बांग्ला की नारी
प्रस्तुत है बांग्ला की नारी-कवि के सृजन-जगत की इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी । स्त्री-दर्पण इस श्रृंखला के माध्यम से बांग्ला के वर्तमान समय की कवियों के भाष्य को राष्ट्रीय स्तर पर पेश करने की पहल कर रहा है । आज की कवि हैं, बांग्ला की यशस्वी कवियत्री यशोधरा रायचौधरी, जिनकी कविताओं का अनुवाद लिपिका साहा ने किया है……..
★★यशोधरा रायचौधरी का परिचय★★
* जन्म : 1965
* दर्शन शास्त्र में प्रेसिडेन्सी कॉलेज से स्नातक एवं कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातोकत्तर ।
* फिलहाल केन्द्रीय सरकार के आडिट एन्ड अकाउन्टस विभाग में कार्यरत हैं ।
* यशोधरा को छुटपन से ही कविता से गहरा लगाव है । किशोर वय से ही वह कविता लिख रहीं हैं । कविता पर इनकी खास पकड़ है । बांग्ला की वरिष्ठ साहित्यकार यशोधरा रायचौधरी ने कविता के जरिए ही साहित्य की दुनिया में कदम रखा । 1992 से इनकी कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होती आई हैं । नारीवादी कवि के रूप में इनकी विशेष पहचान है ।
★यशोधरा रायचौधरी एक विशिष्ट अनुवादक भी हैं । फ्रेंच भाषा से इन्होंने कई महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद किया है ।
★पन्द्रह काव्य-संग्रह, छ: कहानी-संग्रह और दो किशोर-कथा की सृजक यशोधरा को कई पुरस्कारों एवं सम्मानों से भूषित किया जा चुका है।
★सम्मान एवं पुरस्कार : ‘पिशाचिनी’ काव्य-ग्रन्थ के लिए कृत्तिवास पुरस्कार ( 1998 ),
★काव्य-रचना के लिए बांग्ला अकादमी का अनिता-सुनीलकुमार बसु पुरस्कार ( 2006 ) एवं साहित्य सेतु पुरस्कार ( 2007 ),
★कहानी-संग्रह हेतु वर्ण परिचय साहित्य सम्मान।
★★★★★★★★★★★★★★★★
1-)भ्रूणहत्या के बाद
एक जरायु ने आठबार गर्भधारण किया था
आठबार ही कामयाब प्रसव-सन्तान । जना औलाद
एक जरायु सिर्फ एकबार,
पहला जरायु( 1901-1999 ) नानी का।
दूसरा जरायु ( 1965—-) नवासी का ।
अब हर महीने के , दसवें और ग्यारहवें दिन
दूसरा जरायु अपनी अजात सन्तान के लिए
अश्रु और रक्त पात किए जा रहा है ।
अब हर, चाहे और अनचाहे
गर्भपात के बाद
दूसरा जरायु हो चला है
हीनकमन्य
थका सा और
ऐनिमिक ।
2-) सीमन्तिनी मॉडल बनना चाहती थी
मॉडल बनना चाहती थी सीमन्तिनी
सीमन्तिनी मॉडल नहीं बन सकी ।
फूलेश्वर स्टेशन के पास
रेल की पटरी के बीच अटके पड़े हैं सीमन्तिनी के बाल
चुन्नी में फंसी सीमन्तिनी ट्रेन में लाइन पर लाइन
लिखती गई अपने काले नोटबुक में
नोटबुक में लिखकर रखा था रैम्प, नक्षत्र और उद्भास छटा
पुलिस ढूंढ रही है उस नोटबुक को
माँ सती सेलुन में वह पड़ा मिला
सीमन्तिनी के अलक, नाखून, भौंहे, होंठ
तितर-बितर होकर बिखरे पड़े हैं
लिलुआ, सोदपुर और नैहाटी जंक्शन में ।
मॉडल बनना चाहती थी सीमन्तिनी।
नहीं बन सकी माँडल वो सीमन्तिनी ।
ड्रमबिट, फूटलाइट,उड़ता चुम्बन
सीमन्तिनी ने चाहा था, फिलहाल के लिये आसमान की ओट में आसमाँ
सीमन्तनी के टुकड़े कमीज के नीचे से फूलेश्वर में उगे हैं घास
ऐसे बनीं सीमन्तिनी मैटिनी आइडियल
ऐसी ही सीमन्तिनी मातंगिनी*, सती ।
(* शहीद मातंगिनी हाजरा, दक्षकन्या सती या फिर एक सती)
3-) घाव
जितना दर्द खींच सको
उतना ही नीचे उतरो कुंए के
जितनी नीचे उतरती जा रही है रस्सी
उतना ही दर्द निकाल रही है बालटी
उठना और गिरना और आखिर तक जाना……
यह कलमकारी कह देगी घाव आज कितना है गहरा……
4-)चोट के नज्म और नज्म के चोट
अभी तो बस चला ही था ।
शुरुआत हुआ चलने का हमारा ।
चोट के नज्म और नज्म के चोट
सूई जानती है कैसे तुरपन कर-करके नीचे की ओर जाकर
फिर ऊपर की ओर आते हैं ।
जैसे ग्राफ का चढ़ना-उतरना,
कह देता है, जिन्दा पहरा देता दिल, पलों को सम्हाते हुए ।
अभी ही तो चल पड़ा था ।
शुरूआत चलने का हमारा ।
कुछ दिनों तक स्थिर और कुछ दिनों तक खामोश वो मोहल्ला ।
कुछ दिन बिना उपद्रव के, कुछ दिनों तक सन्नाटा
शायद नींद में डूब जाए ज्वालामुखी की गतिधारा ।
अभी चलने लगा, फिर भी,
चले नहीं, न जानें कब जोश
में आ जाए आस-पास सारा, तब उत्ताल हो उठे अन्दर न जानें कौन वे
खलबल खौले……अचानक चक्कर काटे धारण करत:
तुम्हारा ये परेशान करना और तुम्हारी ये डायनविद्या, गड़बड़ी, डर
तुम उठो, उत्थान की पदावली बनकर तीव्र, बेलगाम ।
5-)कसीदा मुक्ति
गहरे लगाव में लौट रही हूँ, गहरे खींचाव से दूर जाते-जाते
सिर्फ कसीदा किए जा रही हूँ मैं, मुक्तिरहित बेस्वाद-रिश्ते में
बड़ी-बड़ी कढ़ाई कर रही हूँ, सूई घूम रही है ऊपर-नीचे
सिलाई के धागे तक सुर्ख, चरम कुटिल
रक्ताभा में लगे हैं मेरे सारे दु:ख, कंकिर
सिलाई का मुखड़ा भर गा उठता है बार-बार, फिर
सूई लौट रही है अपने गर्त में, विक्षोभसंकुल…..
सूई का गमनपथ, कूद के गिरना
देखकर तुम हो जाते हो दिशाहारा
मत देखो, मत देखो उसका फन लहराकर खड़ा होना
दिखता नहीं उस धागे का चले जाना, यथासाध्य दूरी बनाकर ?
मूल रचना : यशोधरा रायचौधरी
अनुवाद : लिपिका साहा
★★मूल रचना★★
1-)ভ্রূণত্যাগের পর
একটি জরায়ু আটবার গর্ভধারণ করেছিল
আটবারই সফল সন্তানদান।
একটি জরায়ু, মাত্র একবার।
প্রথম জরায়ু ( ১৯০১-১৯৯৯), দিদিমার।
দ্বিতীয় জরায়ু ( ১৯৬৫- ), নাতনির।
এখন, প্রতি মাসের দশম ও একাদশ দিনে
দ্বিতীয় জরায়ুটি তার অজাত সন্তানদের জন্য
কান্না রক্তপাত করছে।
এখন, প্রতিটি বাঞ্ছিত ও অবাঞ্ছিত
গর্ভপাতের পর
দ্বিতীয় জরায়ুটি
হীনম্মন্য
ক্লান্ত
অ্যানিমিক।
2-)সীমন্তিনী মডেল হতে চেয়েছিল
সীমন্তিনী মডেল হতে চেয়েছিল
সীমন্তিনী মডেল হতে পারেনি।
ফুলেশ্বর স্টেশনের গায়ে
সীমন্তিনীর চুল লাইনের দাঁতে আটকে আছে।
চুন্নি আটকে থাকা সীমন্তিনী ট্রেনে লাইনের পর লাইন
লিখেছিল কালো নোটবুকে
নোটবুকে টুকেছিল র্যাম্প, নক্ষত্র ও উদ্ভাস
নোটবুকটি পুলিশ খুঁজেছে
পাওয়া গেছে মা সতী সেলুনে
সীমন্তিনীর চুল নখ ঠোঁট ভুরু
ছড়িয়ে ছিটিয়ে পড়ে আছে
লিলুয়ায় সোদপুরে নৈহাটি জংশনে
সীমন্তিনী মডেল হতে চেয়েছিল
সীমন্তিনী মডেল হতে পারেনি।
ড্রামবিট ফুটলাইট ডানাওয়ালা চুমু
সীমন্তিনী চেয়েছিল, আপাতত আকাশের আড়ালে আকাশ
সীমন্তিনীর টুকরো কামিজের মধ্য দিয়ে ফুলেশ্বরে গজিয়েছে ঘাস
সীমন্তিনী এভাবেই মাতিনি আইডল
সীমন্তিনী এভাবেই মাতঙ্গিনী, সতী।
3-)ক্ষত
যতটা বেদনা তুলতে পার
তত নিচে যাবে কুয়োটির
যত নিচে চলে যাচ্ছে দড়ি
বালতি তত বেদনা তুলেছে
ওঠা আর পড়া আর শেষ অব্দি যাওয়া…
এই লেখা বলে দেবে ক্ষত আজ কতটা গভীর
4-)ক্ষতের কবিতা আর কবিতার ক্ষত
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এই মাত্র চলেছিল।
আমাদের এইমাত্র চলা।
ক্ষতের কবিতা আর কবিতার ক্ষত।
সূচ জানে ফোঁড়ে ফোঁড়ে কীভাবে নিচের দিকে গিয়ে
আবার ওপরে উঠে আসা।
যেভাবে গ্রাফের ওঠা পড়া
বলে দেয় জীবন্ত পাহারা দিচ্ছে হৃৎপিন্ড, মুহূর্ত সামলিয়ে।
এইমাত্র চলেছিল।
আমাদের এইমাত্র চলা।
কিছুদিন স্থির আর কিছুদিনে নিস্তব্ধ সে পাড়া।
কিছুদিন চুপচাপ, কিছুদিন অশান্তিবিহীন।
এই বুঝি ঘুম যায় আগ্নেয়গিরির গতিধারা।
এইমাত্র চলে তবু
চলে না, কখন যেন সাড়া
পড়ে যায় পাড়াময়, তখন উত্তাল হয় ভেতরে যে কারা!
টগবগ ফুটতে থাকে… অতর্কিতে ঘুরতে থাকে ধারণ করতঃ
তোমার এই অশান্তি ও তোমার এই ডাকবিদ্যা, গোলযোগ, ভীতি
তুমি ওঠো, উত্থানের পদাবলী, তীব্র, বলগাছাড়া।
5-)সেলাই মুক্তি
তীব্র টানে ফিরে আসছি, তীব্র টানে দূরে যেতে যেতে
কেবলই সেলাই আমি করে যাচ্ছি, মুক্তিহীন সম্পর্কবিস্বাদে
বড় বড় ফোঁড় তুলছি, সূচ ঘুরছে ওপরে ও নীচে
সেলাইয়ের সুতোটুকু লালবর্ণ, চূড়ান্ত কুটিল
রক্তাভায় লেগে আছে আমার যাবৎ দুঃখ, ঢিল
সেলাইয়ের মুখড়াটুকু বার বার গেয়ে উঠে ফের
সূচ ফিরে যাচ্ছে তার নিজ গর্তে, বিক্ষোভসঙ্কুল…
সূচের গমনপথ, ঝাঁপ দিয়ে পড়া
দেখে তুমি হও দিশাহারা
দেখো না দেখো না তার ফণা তুলে উঠে দাঁড়ানোটি
দেখো না সুতোর সেই চলে যাওয়া যথাসাধ্য দূরত্ব অবধি।