जागते रहो : राजकपूर (1956)
जब हम कलाकार से यथार्थ के चित्रण की अपेक्षा रखते हैं तो उसमे अनिवार्यतः यह भी निहित होता है कि कला यथार्थ का पुनःसृजन करती है। कलाकार जीवन(और समाज) के भयावहता और जटिलता को दिखाने के लिए कई छूट और फैंटेसी का सहारा ले सकता है, लेता है। यह यथार्थ से विचलन नही बल्कि उसे सम्पूर्णता में दिखाने का उपक्रम है।बहुत बार यह रचनात्मकता की मांग भी होती है क्योंकि कला के हर माध्यम की अपनी सीमाएं भी होती हैं।
फ़िल्म ‘जागते रहो’ में परिवेश(समाज)की हक़ीक़त को दिखाने के लिए जो कथानक रचा गया है, और उसमे जगह-जगह जो छूट लिया गया है, वह दर्शक के तर्क को बाधित नही करता बल्कि दर्शक फ़िल्म की लय में उस पर ध्यान ही नही देता, और वह उसे सहज लगता है।एक आवासीय अपार्टमेंट में ‘चोर’ एक कमरे से दूसरे कमरे में रात भर भागते रहता है, और पकड़ में नही आता।यह तार्किक रूप से भले विश्वसनीय न हो मगर फ़िल्म में इसका रचनात्मक प्रस्तुतिकरण इसे सहज बना देता है।
इस एक रात की कहानी में समाज की विडम्बनाओं को, पाखंडों को जिस तरह से तरह से दिखाया गया है वह रचनात्मक सूझबूझ का परिचायक है।फ़िल्म में पचास के दशक के जिस यथार्थ को दिखाने का प्रयास किया गया है, देखा जाय तो आज के समय मे भी कुछ खास अंतर नही दिखाई देता। विवेकहीन भीड़ आज भी बिना जाँच-पड़ताल के किसी हत्या करने में नही हिचकिचाती। फ़िल्म का ‘चोर’ जो काम की तलाश में शहर आया एक व्यक्ति है, बिना किसी आश्रय के रात में भटक रहा है और प्यास से व्याकुल है, इधर -उधर भटककर पानी पीने एक आवासीय अपार्टमेंट के प्रांगण में दाखिल होता है तो उसे पुलिस द्वारा चोर घोषित कर शोर किया जाता है। वह डर में अपार्टमेंट में छुपता है। इस बीच अपार्टमेंट के सब लोग जाग जाते हैं और ‘चोर-चोर’ शोर करने लगते हैं। वह व्यक्ति शहरी जीवन के तौर-तरीकों से अपरिचित अत्यधिक भयाकुल है, और जान बचाने एक कमरे से दूसरे कमरे में भागता है। हथियार बन्द भीड़ उसे ढूँढते रहती है।
इस भागने के क्रम में वह अलग-अलग कमरों में दाखिल होता है, और वहां के छुपी हक़ीक़तों को देखता है। कहीं स्त्री-पुरूष का गुप्त प्रेम है तो कहीं शराबी पति का पत्नी पर अत्याचार।कहीं अवैध शराब की तस्करी है तो कहीं जुआ चल रहा है।कहीं बिना डिग्री का डॉक्टर है तो कहीं नकली नोट छपाई चल रही है। कहीं सेवादल के नाम पर चन्दा उगाही है।सभी एक दूसरे का राज़ जानते हैं। आपस मे प्रतिस्पर्धा है, दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ है मगर जानते हैं संतुलन में ही सबका हित है, इसलिए संकट मे न्यूनतम साझा भी करते हैं।
स्वार्थ भी लोगों को परस्पर जोड़ता है।मगर ‘चोर’ के आ जाने से इस ‘संतुलन’ में खलल पड़ गया है। वह अनजाने में सबको बेनकाब कर रहा है।उधर ‘नकाब’ को बचाये रखने के भरसक प्रयास किये जा रहे हैं। साम-दाम-दंड-भेद सारे प्रयास किये जा रहे हैं। सब विफल होने पर उसकी हत्या का प्रयास किया जाता है। इधर ‘चोर’ केवल अपनी जान बचाने का उपक्रम कर रहा है। वह गिड़गिड़ाता है, मगर कोई सुनने वाला नही इसलिए आख़िर में वह जान बचाने के लिए हथियार(डंडा)उठाता है तो एक क्षण के लिए सब ठिठकते हैं।इस तरह फ़िल्म में भीड़ के व्यवहार को बखूबी से दिखाया गया है जो अधिकतर अफ़वाह पर आधारित होता है।
फ़िल्म में जगह-जगह नाटकीय मोड़ आते हैं जो रात भर चलते रहते हैं।अंतिम रूप से इसका पटाक्षेप तब होता है जब सुबह होती है। ‘चोर’ एक घर के बालकनी में उतरता है, जहां एक छोटी बच्ची है। उसे आश्चर्य होता है कि बच्ची उससे भयभीत नही होती। रात-भर में पहली बार कोई उससे सहानुभूति दिखाता है। बच्ची उसके ज़ख्मो को सहलाती है उसे विश्वास दिलाती है कि तुम चोर नही हो तो डरते क्यों हो,इसलिए वह भी विचलित नही होता।पहली बार उसमे आत्मविश्वास आता है, और जब बच्ची उसके जाने के लिए दरवाज़ा खोलती है तो वह आत्मविश्वास के साथ कमरे और अपार्टमेंट से सहजता से बाहर आ जाता है। कोई उसे चोर के रूप में चिन्हांकित नही करता।पृष्टभूमि में “जागो मोहन प्यारे” गीत बजते रहता है। यह जागना दरअसल व्यक्ति के आत्मविश्वास का जागना ही है।
फ़िल्म में कई प्रसंग मार्मिक हैं, मसलन ‘चोर’ का प्यास से व्याकुल होना; कई जगह भय से आक्रांत होना। एक जगह जब वह एक साथ बहुत सारे नोट (यथार्थ में भले वह नकली हो) देखता है तो उसे सूंघता है, छूता है, ज्यादा से ज्यादा इकट्ठा करने का प्रयास करता है। ज़ाहिर इस स्थिति का कारण यही है की जीवन भर वह पैसे के लिए तरसा है। उतने पैसे शायद वह कभी देखा भी नही है।यह उसके लालच का नही अभाव का मार्मिक चित्र है।छोटी बच्ची जब उससे सहानुभूति दिखाती है तब भी वह भावविभोर हो जाता है। यहां फिल्मकार का उद्देश्य निश्चित रूप से यह भी दिखाना है कि बच्चो सी निष्कलुषता से हम बहुत दूर आ गये हैं।
फ़िल्म में कई जगह रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, टैगोर, गांधी, नेहरू की तस्वीर पृष्ठभूमि में है। यह जितना अच्छे लोगों के कमरे में है उससे कहीं अधिक काले कारनामे करने वालों के यहां दिखता है।यह आजादी के बाद के व्यापक वैचारिक और नैतिक विचलन को दिखाता है। इस तरह फ़िल्म छोटे से घटनाक्रम में भी समाज के कई विचलनों को दिखाती है। ऐसे विचलन भिन्न नाम और रूप में आज भी हैं।
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# अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
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