November 22, 2024

विशिष्टताबोध का कीड़ा

0

अर्ध रात्रि का ज्ञान
पकने का समय कई दिनों से अब तक/लिखने का समय 8.00 पी.एम. से 12.35 ए.एम. दिनांक-26 जुलाई 2021

लेखक-सनत सागर, संपादक बस्तर पाति, जगदलपुर, छ.ग.

मैं अचरज से भरा हुआ था। पर मजे ले रहा था पूरे। आज मुझे फिर आमंत्रित किया था काव्यगोष्ठी के लिये। कल शाम को प्रकृति सभागार में काव्यगोष्ठी थी। पहले वाट्सएप में मेसेज आया था उसके बाद फिर कुमार का फोन भी आया था। माना कि कवियों के पास कोई धंधा नहीं होता है। ठलहे बैठे होते हैं। परन्तु कम से कम फोन करके बुलाना तो चाहिये। आजकल इतना ही तो सम्मान बचा रह गया है। एक और राज की बात है कि हम कवि अगर कोई न बुलाये तब भी आ ही जाते हैं। इतना लिखते रहते हैं कि लेखन को सुनाने की भड़ास गले तक भरी होती है।
अचरज इस बात का था कि मैं पिछले कई कार्यक्रमों अपनी कविता सुनाकर चुपचाप निकल आता था। बहाने की एक साहित्यकार को क्या कमी हो सकती है। कभी मरे हुये रिश्तेदारों को मारना पड़ता है तो कई बार किसी को बीमार बता कर अस्पताल जाना होता है। कई बार बाल बच्चे होने का भी बहाना तैयार रहता है। बस एक सावधानी रखनी होती है कि जिस तरह का आदमी रोककर कहे कि रूक जाओ, थोड़ी देर से चले जाना तब उस आदमी की औकात के अनुसार बहाना चिपकाना होता है। जैसे कोई ज्यादा ही तीसमारखां साहित्यकार पूछे तो कहना होता है कि दिल्ली से मेरा एक साहित्यकार मित्र आने वाला है। अगर सरकारी बाबू टाइप का कवि रोके तो कहना पड़ता है कलेक्टर साहब के साथ मीटिंग है। और अगर व्यापारी टाइप का कवि हो तो उसे कहना पड़ता है, तुम नहीं समझोगे कि मेरी कितनी परेशानियां होती हैं।
पर एक बात है कि मैंने कभी भी ऐसा बहना नहीं मारा जैसा माथुर साहब मारते हैं। किसी भी कार्यक्रम वो आते ही लेट हैं और आते ही कार्यक्रम के आयोजक के कान कहते हैं मुझे पहले बुला लेना मुम्बई से फलाने साहित्यकार आ रहे हैं। मैं जरा जल्दी में हूं। सिर्फ आपके बुलाने से आया हूं।
और आयोजक कभी सबसे पहले या फिर दूसरे क्रम में बुला लेता है और वो मंच पर आते ही अपनी फोटो वाली किताब से अपनी दो कविता पढ़कर चले जाते हैं।
मैंने कभी इतनी बेईमानी नहीं की है। मैं कम से कम दो चार लोगों को सुनकर ही काव्यगोष्ठी से भागता हूं। आखिर बेचारा आयोजक इतनी मेहनत से कार्यक्रम आयोजित करता है, चाय नाश्ता का खर्च उठाता है। अखबार में खबर छपने देता है। उसका भी तो ख्याल रखना ही होता है।
और वो कवयित्री मैडम तो कभी भी मुख्य अतिथि बनाये बिन आती ही नहीं है। मुख्य अतिथि बना दो, वो दो घंटे बैठे रहेगी और ऐसे किसी कार्यक्रम आ भी गयी तो जाने की इतनी आपाधापी मचा देगी कि आयोजक का पूरा दिमाग कार्यक्रम छोड़कर उसकी ओर ही लग जायेगा।
पर मैं आज तक एक बात नहीं समझ पाया कि उस मैडम ने ऐसा क्या कमाल कर दिया है लेखन में, जो लोग उसके आने के लिये रिक्वेस्ट करते हैं और अतिथि तक बनाने तैयार हो जाते हैं।
और वो माथुर, उसके पास कौन सा काम रहता है न तो बीवी न बच्चे। घर जाकर करता क्या होगा ? भाव तो ऐसे खाता है मानों उसके बिना इस देश का पीएम तक कोई निर्णय नहीं ले पाता होगा।
इन लोगों से तो लाख गुना मैं अच्छा हू। कम से कम चार पांच लोगों की कविताएं सुनकर ही जाता हूं।
परन्तु इन आयोजकों को हमारे जैसों को भाव देना ही नहीं चाहिये।
ठीक यही बात मैंने तिवारी से कही। और कारण जाना चाहा था। तिवारी भी साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजक था।
उसने छूटते ही कहा-’अरे भैया जी! हम लोग को इतना बेवकूफ समझ रखा है कि हम इन बातों को ध्यान नहीं देते हैं ? या समझते नहीं हैं ? आप लोग अपनी इमेज बड़ी बनाने के लिये ये सब करते हो न! साहित्यिक कार्यक्रमों में जानबूझकर देरी से आना और फिर आते पहले अपनी रचना सुनाने के लिये कहना। और फिर रचना सुनाकर भाग जाना। ये आपकी बड़ी इमेज बनाती है ऐसा आपको लगता है पर आप नहीं जानते कि आपके जाने के बाद या आपकी पीठ पीछे लोग आप जैसों के लिये क्या क्या नहीं कहते हैं। लोग आपकी रचनाओं के साथ आपकी खाल भी उधेड़ देते हैं। काव्यगोष्ठी में अतिरिक्त आनंद तो आप जैसों के कारण ही आता है। हम लोग आप जैसों को चने के पेड़ पर चढ़ाते हैं। ताकि आप, मजाक के पात्र बनें। जो साहित्य अनुरागी होते हैं वो कार्यक्रम में अंत तक रहते हैं।
तिवारी की साफगोई पर खुश होने का सवाल ही नहीं उठता था। बल्कि उसे घुमाकर दो थप्पड़ जड़ने की इच्छा हो गयी। सीधे सीधे मेरे मुंह में ही मेरी बुराई कर रहा था। परन्तु मैं गम खाकर रह गया। ऊपर से कह उठा।
’तिवारी, अगली बार से अपने मेसेज में लिखा करो कि
-जिसके दिल्ली, मुम्बई से साहित्यकार दोस्त आये हैं कृपया अपने दोस्तों को ही अटैण्ड करें।
-जिसे किसी की सगाई, शादी, जन्मदिन की पार्टी में जाना है तो वहीं जाये।
-जिसे किसी की मरनी, काठी या शोक, तेरहवीं में जाना हो वहीं जाये।
-जिसके घर में बच्चे अकेले हैं या रोटी बनाने को रह गयी है तो कृपया वह जरूरी काम करें।
-जिसे दस्त लग रही हो, या बुखार सरदर्द आदि तकलीफ हो तो डाक्टर के पास जायें।
-मंच पर बैठने लायक मटेरियल कृपया एक मंच लेकर आयें।
जिसे अपनी रचना सुनाकर दूसरे की रचना न सुन सकने की लाइलाज बीमारी है तो बस स्टैण्ड के पास वाले लॉज में महीने की दो तारीख को विशेषज्ञ डॉक्टर आते हैं, उनसे अपना इलाज करवा लें।’
मेरी बात सुनकर तिवारी खिलखिलाकर हंस पड़ा।
’क्या सागर साहब! आप तो सीधे जूता मारते हैं। ये जमाना मखमल लपेटने वाला है। हम तो अपनी रचना सुनाकर जल्दी जाने वाले साहित्यकार को दो बार रोकते हैं। रोकने से वह समझता है कि वह वास्तव में बहुत नामी-गिरामी, बड़ा साहित्यकार बन चुका है। बस यहीं उसके साहित्यकार होने की जड़ पर मट्ठा डल जाता है। ये विशिष्टताबोध का कीड़ा हम सहलाकर बड़ा करते हैं। न कि उस साहित्यकार की तारीफ में कसीदे गढ़ते हैं। वह जब पिजड़े से बाहर निकलता है तब हमारा बढ़ाया हुआ कीड़ा उसे लंगड़ी मारने सामने आ जाता है। ये होता है मखमल में लिपटा हुआ बाटा का……….!’ तिवारी हंस हंस कर लोट पोट हो रहा था।
और ये सब सोच सोच कर मैं बिस्तर में करवटें बदल बदल कर रात बिताने की कोशिश में लगा था। और वो विशिष्टबोध का कीड़ा जब तब नजरों में सामने आ जाता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *