November 22, 2024

भूल चुके हैं अपने पुरखों की याद

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समय के सबसे भ्रष्ट और कलंकित चेहरे
कर रहे हैं सभ्यता का मार्गदर्शन
उन्हीं के हाथों में हैं वे रोशनियाँ
जिनकी चकाचौंध में
देखना तो दूर सोचना तक भूल गए हैं हम

कुछ और भी हैं
जिनके होठों पर सम्हल नहीं पा रही है भाषा
हाथ हवा में और पाँव जमीन से कुछ ऊपर हैं

गूँगे दार्शनिक सा अकबकाया
भूला भटका है समय
नदियाँ ठहरी सी हुई हैं
पहाड़ खो चुके हैं अपनी स्मृतियाँ
खोया खोया सा है समुद्र

सदियों की गुलामियों में पले पुसे लोग
भूल चुके हैं
आजाद आदमी का वजूद——

भूल चुके हैं अपने पुरखों की याद।
विजय बहादुर सिंह

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