षष्टिपूर्ति के अवसर पर विशेष : छत्तीसगढ़ का मयारुक बेटा, सुशील भोले
छत्तीसगढ़ की अस्मिता और विकास के लिए समर्पित श्री सुशील भोले जी याने सुशील कुमार वर्मा जी का जन्म नगरगांव, थाना धरसींवा निवासी श्री रामचंद्र वर्मा जी के घर भाठापारा शहर में दो जुलाई सन् उन्नीस सौ इकसठ में हुआ था। पिता जी उस समय भाठापारा शहर के मेन हिन्दी स्कूल में शिक्षक थे। माता श्रीमती उर्मिला देवी एक धर्मपरायण महिला थी, जिनके संस्कारों ने सुशील कुमार वर्मा को सुशील भोले बना दिया। पिता श्री रामचंद्र वर्मा एक लेखक तो थे ही, उनकी लिखी हुई किताब प्राथमिक “हिंदी व्याकरण एवं रचना” तत्कालीन मध्यप्रदेश राज्य के तीसरी, चौथी, पाँचवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल थी, जिसे पढ़कर बालक सुशील के मन में भी लिखने की इच्छा (प्रेरणा) जगी। सुशील भोले साहित्यकार के साथ साथ धार्मिक व्यक्ति हैं आध्यात्म की शिक्षा उन्हें विरासत में उनकी माता जी से मिली थी। बाद में शादी के कुछ साल बाद सन् 1994 से 2008 तक करीब चौदह साल तक परिवार से अलग रहकर उन्होंने आध्यात्मिक साधना में लीन रहते हुए आत्मज्ञान प्राप्त किया। “आदि धर्म जागृति संस्थान” की स्थापना कर हजारों लोगों को उन्होंने इसमें जोड़ा और आज उनका मार्गप्रशस्त कर रहें हैं।
“गजब पढ़व साहेब बनव फेर धरम ल झन छुट्टा छोड़व
छोटे-नान्हे जम्मो संगी ल खोज-खोज के बांधव-जोड़व
कबीर, गोर्की, एवं प्रेमचंद के साहित्य से वे अत्यधिक प्रभावित हैं, इसके अलावा स्थानीय – लोक जीवन एवं जन चेतना से जुड़े लेखकों का भी इनके लेखन से सरोकार रहता है।
फेसबुक और व्हाट्सएप पर इनके दोहे एवं आलेख रोज पढ़ने को मिलते हैं। एक प्रकार से कह सकते हैं, बड़े लिक्खाड़ हैं, सुशील जी।जीवन-दर्शन से जुड़ी उनकी रचनाएं अत्यंत उपयोगी व ज्ञानवर्धक हुआ करती है। उनके लेखन से मैं ही नहीं अन्य नवोदित साहित्यकार अपने को समृद्ध हुआ पाते हैं। छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति, कृषि-संस्कृति, लोक-संगीत, तीज-त्योहार, देवी-देवता, इतिहास जन-जीवन का बहुत सुंदर, विस्तृत वर्णन उन्होंने किया है। ठेठ छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखना-बोलना उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्वभाव (हिस्सा) है उनका साहित्य क्या है? जीवन का व्याख्यान है। उनके लेखों और कविताओं में छत्तीसगढ़ की पुरानी परंपरा को याद दिलाने की छटपटाहट स्पष्ट देखने को मिलती है। आजकल कृषि में आने वाले एवं जीवन में आने वाले उपकरण नंदा गये हैं उनकी जगह आधुनिक उपकरण को देख कवि को अतीत की याद आने लगती है-
भुकरुंस ले बाजय आवत-जावत घर के हमर ढेंकी
अब भाखा नंदागे एकर, अउ संग म एकर लेखी
रकम-रकम के मशीन उतरत हे ए भुइयां म रोजेच
तइहा के जिनिस नंदावत हावय सबके देखा-देखी
सुशील भोले जी के मन में यहां की लोक-संस्कृति एवं अपने राज्य व लोगों से अपार प्रेम (लगाव) है।
यहां तक कि छत्तीसगढ़ी खानपान को भी अपनी कविता में शानदार तरीके से प्रस्तुत करते हैं –
सील-लोढ़ा म घंस के पीस ले पताल चिरपोटी
संग म वोकर परोस दे तैं तो चुनी के रोटी
एला जे खा लेही रात-दिन तोरेच गुन गाही
कब्ज होय नहीं संग पाइल्स-मोटापा ले बचाही
हाय रे मोर चुनी के रोटी
* * *
सुशील भोले कवि के साथ जड़ी-बूटी एवं यहां के फलों के औषधीय गुणों से वाकिफ हैं। मौका मिलते ही वर्णन करते नहीं चूकते- देखिए भला :-
“रामफल…
“रामफल खून के दोषों को दूर करने वाला, कफ-वात का बढ़ाने वाला, जलनकारी, प्यास लगाने वाला, पित्त को कम करने वाला और संकोचक है। रामफल के फल का रस भारी तथा कीटाणु को मारने वाला है। अतिसार रोग तथा पेचिश के रोग में इसके रस को पिलाने से बहुत लाभ मिलता है। इसके फल को खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं। रामफल की जड़ को अपस्मार (मिर्गी) से पीड़ित व्यक्ति को सुंघाने पर रोगी के मिर्गी का दौरा पड़ना रुक जाता है। रामफल की छाल मे प्रभावशाली संकोचक (सिकुड़न वाले) पदार्थ होते हैं।”
“हमर भाजी-पाला ,अउ ओकर फायदा ” एक लम्बा आलेख में सुशील जी के औषधि-ज्ञान को देखा जा सकता है। जो कि पाठकों के लिए काफी ज्ञानवर्धक और उपयोगी है। यहां हम उनके बहु आयामी व्यक्तित्व की झलक देखते हैं।
सुशील भोले जी को अपनी माता जी से बड़ा लगाव और प्रेम था, उनकी माँ के प्रति जो भावना है ,निम्न पंक्तियों में देखिए भला:-
सुख-दुख म जे पल-पल रहिथे, नीत-अनीत घलो सहिथे
संग छोड़ जाथे छइहां तबले, वो स्वांसा कस धड़कत रहिथे
जिनगी ल पबरित कर देथे, जइसे गंगा के लहरा….
पिताजी के पास संपत्ति के नाम पे गांव में एक कच्चा मकान, खलिहान तथा करीब दो एकड़ की जमीन थी। लेकिन चार भाइयों के बीच हुए बंटवारा के पश्चात अब सुशील भोले जी के पास संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर स्थित एक छोटे मकान के अलावा कुछ खास संपत्ति नहीं है। सुशील भोले जी को अपने परिवार के भरण-पोषण एवं अर्थोपार्जन के लिए जीवन में कठिन संघर्ष करना पड़ा। घर की गरीबी की काली छाया का असर उनकी शिक्षा पर भी पड़ा। वे मात्र हायर सेकेंडरी तक की शिक्षा ले सके। इसके बाद उन्होंने आईटीआई में प्रशिक्षण प्राप्त की। फिर कई पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकार एवं सह-सम्पादक का कार्य करते हुए सन् 1988 से 2005 तक स्वयं का व्यवसाय- प्रिटिंग प्रेस संचालन, मासिक पत्रिका ‘मयारू माटी’ का प्रकाशन-संपादन एवं ऑडियो कैसेट रिकार्डिंग स्टूडियो का संचालन किया। उनके जीवन संघर्षों को उन्हीं की कविता से समझा जा सकता है-
फुटपाथ बनगे हवय हमर जिनगी के चिन्हारी
दिन भर कहूँ किंजरना परय रतिहा इहें निस्तारी
आंधी पानी कुछू आय चाहे उसनत राहय घाम
पेट-रोटी सब इहेंच भरथे इही हमर चारों धाम
एक दूसरी कविता में भी उनके संघर्ष एवं विश्वास को देखा जा सकता है कवि को आस है-
पांव छोलागे रद्दा रेंगत फेर डेहरी के छांव नहीं
बसगे सरी दुनिया कहिथें फेर हमर गांव नहीं
पुरवइया तो आथे-जाथे फेर ओकरो आस नहीं
बिच्छल हे माया-ठगनी इंकर तो बिसवास नहीं
बस पिरोहिल के डेरा म एको जगा मिल जातीस
तब मुक्ति के कोरा म जीव हमरो खिल जातीस
उनकी कविता में श्रम-सौन्दर्य का एक सुंदर भाव यहा देखिए:-
कभू जाड़ न घाम जनावय तोर अँचरा के छांव म
जरत मंझनिया कतको होय फोरा नइ परय पांव म
सुरूज नरायन तो बइठे तोर टुकना अस कोरा म
तब कइसे कोनो बीपत आही हमर हिस्सा के जोरा म
तीसरी कविता में श्रमजीवी किसान एवं मजदूर की अत्यधिक थकान के बाद जो चाहत होती है उसकी कविता में बानगी देखिए भला-
लाहकत हे भोंभरा अउ घाम, छइहां अब नीक लागय
अंगरा बन उसनत हे चाम, रतिहा अब नीक लागय….
* *
जुड़-जुड़ बोलथे अब चंदा-चंदैनी
मन होथे मिल लेतेंव लगाके निसैनी
देश का किसान, मजदूर शोषित है, लेकिन कब तक? कवि का तेवर देखिए –
चिटिक खेत अउ भर्री नहीं, हमला सफ्फो खार चाही
हमर हाथ हे जबड़ कमइया,धरती सरी चतवार चाही.
* *
ठाढ़ चिरागे दूनों पांव ह, जरत मंझनिया के सेती
हमर देंह ह होगे हे का, कइसे रे तोरेच पुरती
अब बेंवई परत ले साहन नहीं, हमला सुख-सत्कार चाही…
आज सत्ताधारी पार्टी आश्वासन और झूठे वादों से भोली जनता को बेकूफ़ बना रही है। झूठ को इतना ज्यादा प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है कि झूठ भी सच लगने लगे हैं। ऐसे समय में कवि का आक्रोशित होना स्वभाविक ही है-
सुन-सुन बोली कान पिरागे, आश्वासन के धार बोहागे
घुड़ुर-घाडऱ लबरा बादर कस, अब तो तोरो दिन सिरागे
हमला आंसू कस बूंद नहीं, अब महानदी कस धार चाही….
सुरसा जैसे बढ़ता हुआ कल-कारखानों का विस्तार एवं लोगों के निहित स्वार्थ के लिए जंगल को जलाये जाने की घटनाओं से कवि की पीड़ा को हम उनकी कविता में बेहतर रुप से समझ सकते हैं-
धरती दाई कलपत हावय झन उजारव रे कोरा
आगी ढिलहू जंगल म त तुंहरोच परही फोरा
देख मौसम के चाल बदलगे तुंहरे करनी आय
ठन ठन भुइयां म लहुटत हे सुग्घर धान कटोरा
छत्तीसगढ़ में उद्योगों की बाढ़ सी आ गई है। जिससे लगातार जल-स्तर नीचे गिरता जा रहा है जब लोगों के पास पीने तक के लिए पानी शेष नहीं रहेगा, तब क्या होगा? ऐसे में कवि का चिंतित हो जाना स्वाभाविक है-
छत्तीसगढ़ म 36 नंदिया फेर 36 गति हो जाथे
खेत-खार सुक्खा रहिथे कारखाना मजा उड़ाथे
जीना होही मुश्किल जब तक बनही अइसे नीति
कुआं-बावली-बोरिंग सबके मरे कस होही गति
सुशील भोले जी का मानना है कि, हमारी संस्कृति में परमात्मा के साथ साथ प्रकृति की पूजा की जाती है, हमारे यहां पेड़- पौधे, तालाब-नदी, जंगल-पहाड़, धरती-आकाश, सूरज-चाँद तक की पूजा की जाती है। यह बहुत अच्छी परम्परा है, इससे हमारे मन में प्रकृति के प्रति स्वयं का कर्तव्य-बोध तो जागृत होता ही है इससे प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण का भाव भी उपजता है, आखिर प्रकृति भी तो ईश्वर का ही रूप है। कुल मिलाकर देखा जाय तो हमें सुशील भोले जी एक सिध्द-पुरूष नजर आते हैं। वे सच्चे अर्थ में छत्तीसगढ़ी संस्कृति के रक्षक हैं। धर्म के लिए उनका नजरिया बिल्कुल अलग और आधुनिक है वे अपनी धार्मिक विचारधाराओं को सरल ढंग से सप्रमाण स्पष्टीकरण करते हुए आगे बढ़ते हैं ताकि पाठक के मन में भ्रम की स्थिति पैदा न हो।
” अन्ते ले आने वाला आज कइसे बइठे हें तुंहर छाती म
का बात म उन राज करत हवंय तुंहर मयारु माटी म
बस धरम के नांव सुनते लोगन भेंड़िया धसान बन जाथें
एकर आड़ म जम्मो पाखण्डी तुंहर अधिकार म जम जाथें
इसके निराकरण के लिए कवि का सुझाव है:-
तब काबर छोड़ देथव ए रद्दा ल तुम अनदेखा कर के
पद-पदवी संग आगू बढ़व धरम-ध्वजा ल खुद धर के
तभेच आही सुराज तुंहर अउ तभेच तो बनही बात
नइ चेतहू-गुनहू त जान लेवव जिनगी भर खाहू लात
किसी व्यक्ति का आध्यात्म की ओर अत्यधिक झुकाव का मतलब यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसका मन नीरस और शुष्क है उसका विरही मन भी कभी-कभी मिलन की चाहत कर बैठता है-
लाली परसा सहीं मोरो छाती दहकथे
अंग-अंग जनाथे जइसे मउहा महकथे
तैं तो जुड़वास के जोंग ल जमादे,
मिलन के संदेशा ले के…..
एक दूसरी जगह नायक के व्दारा नायिका से छेड़खानी का सुशील जी ने कितना सुंदर मनोहारी चित्र खींचा है देखिए भला-
आ जुड़ा ले थोर सुरता ले घन आमा के छांव
सरी मंझनिया रस्ता रेंगबे त चट ले जरही पांव
का बात के जल्दी हावय कोन अगोरत हे तोला
हांस-गोठिया ले हमरो संग नइ छूटय तोर गांव
सुशील भोले जी को अपने छत्तीसगढ़िया होने का बड़ा अभिमान है और हो भी क्यों न। उन्हें छत्तीसगढ़ की संस्कृति ,लोक-व्यवहार, तीज-त्योहार, एवं व्यजंनों का अपार ज्ञान प्राप्त है, छत्तीसगढ़ भाषा, संस्कृति के विकास एवं इतिहास के पक्षधर सुशील भोले जी के अप्रतिम योगदान को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह अभी बाकी है । जब कभी छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं लोक जीवन एवं इतिहास को समझना होगा, तो आने वाले शोधकर्ताओं के लिए उनके इन विषय पर लिखा लेख एवं सम्पादित पत्रिका मील के पत्थर साबित होंगे।
छत्तीसगढ़ी भाषा पर उनकी जबरदस्त पकड़ है, उनके एक-एक शब्द ठेठ देहाती जीवन को स्पर्श करने के कारण छत्तीसगढ़ी शब्दकोश के भण्डारण के कारक हैं। उनका छत्तीसगढ़ी साहित्य अत्यधिक समृद्ध और अप्रतिम है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के ज्ञात-अज्ञात साहित्यकारों को स्थापित करने के क्षेत्र में स्तुत्य कार्य किया है। उनके इस नेक कार्य को हमेशा याद किया जाता रहेगा।आजकल सुशील भोले जी छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण साहित्यकारों एवं विभूतियों पर “सुरता”शीर्षक से संस्मरणात्मक आलेख लिखने में व्यस्त हैं।
सुशील भोले अत्यंत भावुक ,सहज, सरल, सजग कवि हैं। उनकी संवेदनाएं किन्नर समाज के लिए भी है। किन्नर समाज की समस्या और उसके निराकरण के लिए सुशील जी तत्पर रहते हैं। उन्होंने हाल ही में कई किन्नर समुदाय से बातचीत की, और लम्बा सा लेख लिखकर लोगों को इनके प्रति सम्मान एवं अधिकारों की बात कही।
उनका मानना है कि “थर्ड जेंडर” को राष्ट्र एवं समाज की मुख्य धारा में जोड़े बगैर, मानव धर्म, समभाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इनके भीतर की प्रतिभा को जगाना होगा। शादी, गोद भराई, गृहप्रवेश जैसे अवसरों पर इनकी नुमाइश, ताली बजवाना बंद करना होगा। उच्च शिक्षा, नौकरी में इनका स्थान सुनिश्चित होना चाहिए।”
घर म रहिके घलो मैं बिरान होगेंव
कइसे बहिनी- भाई बर घलो आन होगेंव…
एके पेंड़ के डारा हम आन सबो झन
लइकई म होवय सबके एके कस जतन
फेर उमर के खसलते अनजान होगेंव….
अब जिनगी बनगे हे पीरा के खजाना
ककरो मिलथे गारी त कोनो देथे ताना
सबके गोठ के सुनई म हलाकान होगेंव…
न कोनो देवय रोजी न कोनो रोजगार
मोर जिनगी के डोंगा खड़े हे मंजधार।
उनकी संवेदनाएं जड़-चेतन तक में व्याप्त है। एक छोटी सी चिड़िया की भूख-प्यास, कवि को व्याकुल कर देती है-
घर के छत म थोरिक राखव दाना-पानी
चिरई-चिरगुन के बचा लेवव जिनगानी
बेरा के ताप संग सुरूज अंगरा गिराही
खोंची भर उदिम म उंकर अंतस जुड़ाही
सुशील भोले जी देश में पल रहे आतंकवाद, नक्सलवाद एवं धर्म के नाम कर हो रहे हिंसा से दुखी हैं-
माँ भारती तोर कोरा म कइसन उजबक हमागे हें
धरम-करम के ठउर म घलो बहुरूपिया गंजागे हें
कइसे चलही देस-राज लोकतंत्र लुलुवा हो जाही
कहूं लश्कर कहूं जेहादी कहूं नक्सली कहागे हें
वैसे तो सुशील भोले जी के नाम से मैं पिछले तीन दशक से परिचित हूँ। पहली बार उनसे सन् 1988 में मुलाकात हुई थी। दरअसल छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य प्रचार समिति के रायपुर के प्रदेश स्तरीय आयोजन में पं. मुकुटधर पांडेय जी को भी सम्मानित किया जाना था ,लेकिन स्वास्थ्य गत कारणों से पांडेय जी रायपुर नहीं आ सके थे, इसलिए समिति ने निर्णय लिया कि यह सम्मान उन्हें रायगढ़ जाकर दिया जाय। समिति के संयोजक जागेश्वर प्रसाद जी एवं अध्यक्ष डाँ. व्यास नारायण दुबे के साथ सुशील भोले जी भी रायगढ़ आये थे। सुशील भोले जी का सरल व्यवहार सभी को अपना बना लेता है, तब से आजतक सुशील भोले जी हमारे परिवार के सदस्य जैसे हो गए हैं। दूसरा अवसर था सन् 2018 में डॉ. सुखदेव राम साहू जी की संस्था समाज गौरव प्रकाशन द्वारा सर्वोच्च सम्मान “गुरु गोरखनाथ” अलंकरण के लिए हिंदी एवं छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ साहित्यकार डाँ. बलदेव जी को दिया गया था। पापा जी (डाँ. बलदेव) शारीरिक अस्वस्थता के कारण रायपुर नहीं जा सके थे। तब सुशील भोले जी वहां की साहित्यक मण्डली के साथ रायगढ़ आकर उनको यह सम्मान दिया थे। ‘गुरू गोरखनाथ अलंकरण’ के छहः महीने बाद पापा जी हम सबको छोड़कर चले गए। उनके निधन का समाचार सुनकर रायपुर से सुशील भोले जी के साथ जे.आर. सोनी, रसिक बिहारी अवधिया, लक्ष्मण मस्तुरिया एवं अन्य साहित्यकारों के साथ डभरा से रामनाथ साहू जी भी रायगढ़ आये थे। तब से सुशील भैय्या जी से मेरी बातचीत मोबाईल पर बराबर हुआ करती है। एक दिन फोन से पता चला वे 24 अक्टूबर 2018 को लकवा ग्रस्त हो गए हैं। उन्होंने दुखी मन से अपनी पीड़ा को कविता में लिखा:-
हाय रे हाय रे काया लोंदा होगे रे,
अहंकार के बुढ़ना झरगे, काया लोंदा होगे रे…
ज्ञान-गरब के चादर ओढ़े काया फूले रिहिस
कर्म-दोष अनदेखना बनके एती-वोती झूले रिहिस
हिरना कस मेछरावत सपना तब गोंदा-गोंदा होगे रे..
शरद के वो रात रहिस, अमरित बरसे के आस रहिस
भोलेनाथ के किरपा बर मोला तो बड़ बिसवास रहिस
फेर कोन कोती ले कारी छाया आइस कवि कोंदा होगे रे..
विपत्ति आने पर ही अपने और पराए का पता चलता है, जिन दोस्तों से हमें ज्यादा भरोसा होता है, जिनके लिए हम दिन-रात एक कर दिये रहते हैं, विपत्ति में उनकी बेरूखी अखरता तो है ही।
बीपत के बेरा होथे अपन-बिरान के पहचान
ठउका कहे हें हमर पुरखा अउ गुनिक-सुजान
जिंकर बर हम कभू रात-दिन एक कर देवन
नइ आरो ले आइन जेकर बर जी दे देवन
लकवा ग्रस्त होने के बावजूद वे पहले से ज्यादा सक्रिय होकर लिख रहे हैं, यह खुशी की बात है। वे जल्द स्वस्थ हों यह कामना मैं रोज करता हूँ। मुझे कुछ भी कठिनाई होती है तो मैं उनसे सलाह जरूर लेता हूँ और वे सहर्ष मेरा मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। लेखन के लिए भी समय-समय में मुझे प्रोत्साहित करते हैं। उनसे मोबाईल से अक्सर बातचीत होती रहती है, उनके साथ समय की कोई पाबंदी मेरे लिए नहीं है, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
सुशील भोले जी व्दारा संपादित छत्तीसगढ़ी की ऐतिहासिक मासिक पत्रिका “मयारू माटी” का छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य में योगदान अप्रतिम है। मैं उस समय उस पत्रिका का नियमित पाठक हुआ करता था। छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों को लेखन के लिए प्रेरित करने वाली इकलौती पत्रिका के सम्पादक होने के कारण हमें बरबस श्री महावीर प्रसाद व्दिवेदी का स्मरण हो आना स्वभाविक है। “मयारू माटी” के बंद होने के बाद “लोकाक्षर” (मासिक) का निकलना छत्तीसगढ़ी भाषा एवं साहित्यकारों के लिए किसी वरदान से कम न था ।छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री नन्द किशोर तिवारी जी ने छत्तीसगढ़ी में विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘लोकाक्षर” मासिक की शुरुआत की, जिसमें छत्तीसगढ़ी भाषा व्याकरण विषय को भी पहली बार ध्यान में रखा गया था। जिसमें छत्तीसगढ़ के नये-पुराने सभी लेखक कवियों को स्थान मिलता रहा।
सुशील भोले जी के आग्रह पर उनके पहले कविता संग्रह “छितका कुरिया” (काव्य संग्रह) की भूमिका पापा जी (डाँ. बलदेव) ने लिखा था। पापा जी के कहने पर पं. मुकुटधर पाण्डेय जी ने इस संग्रह के लिए छत्तीसगढ़ी में आशीर्वचन लिखा. उस समय श्रद्धेय पाण्डेय जी ने सुशील भोले जी से कहा था, कि मैं अपने जीवन में पहली बार किसी के लिए छत्तीसगढ़ी भाषा में आशीर्वचन लिखा हूँ… सुशील भोले जी की अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशित कृतियां है– दरस के साध (लंबी कविता), जिनगी के रंग (गीत एवं भजन संकलन), ढेंकी (कहानी संकलन), आखर अंजोर (छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति पर आधारित लेखों को संकलन), भोले के गोले (व्यंग्य संग्रह), सब ओखरे संतान (चारगोड़ियां मनके संकलन), सुरता के बादर (संस्मरण मन के संकलन) आदि प्रमुख हैं।
छत्तीसगढ़ में पारंपरिक छन्द बध्द कविता लिखना हो, या व्यंग्य या फिर समसमायिक आलेख इन्हें महारत हासिल है। विषय-विविधता देखकर आश्चर्य हो जाना पड़ता है कि एक इंसान के भीतर इतने रूप – गुण विरले ही मिलते हैं। इन्होंने कई दैनिक समाचार पत्रों में सह-सम्पादन का भी कार्य किया है जिसमें प्रमुख है
दैनिक अग्रदूत, दैनिक तरूण छत्तीसगढ, दैनिक अमृत संदेश, दैनिक छत्तीसगढ़ ‘इतवारी अखवार’, जय छत्तीसगढ़ अस्मिता (मासिक) शामिल है। कई पत्र-पत्रिकाओं में कालम लेखक के रूप में इन्होंने अपनी विशेष छाप छोड़ी है।जिसमें प्रमुख है- तरकश अउ तीर (दैनिक नवभास्कर सन-1990), आखर अंजोर (दैनिक तरूण छत्तीसगढ़ 2006-07), डहर चलती (दैनिक अमृत संदेश- 2009)’, गुड़ी के गोठ (साप्ताहिक इतवारी अखबार 2010 से 2015), बेंदरा बिनास (साप्ताहिक छत्तीसगढ़ सेवक 1988-89), किस्सा कलयुगी हनुमान के (मासिक मयारू माटी 1988-89)
छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग द्वारा सन 2010 में ‘भाषा सम्मान’ से सम्मानित किये गये ।
सुशील भोले जी को सन् 2019 में छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति रायपुर के व्दारा डाँ बलदेव सम्मान (प्रथम) दिया गया था, जो कि इनके और मेरे लिए भी गर्व का विषय है। सन् 2019 – 2020 में उन्हें “शिवनाथ स्वाभिमान सम्मान”से नवाजा गया। इसके अलावा अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों द्वारा समय समय पर सम्मानित होते रहे हैं।
कुल मिलाकर सुशील जी की कविताओं में प्रतिशोध, प्रतिकार, प्रतिक्रिया के साथ साथ एक विनम्र संदेश है, धर्म , परम्परा , संस्कृति की रक्षा के लिए कवि सुशील जी कटिबद्ध हैं। उनका आक्रोश सत्ता से भी है। सुशील भोले जी एक जुझारू, साहसी, विद्रोही होने के साथ साथ अत्यंत संवेदनशील, भावुक कवि है। सुशील भोले जी स्पष्टवादी इतने हैं कि लार-लपेट बिल्कुल पसंद नहीं करते। सुशील जी छत्तीसगढ़ी भाषा के अधिकारिक विव्दान हैं, ठेठ छत्तीसगढ़ी शब्दों का उपयोग कब कहां करना है वे भलीभांति परिचित हैं। शब्द के सटीक प्रयोग उनकी भाषा में रवानीयत पैदा करती है।
आज उन्हें 60 वें बसंत की हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं देते हुए मैं स्वयं हर्षित महसूस कर रहा हूँ, क्योंकि वे भी मेरे बड़े भैय्या जैसे हैं । उनका मुझ पर अपार स्नेह है। ईश्वर से प्रार्थना है कि सुशील भैय्या जी हमेशा स्वस्थ रहें, सृजनरत रहें, दीघार्यु होकर छत्तीसगढ़ी साहित्य के भण्डार में श्रीवृद्धि करते रहें।
बसन्त राघव
पंचवटी नगर, बोईरदादर, रायगढ़
छत्तीसगढ़, मो.नं.8319939396