पिता मौन ही रहे
माँ के दुनिया से जाने के बाद सीमा होली के त्योहार पर पग फेरा करने आई थी। वैसे तो वह अपने बचपन वाले घर में आई थी लेकिन माँ को न पाकर वह ममतालू यादों से आँखें भरे एक कोने में चुपचाप बैठी थी।
जिस शाम सीमा आई थी उसी रात उसका भाई अपने परिवार के साथ घर पहुँचा था। उस दिन मिलते-जुलते, समय काफी बीत चुका था इसलिए सभी खा-पीकर यथास्थान सो गए। सीमा खोए-खोए मन से खिड़की की झिर्री से झाँकते बल्ब को देर रात तक तकती रही थी।
भोर होते ही उसका भाई पिता के लिए लाए गए उपहारों का थैला उठा लाया। जितनी चीज़ें वह उन्हें दिखाता जा रहा था उतनी ही उन वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों का बखान भी करता जा रहा था। बेटा थोड़ा चहक रहा था लेकिन पिता उस पर बलिहारे जा रहे थे। थोड़ी दूर पर चाय का प्याला पकड़े सीमा भी उन आह्लादित चेहरों को देखे जा रही थी।
“सीमा तुम भी आकर देखो न! वहाँ इतनी दूर क्यों बैठी हो?”
पिता ने जब तक बेटी का ध्यान अपनी ओर खींचा तब तक बेटे ने फर वाले खरगोश की तरह मुलायम जूते उनके हाथ में पकड़ा दिए। उनको देखते हुए वे बोल पड़े।
“निखिल, सीमा के लिए कुछ लाए हो?”
पिता ने जबानी जमा खर्च कर सीमा का दिल जीतने की कोशिश की लेकिन बेटा एक हर्फ न बोल सका।
“कुछ लाए हो तो दिखाओ न सीमा को ?” पिता ने फिर निखिल से कहा।
इसके पहले भाई बोलता सीमा ही बोल पड़ी।
“मुझे उपहारों की जरूरत नहीं है पिताजी।अभी हाल ही में मुझे एक विषय में निखिल की एडवाइज की जरूरत थी। वह भी निखिल दे न सका। ये तो मुझे भी मालूम है कि सूखा कुआँ पत्तों से नहीं भरता और किसी अपनी बात खत्म भी नहीं कर पाई थी कि उसका भाई पंजों पर आ गया। तेज़-तेज़ चीखने लगा। पिता किनारे खिसक गये और बिखरे हुए सामान को पैकटों में भरने लगे।
भाई लगातार बोलता जा था।
“अरे राम राम! तुम्हें शर्म तक नहीं आई इतना झूठा आरोप लगाने में! क्या नहीं किया है तुम्हारे लिए मैंने ?”
अक्थू-अक्थू-अक्थू करते हुए वह सीमा की ओर थूक उछालने लगा। उसके भाई ने थू थूथू की झड़ी लगा दी मानो वह थूक से सीमा को सराबोर कर देना चाहता था।
सीमा अपने कहे को सत्यापित करना चाहती थी। किंतु उसके भाई ने उसको बोलने का मौका ही नहीं दिया। परेशान होकर उसने अपने पिता की ओर देखते हुए बस इतना ही कहा ।
“आप रोकेंगे नहीं निखिल को?”
“तुम क्या चाहती हो कि तुम मुँह चलाती जाओ और हम निखिल को घर से निकाल दें?”
“ऐसा मैं सोच भी कैसे सकतीहूँ…।”
भाई का थूक आँचल में समेटे सीमा अपना बैग लगाने लगी। पिता तब भी मौन ही रहे।
कल्पना मनोरमा
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