विसंगतियों के कुशल चितेरे थे शरद जोशी
रामस्वरूप दीक्षित
हिंदी व्यंग्य को शरद जी के दो बड़े योगदान रहे। पहला यह कि किसी खास विचारधारा से प्रतिबद्धता न होने के कारण उन्होंने समाज व जीवन की उन विसंगतियों पर भी भरपूर प्रहार किए, जिन पर विचारधारा के दबाव के चलते हरिशंकर परसाई को प्रहार करने से चूक जाना पड़ता था। दूसरा उन्होंने व्यंग्य को तीखेपन की चपेट से निकालकर उसमें मिठास का पुट दे दिया , जिसके कारण व्यंग्य पाठकों में ज्यादा लोकप्रिय हुआ।
उन्होंने व्यंग्य को पत्र-पत्रिकाओं के कॉलमों से निकालकर उसे कवि सम्मेलनों के मंच पर ले जाकर देश की वाचिक परंपरा से जोड़ दिया । इसका परिणाम यह हुआ कि लोग अब व्यंग्य को सुनने भी लगे । उन्होंने कविता के मंच पर गद्य को स्थापित किया । उनमें वो कला थी कि वे ढेरों कवियों के बीच मंच लूट लिया करते थे और कुछ वर्ष तक तो यह आलम रहा कि लोग किसी कवि सम्मेलन को सुनने का मन तब ठीक से बना पाते थे जब उन्हें पता चल जाता था कि उसमें शरद जोशी आ रहे हैं या नहीं । यह काम हिंदी में कोई गद्यकार आज तक नहीं कर पाया । अपने इस जोखिम भरे प्रयोग के पहले और आखिरी व्यक्ति रहे । जहां लोग गद्यात्मकता लिए अतुकांत कविता तक को मंच पर सुनना पसंद नहीं करते , वहां शरद जी अपने खालिस गद्य के साथ “वंस मोर ” के तुमुल स्वरों के बीच जमे रहते थे । हालांकि इसके लिए उनकी आलोचना भी खूब हुई कि वे पैसे के खातिर मंचों पर जा रहे हैं , वे व्यंग को हास्य से जोड़कर उसे फूहड़ता की ओर ले जा रहे हैं और तरह-तरह की ध्वनियों व अभिनय मुद्राओं के सहारे ही वे मंच पर सफल हो रहे हैं , अपनी रचनाओं के दम पर नहीं । और यह भी कि वे व्यंग्य को सस्ता व चालू बना रहे हैं । शरद जी में वह क्षमता थी कि वे आलोचना की हवा से बुझने की जगह और प्रखर होते थे।
वास्तविकता यह थी कि उन्होंने लेखन के साथ कोई समझौता नहीं किया था , केवल उसे व्यापकता व विस्तार दिया था जो कुछ लोगों को कुछ निजी या सामूहिक – सांगठनिक कारणों से रास नहीं आ रहा था । साधारण पढ़े-लिखे व बुद्धिजीवियों से लेकर पान की गुमटी वाले तक शरद जी की कैसेट सुनते देखे जा सकते थे । परसाई – जोशी के समय में व्यंग्य हाशिये से उठकर जो मध्य और मुखपृष्ठ पर आया उसमें शरद जी के व्यंग को वाचिक बनाने की भी बड़ी भूमिका थी।
वे जितने बड़े लेखक थे उतने ही सहज और सरल भी थे । वे कहा भी करते थे कि मुझे लिखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं चाहिए – थोड़ा सा एकांत , कुछ कागज और एक चलने वाला पेन मिल जाए तो मैं एक अच्छी रचना देने का वादा करता हूं । अपने इसी वायदे को निभाते वे निरंतर अच्छी रचनाएं देते रहे और लोगों को विसंगतियों के खिलाफ जागरुक करते रहे। उनमें अनूठी व्यंग्य दृष्टि थी, जो बेहद पैनापन लिए हुए थी । व्यक्ति , घर , परिवार , समाज ,राजनीति , शिक्षा , स्वास्थ्य , और जीवन से जुड़े सभी क्षेत्रों में बड़ी बारीकी से झांककर वे विसंगतियों को खोज निकालते थे और फिर अपनी चटपटी लटपटी भाषा में उनका ऐसा चित्रण करते थे कि विसंगतियों के लिए जिम्मेदार एकांत में कान पकड़कर तौबा करते थे । व्यंग्य की इस मारक , प्रहारक व सुधारक शक्ति का अपने लेखन में उन्होंने भरपूर प्रयोग किया था । जहां उनके व्यंग्य व्यक्तिपरक होते थे , वहां संबंधित व्यक्ति हफ्तों घर से नहीं निकलते थे , तब भी उसके दुश्मन दोस्त की शक्ल में उसे शरद का वह व्यंग्य सुनाने पहुंच जाया करते थे । जीवन के आखिरी वर्षों में तब के सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रतिष्ठित दैनिक में ‘प्रतिदिन ‘ व्यंग्य स्तंभ लिखकर उन्होंने अपनी उर्वर व्यंग्य क्षमता का लोहा मानने के लिए सब को बाध्य कर दिया था।
पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के नौसिखिएपन को लेकर ” सारिका ” में लिखे उनके व्यंग्य ने सिद्ध कर दिया था कि सत्ता के सर्वोच्च व्यक्ति को भी शब्दों से शर्मसार किया जा सकता है । इस व्यंग्य को सत्ता व विपक्ष के गलियारों में बहुत रस ले – लेकर कई दिनों तक बार-बार पढ़ा – पढ़ाया जाता रहा । जब एक अदना सा बाबू तक अपने ऊपर व्यंग्य लिखने पर लेखक को दांतों चने चबवाने की क्षमता रखता हो , तब प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति की खिल्ली उड़ाना कितना जोखिम भरा काम था , यह कहने की बात नहीं ।शरद जोशी जैसा कद्दावर लेखक ही ऐसा जोखिम मोल ले सकता था।खतरों से खेलना उनका शगल था। भोपाल में खतरों से खेलते हुए उन्होंने अपनी नौकरी गंवाई थी , फिर तो वे आगे – आगे और खतरे पीछे – पीछे । जीवन के अंतिम दिन तक यह खेल चलता रहा , पर वे हारे नहीं।
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सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001
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