November 22, 2024

आज शहादत दिवस पर- एक थे शहीद पीर अली खान

0

ध्रुव गुप्त

देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के नायकों में सिर्फ राजे, नवाब और सामंत नहीं थे जिनके सामने अपने छोटे-बड़े राज्यों और जमींदारियों को अंग्रेजों से बचाने की चुनौती थी। उस दौर में अनगिनत योद्धा ऐसे भी रहे थे जिनके पास न तो कोई रियासत थी, न कोई संपति। उनके आत्म बलिदान के पीछे देश के लिए मर मिटने के जज्बे के सिवा और कुछ नहीं था। पीर अली खां 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही कुछ योद्धाओं में एक थे जिनके बलिदान को देश ने विस्मृत कर दिया है। 1820 में आजमगढ़ के गांव मुहम्मदपुर में जन्मे पीर अली किशोरावस्था में घर से भागकर पटना आ गए थे जहां के एक नवाब मीर अब्दुल्लाह ने उनकी परवरिश की। आजीविका के लिए उन्होंने मीर साहब की मदद से किताबों की एक छोटी-सी दुकान खोल ली। कुछ क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद उनकी दुकान धीरे-धीरे प्रदेश के क्रांतिकारियों के अड्डे में तब्दील होती चली गई जहां देश भर से क्रांतिकारी साहित्य मंगाकर पढ़ी और बेचीं जाती थी। पीर अली ने देश की आज़ादी को अपने जीवन का मकसद बना लिया। उन्होंने बिहार के कई शहरों में घूमकर क्रांति का जज्बा रखने वाले युवाओं को संगठित और प्रशिक्षित किया।

वह दिन भी आया जिसके लिए आजादी के वे दीवाने अरसे से तैयारी कर रहे थे। 3 जुलाई, 1857 को पीर अली के घर पर दो सौ से ज्यादा हथियारबंद युवा एकत्र हुए। पीर अली की अगुवाई में कई टुकड़ों में बंटकर उन्होंने पटना के गुलज़ार बाग स्थित अंग्रेजों के उस प्रशासनिक भवन को घेर लिया जहां से प्रदेश की क्रांतिकारी गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी। वहां तैनात अंग्रेज अफसर डॉ. लॉयल ने क्रांतिकारियों की भीड़ पर गोली चलवा दी। अंग्रेजों की फायरिंग का जवाब क्रांतिकारियों की टोली ने भी दिया। दोतरफा गोलीबारी में डॉ. लॉयल और कुछ सिपाहियों के अलावा कई क्रांतिकारी युवा मौके पर शहीद हुए। कई घायल होकर अस्पताल पहुंच गए। पीर अली चौतरफा फायरिंग के बीच अपने कुछ साथियों के साथ वहां से बच निकलने में सफल रहे।

इस हमले के बाद अंग्रेज पुलिस का दमन-चक्र चला। संदेह के आधार पर सैकड़ों निर्दोष लोगों, खासकर मुसलमानो की गिरफ्तारियां की गईं। उनके घर तोड़े गए। कुछ को झूठा मुठभेड़ दिखाकर गोली मार दी गई। अंततः 5 जुलाई, 1857 को पीर अली और उनके चौदह साथियों को बग़ावत के जुर्म मे गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के बाद यातनाओं के बीच पीर अली को पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने प्रलोभन दिया कि अगर वे देश भर के अपने क्रांतिकारी साथियों के नाम बता दें तो उनकी जान बख्शी जा सकती है। पीर अली ने प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा–‘जिंदगी में कई ऐसे मौक़े आते हैं जब जान बचाना ज़रूरी होता है। कई ऐसे मौक़े भी आते हैं जब जान देना जरूरी हो जाता है। यह वक़्त जान देने का है।’ हुकूमत ने दिखावे के ट्रायल के बाद 7 जुलाई, 1857 को पीर अली को उनके साथियों के साथ बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया। फांसी के फंदे पर झूलने के पहले पीर अली के आखिरी शब्द थे –तुम हमें फांसी पर लटका सकते हो, लेकिन हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मरूंगा तो मेरे खून से लाखों बहादुर पैदा होंगे जो एक दिन तुम्हारे ज़ुल्म का खात्मा कर देंगे।

देश की आजादी के लिए प्राण का उत्सर्ग करने वाले पीर अली खां इतिहास के पन्नों से आज अनुपस्थित हैं। इतिहास लिखने वालों के अपने पूर्वग्रह होते हैं। हां, उनके नाम पर पटना में एक मोहल्ला पीरबहोर आबाद है। कुछ साल पूर्व बिहार सरकार ने उनकी सुध ली। उनके नाम पर गांधी मैदान के पास एक छोटा-सा पार्क बनवाया, शहर को हवाई अड्डे से जोड़ने वाली एक प्रमुख सड़क को ‘पीर अली खां रोड’ नाम दिया और 7 जुलाई को उनके शहादत दिवस पर समारोहों के आयोजन का सिलसिला शुरू कराया। दुख यह देखकर होता है कि देश और बिहार तो क्या, पटना के लोगों को पीर अली के बारे में कम ही पता है!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *