मैं जिधर गई
अलका अग्रवाल
जब मैं कलम बन गई,
कागज की अनुचरी बन गई l
बेतरतीब शब्दों की तब मैं
सशक्त, लय-ताल बन गई l
जब मैं सुई बन गई,
हर मर्ज का इलाज बन गई l
देकर नवजीवन मानव को,
सृष्टि का सरताज बन गई l
जब मैं दलील बन गई,
निर्दोषी की कचहरी बन गई l
सजा दिलवा दोषियों को,
मैं एक किरन सुनहरी बन गई l
जब मैं उड़नपरी बन गई,
ग्रहों की खोज बन गई l
देकर अपना सर्वस्व,
मैं एक अद्वितीय ओज बन गई l
जब मैं चॉक बन गई,
बच्चों का भविष्य बन गई l
देकर उन्हें ज्ञान की पात्रता,
मैं, नारी गरिमामय बन गई l