पाठ : खुला पाठ बनाम ‘कुपाठ ‘
( संदर्भ : नवजागरण : कबीर , प्रसाद और हम )
भाग : 4
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मित्रो , आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विरोध में जो ‘ कुपाठ ‘ रचा जा रहा है उसकी सूची बहुत लंबी है उन सबका यहां पर्दाफाश करना संभव नहीं है। काफी समय लगेगा। मैं अपनी बातों से आप को उबाना नहीं चाहता अतः हमें कुछ ही बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना पड़ रहा है। भाग 4 से मैं एक नए पाठ की शुरुआत कर रहा हूं जिसका संदर्भ ऊपर दिया हुआ है। इस आलेख ” नवजागरण : कबीर , प्रसाद और हम ” ( लेखक : विनोद शाही ) में भी शुक्ल जी एवं तुलसीदास को ही चारों तरफ से घेरा गया है और ‘कुपाठ ‘ रचकर उनके विषय में भ्रम फैलाया गया है।
विनोद शाही लिखते हैं – ” तुलसी के दास्य भाव की भक्ति ने नवजागरण की जगह दास और स्वामी की भावना को जन्म दिया । उनका लोक मंगल ‘ दास्य भाव से युक्त भक्त समाज ‘ के लोक मंगल का पर्याय हो गया जिससे मनुष्य के आत्म चेतना से युक्त होकर सत्य की खोज करने की स्वतंत्रता बाधित होती है ।”
मित्रो , यहां तुलसी के ‘ दास्य भाव ‘ की भक्ति का ‘कु पाठ रचकर यह दिखलाने का प्रयास किया गया है कि इस भक्ति भाव का ही परिणाम है कि समाज में स्वामी सेवक का भाव पैदा हुआ। उनके (विनोद शाही) अनुसार इस भक्ति पद्धति के कारण मनुष्य सत्य की खोज करने की स्वतंत्रता से वंचित हो जाता है।
प्रश्न उठता है , क्या दास्य भाव की भक्ति तुलसी दास की देन है ? क्या उनके पहले दास्य भाव की भक्ति नहीं थी ?
‘कुपाठ ‘ कर्त्ता को मालूम होना चाहिए कि दास्य भक्ति ‘नवधा भक्ति’ की एक भक्ति पद्धति है जिसका उत्स श्रीमद् भागवत है। भक्ति के नव प्रकारों का उल्लेख करते हुए कहा गया है –
” श्रवणम कीर्तनम विष्णो: स्मरण पादसेवनम ।
अर्चनम वंदनम दास्यम सख्यमत्मनिवेदनम ।। ”
श्रवण ( परीक्षित ) , कीर्तन ( शुकदेव ) , स्मरण ( प्रह्लाद ), पादसेवन (लक्ष्मी ), अर्चन ( पृथु राजा ), वंदन ( अक्रूर ) , दास्य (हनूमान), सख्य ( अर्जुन ) और आत्मनिवेदन ( राजा बलि )। ये नवो प्रकार की भक्ति के अलग – अलग उपासक अथवा आदर्श उपासक के उदाहरण है। यहां तुलसी दास का नाम भी नहीं है। यानी तुलसीदास दास्य भावके केंद्रीय उपासक न होकर हनुमान जी है। फिर तुलसीदास पर यह दोषारोपण क्यों?
यहां “दास्य भाव ” का कितना आपत्तिजनक कुपाठ है , इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
नवधा भक्ति में सख्य भाव की भक्ति के उपासक आदर्श अर्जुन को माना गया है। अर्थात नवधा भक्ति का प्राबल्य महाभारत काल में भी था। श्रीमद् भागवत गीता का बारहवां अध्याय ‘ भक्ति योग ‘ का विस्तृत विवेचन करता है । श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं –
ये त्वक्षर मणिनिर्देश्यमव्यक्तम पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यम च कूटस्थमचलम ध्रुवम।।
सन्नीयाम्ये इंद्रियग्रामम सर्वत्र सम बुद्ध्य: ।
ते प्रापनुवंती मामेव सर्व भूतहीतेरता: ।। 3,4 ।
अर्थात् मुझमें मन लगाकर निरंतर मेरे भजन में लगे हुए भक्त जन श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुण रूप परमेश्वर को भजते हैं वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी के रूप में मान्य हैं।
श्री कृष्ण तो यहां तक कहते हैं कि जिन लोगों के मन में परमेश्वर के अप्रकट निराकार स्वरूप के प्रति आसक्ति है, उनके लिए प्रगति कष्टदायक है, क्योंकि देह धारियों के द्वारा इस क्षेत्र में प्रगति करना कठिन होता है ( देखें , अध्याय 12 , 6 श्लोक )।
इससे सपष्ट होता है कि गीता में मनुष्यों (देहधारियों ) के लिए निराकर की अपेक्षा साकार ब्रह्म की उपासना को श्रेष्ठ माना गया है। फिर तुलसीदास को इस उपासना पद्धति का उपदेशक कहना ‘ कुपाठ ‘ नहीं तो और क्या है ,?
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भक्ति के ये प्रकार वेदों में भी प्रचलित हैं। अधिक गहराई में न जाकर मैं इतना ही बता देना चाहता हूं कि पंचोपचार एवं षोडशोपचार की जो पूजा एवं भक्ति पद्धति है उसके वैदिक एवं लौकिक दोनों मंत्र आज भी मांगलिक अवसरों पर पंडितों द्वारा पढ़े जाते हैं।
अब मैं मूल वस्तु पर आता हूं । दास्य भक्ति के आदर्श उपासक वीर हनुमान हैं। हनुमान सगुण ब्रह्म के दास हैं। वे एक ऐसे दास का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जो अपने समर्पण भाव के कारण ब्रह्म के समान पूज्य हो जाते हैं। हनुमान हमारे लोक देवता हैं। भगवान राम से भी अधिक हनुमान लोक में पूज्य हैं। विनय पत्रिका में श्री राम हनुमान के आगे खुद को समर्पित कर देते हैं। पद है –
‘देबे को न कछु , रिनिया हों चाहौं तो पत्र लिखाऊ ।’
अर्थात् राम कहते हैं कि हे हनुमान ! तुमने तो मेरा इतना उपकार किया है कि मैं तुम्हारा ऋणी हो गया हूं। तुम्हारी सेवा के बदले देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है । तुम चाहो तो पत्र लिखा लो कि मैं तुम्हारा ऋणी हूं ।
सुधीजन विचार करेंगे , गोस्वामी जी की दास्य भक्ति किसी को ‘दास ‘ नहीं बनाती है , बल्कि उसे स्वामी का पद प्रदान करती है। वह ‘दास ‘ लोक में पूज्य हो जाता है। अवतारी भगवान का अवसान ( मृत्यु ) दिखाया गया है, पर ‘दास’ हनुमान के प्रति पौराणिक एवं लौकिक धारणा है कि वे अभी भी जीवित हैं। सनातन संस्कृति में एक दास का इतना महत्व अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।
लेकिन शाही जी को यह सब क्यों दिखाई देगा ? उन्होंने तो ‘दास्य भाव ‘ की भक्ति को स्वतंत्रता के लिए बाधक मान लिया है। उन्होंने दास्य भाव की भक्ति को किसी समय समाज में व्याप्त ‘ दास प्रथा ‘ से जोड़ दिया है।। और ऐसा ‘कुपाठ’ रचा है कि थोड़ी देर के लिए कोई भी भ्रम का शिकार हो सकता है।
मित्रो , प्रश्न है कि क्या ऐसे कुपाठ रचने वालों के प्रति मौन होकर बैठा रहा जाए ? क्या चुप रह कर हम साहित्य एवं समाज के प्रति अपने साहित्यिक कर्म का पालन कर पाएंगे ? ऐसे मौके पर हम मुखर होकर ही साहित्य सृजन के साथ न्याय कर पायेंगे।
जिस कबीरदास को मध्यकालीन हिंदी नवजागरण का एक मात्र जनक साबित करने के लिए विनोद शाही तुलसी दास का ‘कुपाठ’ करते हैं , क्या उस कबीरदास ने दास्य भाव की भक्ति नहीं की थी ? कबीर ने एक जगह कहा है –
कबीर कुत्ता राम का मुतिया मेरा नाउ।
गले राम की जेबड़ी जत खींचौ तत जाऊ।।
कबीर अपने को राम का कुत्ता कहते हैं। वे राम के इतने वश में हो गए हैं कि राम उन्हें जिधर खींचेगे वे उधर ही जायेंगे। लेकिन कुपाठ रचने के चक्कर में कबीर की इस साखी को विनोद शाही भूल जाते हैं। कबीर में नवधा भक्ति के नवों प्रकार मौजूद हैं।
शंका उठना स्वाभाविक है कि क्या तुलसीदास एवं आचार्य शुक्ल के प्रति जान बूझकर ‘ कु पाठ ‘ रचा जा रहा है, या कोई अन्य कारण है ? इस प्रश्न का उत्तर मैं सुधीजनों पर ही छोड़ देता हूं ।
डॉ हरे राम पाठक
7086874126
( मेरी आलोचना की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक : ‘आलोचना : परंपरा , संस्कृति एवं विकृति ‘ का अंश )