माध्यम से स्त्री, दलित, आदिवासी और मुस्लिम विमर्श को जमीन दी और पीछे ढाई तीन दशकों में आज का ज्यादातर लिखा इन्हीं विमर्शों के अंतर्गत आता है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि और उनके लेखन पर इंटरनेट या पुस्तकों में पढ़ लीजियेगा, अभी मैं एक किस्सा बताना चाहूंगा। 2016 में रविशंकर विवि रायपुर में हम हिंदी के महाविद्यालयीन शिक्षकों का रिफ्रेशर कोर्स चल रहा था। एक दिन साहित्यकार तेजिंदर गगन जो उस दिन के रिसोर्स पर्सन थे, रचना प्रक्रिया पर बात कर रहे थे। बातचीत के दरमियान उन्होने अपना एक संस्मरण सुनाया जो ओमप्रकाश वाल्मीकि जी से सम्बंधित था। जब तेजिंदर गगन देहरादून दूरदर्शन में केंद्र निदेशक थे, ओमप्रकाश वाल्मीकि मिलने आये थे। (शायद वे पहले भी जाते रहे थे कार्यक्रम आदि के लिए) गगन जी ने बताया कि उनके केबिन में जब चाय आई तो ओमप्रकाश जी को एक दूसरे कप प्लेट में चाय दी गयी। गगन जी ने पूछा कि यह अलग कैसे तो उन्हें धीरे से बताया गया कि यह ओमप्रकाश जी के लिए है। गगन जी ने बताया, मैं बहुत नाराज हुआ और मैंने तत्काल ही वह कप प्लेट तोड़े और नए टी सेट मंगाए !
इधर साल 2020 का प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान शरण कुमार लिम्बाले को उनके मराठी उपन्यास ‘सनातन’ के लिए दिया गया। किसी इंटरव्यू में लिम्बाले जी ने बताया कि उन्होंने के. के. बिड़ला फाउंडेशन (जो सरस्वती सम्मान देते हैं) से पूछा कि, क्या यह सम्मान दलित लेखक होने की वजह से दे रहे हैं तो बिड़ला फाउंडेशन की ओर से जवाब आया कि आपकी इस रचना की स्तरीयता के कारण हमने आपका चयन किया है। साहित्य समाज का दर्पण है यह पुरानी उक्ति है पर दर्पण में हाशिये का समाज बहुत देर से दिख सका है। अब जाकर जो अलिखित था, वह लिखा जा रहा है और कस्बों-गांवों में भी लेखक निकल रहे हैं। भारतीय समाज अपनी बुनावट और परतों में विभिन्न रूप लिए हुए है उस बुनावट को साहित्य में आना जरूरी है और उस साहित्य का सम्मान जैसा कि बिड़ला फाउंडेशन के उत्तर में है, वैसा होना चाहिए। हिंदी में दलित साहित्य की स्थापना में ओमप्रकाश जी का अवदान बड़ा और स्थायी है, उन्हें नमन।
पियूष कुमार

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