सर्बिया, बोस्निया, हर्ज़ेगोविना, क्रोएशिया, मैसीडोनिया
रविश कुमार
युगोस्लाविया के बिखरने से इतने नए मुल्क बने और इनके आपसी जंग की ख़बरों में मेरी कमज़ोर अंग्रेज़ी और हताहत हुई। रात की पाली में एसोसिएट प्रेस की रिपोर्ट का हिन्दी अनुवाद करते करते कुछ न कुछ ग़लतियां हो जाती थीं। सर्बिया, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना की जंग से जुड़ी ख़बरें आती रहती थीं।अनुवाद के क्रम में उन ख़बरों से कोई रिश्ता नहीं बन सका। रात की पाली के लिए तैयार की जानी अंतर्राष्ट्रीय ख़बरों में से एक ख़बर बस थी। दिल्ली के बेर सराय की गलियों से निकल कर सर्बिया, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना की ख़बरों का अनुवाद से कुछ भी भौगोलिक बोध नहीं हुआ। न ही कप्लनाएं वहां तक गईं कि जंग के कारण वहां के समाज पर क्या कुछ बीत रहा होगा। नींद में ऊंघते हुए काम करने का पहला अनुभव था। रात पहील बार नाइट शिफ्ट हो गई थी। चांद तारों और अंधेरों से भरी रात बेरसराय से ग्रेटर कैलाश के बीच की दूरी तय करने तक ही रात थी। दफ्तर पहुंचने के बाद नाइट शिफ्ट हो जाती थी।
बोस्निया हर्ज़ेगोविना मेरे लिए अनुवाद के दौरान हो जाने वाली ग़लतियों का संदर्भ भर है। मरने वालों की संख्या ग़लत लिख देना तो कभी क्रूरता करने वाले और पीड़ित पक्ष का नाम ग़लत लिख देना। वॉयस ओवर में ज के नीचे का नुक़्ता छूट जाना और सफ़ाई देना। आज उसी बोस्निया हर्ज़ेगोविना की याद पलट कर सामने खड़ी हो गई है। अनुवाद की मामूली ग़लती की बात बेमानी है। जिन औरतों ने इस युद्ध के कारण अपने जिस्म पर यातनाएं झेली हैं उनकी यादों का अनुवाद किस भाषा में किया जा सकता है? किए जाने के बाद क्या उसका कोई मतलब हर दिन क्रूरता- क्रूरता के नए नए वर्ज़न वाले दौर में कुछ है?
गरिमा श्रीवास्तव की डायरी है। देह ही देश। उन हज़ारों लाखों औरतों के नाम जिनकी देह पर ही लड़े जाते हैं सारे युद्ध। गरिमा श्रीवास्तव अपने जीवन में 22 पुस्तकें लिख चुकी हैं। मैंने उनकी पहली पुस्तक पढ़ी है। पढ़ने वाला लिखने वाले से हमेशा पीछे छूट जाता है। जबकि लगता है कि लेखक की चाल सुस्त है और पाठक गतिशील है।
“रोज़ रात को सफ़ेद चीलें हमें उठाने आतीं और सुबह वापस छोड़ जातीं। कभी-कभी वे बीस की तादाद में आते। वे हमारे साथ सब कुछ करते जिसे कहा या बताया नहीं जा सकता है। मैं उसे याद भी नहीं करना चाहती। हमें उनके लिए खाना पकाना और पसोरना पड़ता नंगे होकर। हमारे सामने ही उन्होंने कई लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर दी, जिन्होंने प्रतिरोध किया, उनके स्तन काट कर धर दिए गए।”
जिस तरह से लिलियाना याद नहीं करना चाहती हैं उसी तरह ऐसी हिंसा को देख कर चुप हो जाने वाला समाज भी भूल जाना चाहता है। लिलियाना के साथ बलात्कार करने वाले 20 सर्बियाई सैनिकों को क्या अचानक रात में या दिन में दोपहर के खाने के वक्त कुछ याद आता होगा? क्या वे भी भूल गए होंगे, या शत्रु की स्त्रियों के देह पर आक्रमण का अपराध बोध उन्हें बेचैन करता होगा? क्या अपने मुल्क में विजयी भाव से लौट कर उन सैनिकों ने फिर यह काम कभी नहीं किया होगा या वहां भी अपनी औरतों के साथ ऐसा कुछ करने लगे होंगे?
हिंसा करने वाला और हिंसा होते देख चुप हो जाने वाले समाज के बीच यह डायरी सरका दी जानी चाहिए। मैं पढ़ते पढ़ते यही सोच रहा था कि जिस तरह यह किताब अचानक मेरे हाथ लग गई उसी तरह यही किताब या लिलियाना जैसी किसी बलात्कार पीड़िता की कोई डायरी उन सैनिकों के हाथ लग जाती और वे पढ़ने लग जाते। क्या वे फिर से उन स्मृतियों को जीना चाहेंगे या अपने नाती पोते या पत्नी से उस किताब को छिपा कर चुपचाप कहीं निकल जाएंगे।
देह ही देश की समीक्षा उसे करनी चाहिए जो युद्ध की ख़बरों और इतिहास पर नज़र रखता हो। जैसे इस डायरी को पढ़ते हुए आप कितनी किताबों और लेखकों के नाम और कथन से गुज़रते हैं जिन्होंने युद्ध देखा सोचा और लिखा। सबसे बड़ी लड़ाई किसी बुरे को परास्त करने की नहीं है, ख़ुद के भीतर करुणा को तराशने की है। ऐसे लोग जो भीड़ की हिंसा के समर्थन में होते हैं,उन्हें यह डायरी नुमा किताब दी जाए तो वे क्या करेंगे, अपनी चुप्पी पर झुंझलाते हुए इसे जला देंगे? मेरे ख़्याल से उन्हें जलाने के लिए ही सही यह डायरी पढ़नी चाहिए।
बोस्निया हर्ज़ेगोविना और वहां की औरतें। हिन्दी में उतर आई हैं, हिन्दी की औरतों से बात करने। इस बार अनुवाद के ज़रिए नहीं आई हैं। गरिमा क्रोएशिया में थीं। अपने प्रवास के दौरान युद्ध की शिकार औरतों तक पहुंचने की कोशिश की। 25 साल बाद जब सब इन प्रसंगों को भूल चुके हैं।अगर आपकी दिलचस्पी युद्ध और उससे जुड़े पहलुओं को जानने में है तो पढ़ सकते हैं। अगर आपकी दिलचस्पी पुरुष समाज में कभी युद्ध तो कभी धर्म के नाम पर हिंसा को समझना चाहें तो भी पढ़ सकते हैं।
“युद्ध के बाद डेटर एकार्डस नाम से शान्ति समझौता हुआ था, जिसके अनुसार यौन-हिंसा पीड़िताओं को घर-वापसी पर मकान और संपत्ति दी जानी थी लेकिन ऐसी बहुत कम औरतें थीं जो घर वापसी के लिए तैयार थीं। अधिकांश ने अपने मकानों में लौटने से इनकार कर दिया क्योंकि वहां उनकी यातना और अतीत के नष्ट जीवन के स्मृति चिन्ह थे।”
इसे पढ़ते हुए ज़रूरी नहीं कि आप हाथरस या कठुआ की घटना को याद ही करें। बिल्कुल नहीं।
राजपाल ने छापी है और २८५ रुपये की है।