कागज़ के फूल : आँसू के सिवा कुछ पास नही
एक रचनात्मक व्यक्तित्व की विडम्बना बहुधा सांसारिक व्यावहारिकताओं से सामंजस्य न बिठा पाने की होती है।वह बहुत से मामलों में ‘असामान्य’ कहे जाने के लिए अभिशप्त होता है।झूँठ, फरेब, प्रदर्शनप्रियता, स्वार्थ से भरे लोगों के बीच संवेदनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति अनफिट ही रहता है। दरअसल दुनिया बाज़ार के नियमो से चलती है। यहां रिश्ते भी परिभाषित हैं; उनके निर्वहन के अपने मापदण्ड हैं। वे रिश्ते चाहे बोझ बन जायें, चाहे उसमे व्यक्ति घुटता रहे, उससे मुक्त होना बेहद कठिन है। अतिरिक्त संवेदनशील व्यक्ति के लिए तो और भी।
‘कागज के फूल’ के मि.सुरेश सिन्हा (गुरुदत्त)की त्रासदी लगभग ऐसी ही है।वह संवेदनशील और स्वाभिमानी फ़िल्म निर्देशक है।उसकी पत्नी ‘बीना’ ऐसे घर से है जहां तत्कालीन समय में फ़िल्म में काम करना ‘अच्छा’ नही माना जाता था, उसे नीची निग़ाह से देखी जाती थी। इसलिए मि. सिन्हा का फ़िल्म में काम करना उनमे अलगाव पैदा कर देता है। वह अपने माता-पिता के घर रहती है। एक किशोर बेटी ‘पम्मी’ है,जो बोर्डिंग स्कूल में पढ़ती है। संबंध में दरार इस हद तक आ चुकी है कि उसे अपनी बेटी से मिलने से रोका जाता है। एक बार जब वह एक्सीडेंट में घायल हो जाता है तो पत्नी उसे देखने आने से भी इंकार कर देती है।
फ़िल्म में ‘बीना’ के चरित्र का विकास नही हुआ है। वह लगभग यांत्रिक है; केवल पृष्टभूमि में। उसके अंदर कोई द्वंद्व नही है।इसलिए दर्शक यह सोच सकता है कि संवेदनशील सुरेश के साथ उसका विवाह और निर्वहन कई सालों तक कैसे हुआ होगा? बहरहाल फ़िल्मकार की यह मंशा नही लगती, सम्भवतः फ़िल्म की समयसीमा ‘हर बात’ की गुंजाइश भी नही छोड़ती।
मि. सिन्हा परिवार से जुड़ना चाहता है,मगर आत्महीनता की शर्त पर नही। उसे स्कूल तक में बेटी से मिलने रोका जाता है। इस मानसिक स्थिति में भी वह अपना काम लगन से करते रहता है। इसी बीच शांति(वहीदा रहमान) से उसकी मुलाक़ात होती है। वह आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिला है।शान्ति में उसे अपने फ़िल्म के लिए सार्थक कलाकर दिखाई देता है। वह उसे प्रेरित करता है, और वह सफल भी होती है। साथ-साथ रहने, एक दूसरे को समझने से आकर्षण भी पैदा होता है। शान्ति भी घर में अकेली है, वह अदृश्य रूप से सुरेश के प्रति आकर्षित होती जाती है। मगर यह आकर्षण आवेग का रूप नही लेता जिसमे सब कुछ बह जाता है।यह मद्धिम लौ में जलते रहता है। मि. सिन्हा को अपनी बेटी का बराबर ख़्याल रहता है। उसके पारिवारिक जीवन को जानने के बावजूद भी शांति के प्रेम में कोई अंतर नही आता क्योकि उसके लिए यह अशरीरी के स्तर पर चला गया है। पूरे फ़िल्म में कहीं पर भी दोनों के बीच रोमैंटिक सम्वाद नही है, केवल एक जगह भावुक शांति उसके सीने में अपना सिर रखती है।
दोनो का साथ-साथ होना फ़िल्मी गॉसिप बनती है,अखबारों में छपती है।मि. सिन्हा की बेटी पम्मी को उसके स्कूल के फ्रेंड चिढ़ाते हैं, जिससे वह आहत होती है। वह शांति के पास जाकर उनके पिता से दूर रहने का आग्रह करती है। उसे लगता है कि उसके मम्मी- पापा फिर मिल सकते हैं। मि. सिन्हा को शांति का जाना काफ़ी आहत करता है, मगर फिर भी वह पूरी तरह टूटा नही रहता। इस बीच पम्मी उसके साथ रहने लगती है। मगर उसके नाना उसे ले जाने आते हैं, वह जाना नही चाहती इसलिए मि.सिन्हा उसे जाने नही देते। मगर वे लोग मामला कोर्ट में ले जाते हैं। कोर्ट फैसला पम्मी के माँ के साथ रहने का देता है।मि. सिन्हा पर मानो वज्रपात होता है। वह पूरी तरह टूट जाता है। वह एकदम अकेला हो जाता है;उसके साथ न शांति है न बेटी। उसका काम में मन नही लगता। गलतियां होने लगती है। फिल्में फ्लाप होती हैं। निर्माता उससे दूरी बनाने लगते हैं; अपनी शर्तों पर काम कराना चाहते हैं, मगर मि.सिन्हा का स्वाभिमान उसे ऐसा करने नही देता। निर्माता उससे कहते हैं “तुम खत्म हो चुके हो”, मगर वह कहता है “मैं खत्म नही हुआ, थक गया हूँ।”
उसे फिल्में नही मिलती।बकाया के लिए घर नीलाम कराया जाता है। वह सड़क पर आ जाता है। नशे में डूब जाता है। शराबखानों में पड़ा रहता है। अपमानित होता है। अवसादग्रस्त हो जाता है।
इधर वक्त गुजरता है। निर्माता कोर्ट में केस जीत जाते हैं जिससे शांति जो दूर गांव में बच्चों को पढ़ा रही होती है, उसे फ़िल्म में काम करने के लिए लौटना पड़ता है। इस समय वह मि. सिन्हा की सहायता के लिए उनसे उनके निर्देशन में काम करने का शर्त रखती है जिसे वे मान लेते हैं। मगर मि. सिन्हा का आहत स्वाभिमान इस बात को गवारा नही करता कि उसे उसके काम के कारण नही बल्कि शांति के कारण बुलाया जा रहा है। ख़ुद शांति यह समझते हुए कि इस शर्त पर वह काम नही करेंगे उसे समझाने का प्रयास करती है, मगर बेबस होकर लौट जाती है।
समय का पहिया चलते रहता है। शान्ति अपने काम से ‘स्टार ‘हो जाती है। पम्मी विवाह के उम्र में पहुँच जाती है। मि. सिन्हा अपने एक परिचित जो गैरेज का काम करता है, के यहां छोटा-मोटा लिखने-पढ़ने का काम करके जी रहे होते हैं। पम्मी अपने डैडी को बहुत चाहती है इसलिए अपने विवाह के समय उसे ढूंढने का प्रयास करती है। संयोग से वह गाड़ी बनवाने उसी गैरेज में पहुँच जाती है। मि.सिन्हा उसे देख लेते हैं मगर छुप जाते हैं, और न बताने को कहते हैं। पम्मी मैकेनिक को पहचान लेती है और अपने डैडी के बारे में पूछती भी है मगर वह अनजान बन जाता है। पम्मी शांति के पास भी जाती है, मगर वह ख़ुद उसके लिए परेशान है, उसे ढूंढती है।
फ़िल्म क्लाइमैक्स की तरफ बढ़ती है। मि.सिन्हा का अन्तस बेटी के विवाह की बात जानकर भीग जाता है।वह उसके लिए गिफ्ट खरीदने के लिए बेताब हो जाता है, मगर पैसे नही रहते। जुआघर जाता है मगर वहां भी पुलिस के आ जाने से अपमानित होता है। अधिकारी उसके पूर्व छवि के कारण गिरिफ्तार नही करते। अंततः वह उसी स्टूडियो में भेष बदलकर वृद्ध का छोटा रोल करने जाता है जहां कभी वह निर्देशन करता था। कर्मचारी उसे नही पहचान पाते मगर शांति जब संवाद के लिए उससे ऑंखे मिलाती है तो वह ठिठककर सम्वाद नही बोल पाता। शांति भी उसे पहचान लेती है। कर्मचारी संवाद न बोलने के कारण उसे अपमानित कर स्टूडियो से बाहर जाने को कहते हैं। वह तेजी से निकलता है। शांति सबकुछ छोड़कर उसके पीछे दौड़ती है, मगर वह नही रुकता। इधर शांति बदहवास उसके पीछे दौड़ते रहती है, मगर भीड़ द्वारा ऑटोग्राफ के लिए घेर ली जाती है और छटपटाकर रह जाती है। मि. सिन्हा दूर निकल जाते हैं। यह दृश्य मार्मिक है, पृष्टभूमि में बजता गीत ‘बिछड़े सब बारी-बारी’ मार्मिकता को और बढ़ा देता है।शांति का प्रेम उदात्त है। वह मि. सिन्हा के लिए करुणा से भरी हुई है। वह उसके लिए किसी भी हद तक कुर्बानी दे सकती है मगर बेबस है।
पूरी फ़िल्म फ्लैशबैक में है। वृद्ध (उम्र से कम हालात से अधिक)मि.सिन्हा उसी स्टूडियो में जहां कभी वे फ़िल्म निर्देशन करते थे, आकर दूर से फ़िल्म निर्माण देखते हैं और यादों में खो जाते हैं।यह घटना शान्ति द्वारा उसे रोकने की कोशिश के बाद की है। फ्लैशबैक में फ़िल्म चलती है। फिर वह एक क्षण बाद होश में आते हैं। एक क्षण में पूरा जीवन कौंध जाता है। इधर काम खत्म होने के बाद शाम को कर्मचारी स्टूडियो बन्द करके चले जाते हैं, उन्हें मि. सिन्हा की उपस्थिति का पता नही चलता। रात किसी क्षण मि. सिन्हा निर्देशक की उसी कुर्सी पर बैठ जाते हैं, जिसमे वह बैठा करते थे।
सुबह जब दरवाज़ा खुलता है कर्मचारी उसे कुर्सी पर छड़ी पकड़े बैठे देखते हैं। कुछ लोग उसे पहचान लेते हैं। एक कर्मचारी जब उनको जाकर छूता है तो सिर एक तरफ लुढ़क जाता है। उनका निधन हो गया होता है। उसी समय निर्माता कहता है “आज फ़िल्म की आख़री शूटिंग है काम नही रुक सकता। लाश जल्दी से यहां से हटाओ।क्या कभी मुर्दा नही देखा है।” इस तरह मि. सिन्हा एक अतृप्त आकांक्षा लिए दुनिया से चले जाते हैं। यह दुनिया जो कल तक उसे सर-आँखों पर बिठाए रहती थी, उसके लिए उसका मरना जैसे कोई घटना ही नही है। उसके जाने से दुनिया रत्ती भर नही बदलती “ये खेल है सदियों से जारी”। आज भी जारी है।
फ़िल्म देखते हुए ऐसा भी ख़्याल आता है कि मि.सिन्हा जो अत्यधिक स्वाभिमानी हैं; बेकाम होने के बाद नए सिरे से जीवन के बारें में सोचते क्यों नही? एक प्रतिभाशाली व्यक्ति इतना निस्सहाय कैसे हो सकता है? वह परिस्थितियों से लड़ता क्यों नही? दूसरे क्षण यह भी ख़्याल आता है क्या हम व्यक्ति से ‘देवता’ होने की चाह नही रख रहें?द्वंद्वों और अंतर्विरोधों से व्यक्ति यदि न घिरे तो ऐसी परिस्थितियां ही न पैदा हो। बहरहाल लाख न चाहने के बाद भी दुनिया में दुर्घटनाएं होती हैं। “वक्त ने किया क्या हँसी सितम”! फ़िल्म का शीर्षक ‘कागज के फूल’ की प्रतीकात्मकता में भी इसे देखा जा सकता है। कागज के फूल केवल दिखने में सुंदर होते हैं, उनमे सुगन्ध नही होता। क्या हमारे चारो तरफ़ के ये रंगीन नज़ारे कागज के फूल नही हैं?
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#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728320