विजय बहादुर सिंह की पुस्तक,’जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद’पर चर्चा।
पिछले तीस जून को मुक्तिबोध साहित्यिक मंच, इलाहाबाद ने वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह की अभी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक, जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद’ पर प्रो.राधावल्लभ त्रिपाठी की अध्यक्षता में एक गम्भीर परिचर्चा का आयोजन किया। इस परिचर्चा में प्रो. सदानंद शाही, प्रो. रोहिणी अग्रवाल, प्रो. ओमप्रकाश सिंह, डॉ विनोद शाही और डॉ दिनेश कुमार ने भाग लिया।परिचर्चा का संयोजन और संचालन डॉ सूर्यनारायण ने किया।
परिचर्चा की शुरुआत करते हुए युवा आलोचक डॉ दिनेश कुमार ने कहा कि यह पुस्तक प्रसाद को बिल्कुल नए ढंग से हमारे सामने लाती है।विश्वविद्यालयों में अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने के बावजूद हिंदी आलोचना में उन्हें वह महत्ता और प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वे हकदार थे।निराला को रामविलास शर्मा तो मिले ही, पूरी की पूरी प्रगतिशील आलोचना भी उनके साथ डट कर खड़ी रही।प्रसाद को कोई न मिला। जो मिला उसने प्रसाद का भला कम नुकसान ही अधिक किया।यह देखना सुखद है कि देर से ही सही, प्रसाद को विजय बहादुर सिंह मिल गए।इस पुस्तक में उन्होंने प्रसाद को एक तरह से री-डिस्कवर किया है।समय का चक्र कितना विचित्र है कि जिस प्रसाद को कभी अतीतोन्मुखी कहा गया, उनकी सांस्कृतिक दृष्टि को प्रश्नांकित किया गया, आज वहीं प्रसाद संस्कृति की साम्प्रदायिक व्याख्या का मजबूत प्रतिपक्ष नजर आ रहे हैं।प्रसाद की इतिहास दृष्टि कितनी सेकुलर है, यह इस पुस्तक से जाना जा सकता है। यह अकारण नहीं है कि साम्प्रदायिक सोच वाले लोग निराला का तो इस्तेमाल कर लेते हैं लेकिन प्रसाद का नहीं।निश्चय ही प्रसाद पर फिर से विचार करने की जरूरत है। विजय बहादुर जी ने इस पुस्तक के माध्यम से एक बड़ी पहल कर दी है।
प्रो. सदानंद शाही ने कहा कि यह पुस्तक प्रसाद को नए सिरे से पढ़ने और उनके महत्व पर सोचने की प्रेरणा देती है।प्रसाद अतीत का आवाहन करके भविष्य के भारत का स्वप्न देखते हैं।उनका राष्ट्रवाद समावेशी है और वह मैथिलीशरण गुप्त की भारत- भारती की सीमाओं और संकीर्णताओं से अलग उदात्त और मानवीय है। पुस्तक की खास बात यह है कि यहां प्रसाद को ऊंचा उठाने के लिए किसी को नीचे गिरने की हिंदी आलोचना की परिचित शैली से बचा गया है।
प्रो. रोहिणी अग्रवाल ने पुस्तक को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि
आज अस्मिता के सवाल को जिस तरह उठाया,पहचाना और प्रचारित किया जा रहा है यह किताब उसका प्रतिपक्ष बनकर हमें उपनिषदों की ओर ले जाती है जिसमें वृहदारण्यक उपनिषद की भूमिका केन्द्रीय है।पश्चिम के इलियट जैसे कवि भी कभी उपनिषद की ओर गये थे। वे इस किताब के महत्व को स्वीकारते हुए कहती हैं कि
यह पुस्तक हमारी आज की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
उन्होंने आलोचक के बुनियादी धर्म को रेखांकित करते हुए यह भी कहा कि यहाँ आलोचक ने मूलकृति में अंत:प्रवेश कर अपने उस धर्म का निर्वाह भी बखूबी किया है।उसकी ईमानदारी और साफगोई भी प्रशंसनीय है।
प्रसाद की लंबी कविताओं की व्याख्याओं को लेकर उन्होंने कहा कि इससे कई ऐतिहासिक गुत्थियां सुलझती हैं।
भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू के चेयरपर्सन प्रो. ओमप्रकाश सिंह ने पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए कहा कि पुस्तक छपते ही चर्चा के केन्द्र में आ गयी। जाहिर है उसमें उठाये गए प्रश्न छायावाद के आधार स्तंभ रचनाकारों की कृतियों पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करते हैं।यह पुस्तक चार उपखंडों और 19 आलेखों में बंधी है। हर आलेख एक नए बिंदु की तलाश करता हुआ और तर्कपूर्ण प्रमाणों से लैस है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि।प्रसाद जी के लेखन में जातीय अस्मिता की चर्चा करनी है तो हमें उनके समकालीन दूसरे रचनाकारों की रचनाओं पर भी ध्यान देना होगा और यह देखना होगा कि वहां क्या है।धान कूटेंगे तो कांख खुलेगी ही। जनाब, और कुछ हो या न हो, उस काल में लिखी गयी लंबी कविताओं पर ही बात हो जाये। उस समय का गद्य साहित्य भी इस कार्य के लिए उपयोगी होगा। बात तो लंबी हो सकती है,पर अपनी जिम्मेदारी विजयबहादुर जी को सौंपकर निश्चिंत हुआ जा सकता है। उनकी निगाह में भी ये प्रश्न हैं, पर संकोच है।मैं तो यहीं कहूंगा की शल्यक्रिया के दौरान भावुकता बाधक होती है। इन सब मुद्दों को समेटते हुए उनकी अगली पुस्तक का इंतज़ार रहेगा।
वरिष्ठ आलोचक विनोद शाही ने पुस्तक पर अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि विजय बहादुर सिंह की यह किताब विविध जातीय अस्मिताओं के आभार वाले मौजूदा दौर में, जयशंकर प्रसाद के प्रासंगिक पुनर्पाठ के लिए जमीन तैयार करती है। पुस्तक हमारे समय की चुनौतियों के बरक्स हमें जातीय एवं राष्ट्रीय चेतना के धरातल पर प्रकट हुई, विविध अस्मिताओं की कश्मकश से बाहर निकालने के लिए, अपने जातीय स्वरूप में लौटने की दिशा दिखती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह किताब ऐसे समय में आई है जब इसकी बेहद जरूरत थी।
उन्होंने कहा कि यह किताब जयशंकर प्रसाद को भारत के वास्तविक स्वरूप की याद दिलाने के लिए हमारे सामने नए अर्थ में लाती है। वे लोग जो भारत की जातीय अस्मिता की पहचान वैष्णव भाव-भूमि के माध्यम से करते रहे हैं, उन्हें प्रसाद की भाषा में अपने स्वरूप को भूल जाने वाले लोगों की कतार में रख दिया गया है। इनमें रामचंद्र शुक्ल जैसे बड़े आलोचक भी आ जाते हैं। ऐसा करके यह किताब न केवल भारत के पुनर्जागरण को एक नए अर्थ में खोजने की ओर ले जाती है बल्कि हिंदी साहित्य के पूरे इतिहास की बाबत हमारी समाज को चुनौती देने के रास्ते भी खुलती है। भारत के वास्तविक स्वरूप की पहचान कराने वालों की इस कतार में प्रसाद के साथ रवींद्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी विवेकानंद और आनंद कुमारास्वामी जैसे लोग खड़े दिखाई देते हैं। और इस तरह वह सीधे भारतीय नवजागरण के सरोकारों के साथ संवाद रचाते है।
उन्होंने आगे कहा कि यह किताब अंततः हमें इस निष्कर्ष पर ले जाती है कि अपने बाकी तमाम समकालीन रचनाकारों की तुलना में प्रसाद अचानक कितने अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। इस बात को अब हमें देर सवेर समझना ही होगा। यह किताब साहित्य और समाज के प्रश्न को ही नहीं, दर्शन के प्रश्नों को भी हमारे सामने बेबाकी से उठाती है। आज हम वैष्णव भक्तिवाद की गिरफ्त में दिखाई देते हैं। दलित विमर्श से जुड़े कुछ लोग बौद्ध दर्शन के मैं वापसी की बात भी कर रहे हैं। इन विकल्पों को एक ओर रखते हुए यह किताब भारत के आत्म त्याग और पुरुषार्थ वाले वैदिक दर्शन में वापसी की ओर ले जाती है। विजय बहादुर सिंह इस दार्शनिक आधारभूत दर्शन से हमारे संबंध के फिर से जुड़ने की संभावना का पुनर्विवेचन करते हैं। उनका आग्रह है कि इस संबंध में हमें सरलीकरण से बचना चाहिए। ऐसा करने से ही प्रसाद हमें भारत के बुनियादी जातीय स्वरूप में वापसी करने में मददगार हो सकेंगे।
परिचर्चा के अंत मे अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने कहा किविजय बहादुर सिंह की इस किताब का छपना साहित्य जगत् की एक बडी घटना है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के बाद प्रसाद पर एकतरह से यह दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है। दरअसल, प्रसाद एक विराट् प्रतिभा के कवि हैं, और उनकी सही सही पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है। प्रसाद को सही मायने में पहचनाने का एक सिलसिला इस किताब से शुरू होगा। प्रसाद का पुनराविष्कार हमारे लिये विजयबहादुर जी ने किया है, उन्होने प्रसाद को हमारे सम्पूर्ण सांस्कृतिक और साहित्यिक विमर्श के केन्द्र में ला दिया है। उनके इस प्रयास से प्रसाद इक्कीसवीं सदी के साहिेत्य विमर्श के केंद्र में आ गये हैं। हिन्दी समीक्षा का दारिद्र्य भी इससे कुछ हद तक दूर किया जा सकेगा, प्रसाद के विमर्श के बहाने हम अपनी समीक्षा के भोथरे हो रहे औजारों को कुछ कारगर बना सकेंगे।
उन्होंने कहा कि आज समाजशास्त्रियों के बीच वि-औपनिवेशिकरण की बड़ी चर्चा है। प्रसाद बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जो काम कर रहे हैं वह वि-उपनिवेशीकृत मानस का कार्य है। वास्तव में १९७८ में एडवर्ड सईद अपनी किताब औरिएण्टलिज़्म के द्वारा जो सवाल उठा रहे हैं, उन्हें प्रसाद १९३३-३४ में बखूबी उठा चुके हैं। विजय बहादुर जी ठीक कहते हैं कि औपनिवेशिकता से प्रसाद की ल़ड़ाई अधिक बुनियादी और गहरी है।
प्रो. त्रिपाठी ने यह भी रेखांकित किया कि प्रसाद अपनी कविता तथा अपने जीवनानुभव में पर्यावरण और मनुष्य के अन्तःसंबंध की समझ उजागर करते हैं, वे भीतर और बाहर की अन्तरंगता को परखते हैं। विजयबहादुर जी ने प्रसाद के द्वारा औपनिषदिक दर्शन से ली गई भूमा की अवधारणा को रेखांकित कर के उनकी इस समझ को हमारे सामने रखा है, वह आज बहुत ज़रूरी हो गई है। इस किताब के आने के बाद हमारे बीच प्रसाद की उपस्थिति एक आलोक स्तम्भ की तरह काम करेगी।