मेरी खिड़की के पार
एक शहतूत का पेड़ है
जिसकी शाखें ढँकने लगी हैं
खिड़की का द्वार
कभी-कभी सोचती हूँ
शाख़ें क्यों नहीं लिपट जातीं
खिड़की में लगे लोहे से
चौकोर जंग लगे
भूरे लोहों वाली जाली
जिससे छनकर आती है
धूप धूल और कभी-कभी धुआँ
कुत्तों की आवाज़ें
हवाई जहाज़ों का गुजरना
कुछ लड़के-लड़कियों की
खिलखिलाहट और बातें
कभी-कभी रद्दीवाले की आवाज़
मशाल जुलूस के लोगों का
मिश्रित कोलाहल
कभी यूँ ही खिड़की में
आ बैठती है एक काली बिल्ली
जिसकी कंचे जैसी कंजी आँखें
दिखती हैं जुगनुओं की मानिंद।
मैं सोचती हूँ
क्यों नहीं होती कभी
लोहे और पेड़ की जंग
दोनों समझौता किए बैठे हैं
एक दूसरे की सीमा न लाँघने का
आने लायक सब आता है
खिड़की के भीतर
बस नहीं आती तो कोई तितली
गिलहरी या गौरैया
नहीं आते कभी कबूतर के जोड़े
किसी फूल की महक।
लोहे की जाली
विचारों की तरह मजबूत है
गल जाएगी पर टूटेगी नहीं
शाख़ें मस्तमौला हैं
जहाँ मिलेगा खुला आसमान
थोड़ी सी हवा पानी और धूप
उधर निकलकर फैल जाएँगी
देंगी छाया और मनभर हवा
लचक जाएँगी जब फल आएँगे
झुक जाएँगी तूफानों में
टूट जाने पर पुनः उग जाएँगी
हरी-भरी होकर फिर लहराएँगी,
खिड़की की अपनी सीमा है
वह षड्यंत्र में मारी जाएगी
या भेद दी जाएगी
या गलाकर बना दी जाएगी
जंजीर, खुरपी या हँसुआ
लोहे और लोहू का सम्बंध
अटूट बना रहेगा
@हर्षिता_द्विवेदी