रात ढलने के इंतज़ार में
द्रोपती का चीर हो गई आज की रात
कुचले हुए आन्दोलन के मंच जैसा सन्नाटा
जो घड़ी की टिक-टिक से भी नहीं टूटता, धीरे-धीरे उतर रहा है खून में
नसों में दौड़ रहा है|
इस रात में/अंधेरे से बेख़बर
ज़ुल्मो सितम की चादर ओढ़े
कितने ही लोग राजधानी का शुक्रिया करते
चैन से सोये होंगे
और कितने ही लोग जाग रहे होंगे
अपनी-अपनी चिंताओं में,
न्याय की अंधेरी सुरंग में भागते हुए
कुछ लोग भटक गए होंगे रास्ता
तो कुछ को मिल गया होगा
उम्रभर का ठिकाना
सियासत के खंडहर होते किले में |
विचारों के भोजन को विषाक्त करने के लिए
जहरीले कीड़ों ने
और पैने किये होंगे अपने दांत,
जो अंतड़ियों से होकर पहुंचना है
खाली पड़े दिमाग़ तक |
कितने ही लोगों ने
कृषि कानून लाने वाले
कालिया नाग के फन पर
भरतनाट्यम करते हुए
नींद में ही उखाड़ दिये होंगे विषदन्त
और मुस्कराते हुए करवट बदली होगी |
अंधेरा गहराता जा रहा है
पहचाने जाने के डर से मुक्त
षडयंत्रकारी घूम रहे हैं बाहर
मैं सिर्फ़ पदचाप सुन रहा हूँ |
पिछवाड़े खड़ा नीम
अभी-अभी थककर सोया है शायद
पर उसपर बैठा गिद्ध जाग रहा है अब भी
बीमार गाय खूंटे पर बंधी है
नींद को सिरहाने रख
पिता परेशानी में खटिया पर लेटे हैं
जिसका अंदाजा उनके बार-बार खांसने
उठ-बैठने से लगा रहा हूँ मैं |
गिद्ध के पंख फड़फड़ाने
और साख पर चोंच रगड़ने से विचलित पिता
गाय के लिए जाग रहे हैं
खेतों के लिए जाग रहे हैं
जैसे राजधानी की सीमाओं पर
जाग रहे हैं हज़ारों किसान |
कितने कम लोग
कितने ही लोगों के बारे में सोचते हुए
जुमलेबाज की सत्ता को जागते हुए
चुनौती देकर
पिता की तरह कर रहे हैं
सुबह होने का इंतज़ार |
-भानु प्रकाश रघुवंशी