इन दिनों मैं
इन दिनों मैं-
जुगनू हो गया हूं
ढूंढ़ता फिरता हूं
उम्मीदों के दीप
जो रोशन कर सकें
तुम्हारी नाउम्मीदियों को।
इन दिनों मैं-
रात गहराते ही
टिमटिमाने लगता हूं
निगलता हूं अंधेरे को
और तुम्हारी खिड़की पर
टांग देता हूं नारंगी सूरज
ताकि वह बिखेर दे रश्मियां
तुम्हारे चेहरे पर,
फिर कभी खत्म न हो
चमकीली मुस्कान।
इन दिनों मैं
करता हूं इंतजार
रात ढल जाने का
इस उम्मीद में कि
अपने आसमान में
लगाओगी सीढ़ियां और
चली आओगी तुम
चांद पर बैठ कर
स्वप्न सुंदरी की तरह।
इन दिनों मैंने
संभाल कर रखा है
चटख पीला रंग
तुम्हारे पंख के लिए
ताकि तुम उड़ो
तो सोख लो
दुखी जनों की उदासियां।
इन दिनों मैं
देखता हूं कि
तितली हो गई हो तुम
और बटोर रही हो मधु-रस
मेरी कविताओं से,
गुनगुना रही हो
फूलों के बीच कोई प्रेम गीत।
एक दिन मैं
किसी कहानी में मिलूंगा
तुमसे नायक की तरह,
फिर जुगनू सा चमकूंगा
तुम्हारी भूरी आंखों में।
इन दिनों
सोचता हूं कि
मैं और तुम
हम हो जाएं,
एक हो जाए पूरी दुनिया
पेड़, नदियां-समंदर और
पहाड़ों को बचाने के लिए,
धरती का वह कोना भी
सलामत रहे जहां
युगल कर सकें प्यार।
इन दिनों मैं
इसीलिए चुरा रहा हूं
काला रंग ताकि
लंबी न हों तुम्हारी रातें।
अपनी पलकों पर
सूरज और चांद लेकर
एक नई सुबह
मुझसे मिलना तुम,
धरती की छाती पर
उकेरना सभ्यता की नई तस्वीर,
कानों में गुनगना देना
कोई अनूठा प्रेम गीत।
– संजय स्वतंत्र
27 अप्रैल. 2021