जादू (लघु-कथा)
गाँधी चौक पर जहाँ चारों ओर आने वाली सड़कों की सलीब टंग जाती है और फिर शहर का नक्शा कई दुनियाओं में बँट जाता है।ठीक बायीं तरफ की खाली जमीन के एक टुकड़े में एक जादूगर काला चोंगा पहने मजमा लगाए हुए था। मैं ठिठक गया। वर्षों का यह अनुभव था कि शहर के इस कोने में कोई न कोई मजमाबाज दुनिया को अपने अपनी अलौकिक चीजों से काबू में कर अपना मकसद साध लेता था। कभी हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटी बेचने वाला, तो कभी मूँगा-पत्थर बेचने वाला, तो कभी तोता लेकर भाग्य उचारने वाला! कभी कलकत्ता का काला जादूगर, तो कभी बम्बई का… बनारस का, आज दिल्ली की बारी थी शायद!
वह गले में एक बड़ा ढोल लगाए चिल्ला रहा था, ” आइए,आइए मेहर बान..कद्रदान.. दिल्ली का जादू देखिए…डिम!डिम! डिम!
भीड़ जब जमा हो गयी, तो रेल-पेल होने लगी!
चूनांचे जब लोगों की बेसब्री बढ़ने लगी, तो दिल्ली के जादूगर का गिर्दा तेज हो गया। वह दिल्ली का हो न हो, पर दिल्ली का जादू तो पूरे मुल्क के सिर चढ़ कर बोलता है। दिल्ली बहुरुपियों , जादूगरों और ठग नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का अड्डा नहीं तो क्या है… लोगों को बेवकूफ बनाना और अपना मतलब साधना उसका काम है। दिल्ली पर सचमुच ऐसे ही लोगों का कब्जा है… वहाँ बस में टिकट काटने वाला परिवहन मंत्री तो कोयला बेचने वाला कोयला मंत्री हो जाता है,..तो काठ की कुर्सी बनाने वाला रेंग कर कुर्सी तक पहुँच जाता है, यह तो फिर भी मँजा हुआ जादूगर था!
मैं यह सब सोच ही रहा था कि जादूगर चिल्लाया,” जादू क्या है?” मैं चौंका, एक दुबला-पतला मि. इण्डिया टाइप लड़के ने जवाब में जोर से कहा,” शक्ति है..”
“शक्ति क्या है?”
“सिद्धि है।” लड़के के साथ भीड़ ने भी दुहराया।
” सिद्धि क्या है?
” जीवन है।”
” जीवन क्या है?”
भीड़ में से किसी ने कहा,” नाटक है, नटबाजी है।”
सभी हँस पड़े लेकिन जादूगर अपनी रौ मे रहा। उसने हवा में हाथ लहराया, तो रंग-बिरंगे रुमाल गिरने लगे, मुझे लगा लालकिला की सबसे ऊँची बुर्जी से फूलों की वर्षा हो रही है। तमाशबीन विस्मय से खुशहे रहे हैं इस इनायत पर, जैसे आश्वासन की गुलाबी पंखुड़ियाँ पैसे की शक्ल में गिर रही हों।
मैंने जेब टटोली,पैसे आए कि नहीं अठन्नी टकरायी। मन हुआ फेंक कर चलता बनूँ, पर तभी आवाज आयी…
” जिन्दा लड़का टुकड़ा-टुकड़ा…”
” यह तो माॅबलीचिंग है भाई। ” किसी ने कहा।
मैं चौंका,माॅबलीचिंग?मेरी आँखों मे कई धुँधले दृश्य तैर गए। यह इस सदी का अनोखा शब्द है, जहाँ बहुत से लोग आदमी को घेर कर जानवर की तरह मारते हैं, ….पर वह अकेले हवा में छुरा लहरा रहा था, मुझे लगा माॅबलीचिंग इसी तरह की एक अकेली सोच से पैदा हुई घटना है,जो समूह के बीच घटती है, तो सामूहिक घटना लगती है… उसने एक पल में लड़के के तीन टुकड़े कर दिए। खून से उसके हाथ सन गए। इस खेल के समेटने के बाद उसने चिल्ला कर कहा,” बन्द बक्से से कबूतर गायब।”
“देखा है भाई, बहुत पुराना खेल है.. तीन पाँच का खेल।”
भीड़ उखड़ने लगी ।मुझे लगा, उससे गलती हो गयी , लड़का वाला खेल उसे बाद में दिखाना चाहिए था..
जादूगर बौखलाया। उसका जादू ढीला पर रहा था, तभी वह गरजा,” नमबर चार । इधर का माल उधर।”
” यह तो यहाँ भी खूब होता है उस्ताद!” भीड़ फिर हँस पड़ी।
जादूगर अब लाचार हो रहा था, वह चिल्लाया,” लड़का को अब लड़की बनाया जाएगा। जो हिम्मत आजमाए, आए आगे।”
भीड़ अपने आप खलबला कर नपुंसक बन गयी। एक लड़का दिल्ली के जादूगर की चुनौती पर आगे आया।जादूगर ने मशान घुमाया, बस वह लड़की बन गया। मुझे लगा यही इस जादूगर की असली ताकत है। दिल्ली के सामने बड़े-बड़े का मर्दानापन झड़ जाता है। लड़का अब जादूगर की चिरौरी कर रहा था। भीड़ अश्लील मज़ाक कर रही थी।
जादूगर का जलवा लौट आया था। चिड़िया जैसे फड़फड़ाने के बाद डैने गिरा देती है, भीड़ उसकी मुट्ठी में थी। वह चीखा,” छोड़ दिया जाए कि मार दिया जाए?”
” छोड़ दिया जाए। ” डर कर भीड़ ने कहा।
लड़के को लड़की से लड़का बना कर उसने कहा, जादू से जोर नहीं, जोश नहीं। फिर उसने ताबीज वाला बंडल खोल दिया।
बिक्री शुरु हो गयी । मुझे लगा खेल का मकसद पूरा हुआ, तभी वह फिर चिल्लाया ,” जादू है दिल्ली का…अब आखिरी नम्बर… बिना डंडा का… हवा में लटकेगा लड़का …” जाहिर था जादूगर ! बहुत बडा जादूगर था। खेल से अधिक वह खेल का ढोल पीटता था। सम्मोहन का जाल -माल फैलाकर वह तमाशबीन को मन माफिक नचा रहा था…
” क्या?” भीड़ के साथ इस बार मुझे भी लगा कि कुछ अजीब होने वाला है। वह ढोल पीटते हुए गोल-गोल चक्कर मारने लगा। बाँस की खपच्ची पर मि.इण्डिया को उठा लिया फिर बीच में आकर डंडा खींच लिया । लड़का हवा में झूलने लगा। पैसे की बारिश होने लगी।
इसमें आपको अचरज नहीं होना चाहिए, जब देश सम्मोहन विद्या से चल रहा, तो जादू का क्या….वह तो है ही आँखों में धूल झोंकने वाला खेल।
मैं भी अठन्नी फेंक कर वापस चल पड़ा इस कड़ुए अहसास के साथ कि भले ही लड़का नीचे जमीन पर लौट आया हो, पर मुल्क तो सचमुच हवा में लटका हुआ है।आज भी गाँधी चौक से जब गुजरता हूँ, वहाँ कोई न कोई करतब चल रहा होता है, पर जाने क्यों मुझे लगता है कोई लड़का नहीं, हमारा मुल्क वहाँ हवा में उसी तरह लटका हुआ है ।आँखें ठहर जाती हैं और पैर अटक जाते हैं।
संजय कुमार सिंह,
प्रिंसिपल पूर्णिय महिला काॅलेज पूर्णिया854301
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
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