कोदंड: रामकथा!
दिनेश सूत्रधार ‘मलंग’
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने भारत की राम रूपी आत्मा को आसेतु-हिमालय तक प्रकाशित किया. उन्होंने रामात्म का विन्यास करके निखिल विश्व को अनुपम उपहार दिया. उनके द्वारा रचित रामायण भारतीय सभ्यता का जीवंत दस्तावेज बनकर सदियों से जन-मानस को आलोड़ित कर रही है.
आलोड़न के इस क्रम में सनातन के उसी दस्तावेज को सुधी लेखक श्री देवांशु झा ने ‘कोदंड रामकथा’ के रूप में नव-भावों की बुनावट के साथ प्रस्तुत किया है. उनका यह उपन्यास श्रीराम के जीवन को युगानुकूल संदर्भों में व्याख्यायित करता है।
उपन्यास का शीर्षक ‘कोदंड’ अत्यंत प्रभावोत्पादक है. यह शब्द सम्पूर्ण कथावस्तु में जल भीतर जल की भाँति घुला हुआ है. चूँकि कथा का आद्यांत विस्तार धनुष की महिमा का बखान करता है इसलिए कोदंड शब्द से सम्पूर्ण आख्यान चक्षु-समक्ष साकार हो उठता है.
उपन्यास की पंक्तियाँ—
‘राम के प्रारब्ध में कंटकाकीर्ण पथ था ×××××××××× वे तो केवल चलने के लिए ही इस धरती पर आये थे’
इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि महापुरुषों का जीवन सुख-सुविधायें जुटाने के लिए नहीं होता.अपितु निष्काम- भाव से कर्तव्य पथ पर चलने के लिए होता है. वे इस हेतु जन्म नहीं लेते कि भोग-विलास में रत होकर विस्मरण की खोहों में लुप्त हो जाए. प्रत्युत वे तो राष्ट्र, समाज और धर्म के श्रेष्ठ मूल्यों का संरक्षण करने के लिए वसुधा पर अवतरित होते हैं.
उनका जीवन भोग-विलास की क्रीड़ा-भूमि से अधिक पीड़ा और संघर्ष का समर-क्षेत्र होता है जहाँ वे अधिकारों के बजाय कर्तव्यों की व्याप्ति के लिए खडग-हस्त होते हैं.
प्रारंभ में महर्षि वशिष्ठ द्वारा दशरथ को कहे गये ये वचन कि—
‘राम तो यायावर है. आपका पुत्र तो धर्म की स्थापना के लिए ही धरती पर आया है.’
सम्पूर्ण ‘कथा’ के दृढ़ स्तम्भ हैं. इन वचनों में मूल्य-स्थापन की महत उद्घोषणा है. ये वचन रामकथा की प्रासंगिकता के पुष्ट प्रमाण है।
उपन्यास का प्रारम्भ श्रीराम के जन्म के बजाय उनके द्वारा असुर-संहार करने से होना इस तथ्य को जोर देकर प्रतिष्ठित करता है कि व्यक्ति के महान् बनने और महान् माने जाने के लिए केवल जन्म लेना पर्याप्त नहीं होता प्रत्युत उसके लिए महान् कर्म संपादित करने होते हैं.
समाज के लिए दीपक बनकर पल-पल जलना होता है. धैर्य के पाटों में स्वयं को दलना होता है. संघर्ष की वह्नि में कूदकर निकष स्थापित करने होते हैं. और इन कसौटियों में व्यक्तित्व-कृतित्व ही सहायक बनते हैं, वंशत्व का वहाँ कोई योगदान नहीं होता.
‘कोदंड’ के राम स्थितप्रज्ञ हैं; उनकी प्रज्ञा समता में स्थित है. इसलिए भासमान जगत की प्रिय-अप्रिय कोई भी घटना उन्हें विचलित नहीं करती. संपत्ति हो चाहे विपत्ति उनकी बुद्धि सदा स्थिर है. और यह ‘स्थिरता ही उन्हें श्रेष्ठ पुरुष बनाती हैं’.
इस स्थिरता के संबल से वे योद्धा बनकर एक साथ अनेक मोर्चों पर न केवल लड़ते हैं, अपितु विजयी भी होते हैं (क्योंकि विजय होना ही उनके जीवन का अभीष्ट है.)
एक ओर वे नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए धैर्य धारण कर मर्यादा पुरुषोत्तम का सम्मान पाते हैं, तो दूसरी ओर सज्जन-सुरक्षा के लिए कोदंड उठाकर दुर्जन-दमन भी करते हैं. इधर आज्ञापालन की उज्ज्वल परम्परा स्थापित करते हैं तो उधर मित्रता का अमिट आख्यान रचते हैं.
श्रीराम दानव का नहीं, दानवता का प्रतिकार करने में जीवन की सार्थकता मानते हैं. उनका युद्ध मानव से नहीं मानवता विरोधी विचारों से हैं. वे अहंकारी की अपेक्षा अहंकार के विनाश हेतु प्रतिबद्ध है. इसीलिए जब बाली को स्वयं द्वारा किये गए दुष्कृत्यों का पश्चाताप हो जाता है; उसका अहंकार मिट जाता है, तो वह उनसे सम्मान व गरिमा पाता है.
‘कथा’ का भाषागत सौष्ठव राजगोपालाचारी जी की ‘महाभारत कथा’ के समान प्रवहमान है. वर्णन शैली में लालित्य और मृदुलता का झंकारयुक्त संगम है. कहन का अनूठा ढंग न्यूनतम पात्र-संवाद के साथ मिलकर मणिकांचन योग निर्मित करता है जिससे ‘कथा’ शब्द की विशिष्टता प्रस्फुटित होती है. पाठक के मनो-मुकुळ खिलखिला उठते हैं.
विद्वानों के अनुसार साहित्य व प्रयोग, दोनों नाभिनालबद्ध है. जिस साहित्य में नव-प्रयोग की कूवत नहीं होती उस साहित्य की जीवनी शक्ति चूक जाती है. ऐसा साहित्य जड़ होकर भावों के भवन में अप्रासंगिक हो जाता है. लेखक इस तथ्य के प्रति सजग है. अतः ‘रामकथा’ में इस शाश्वत नाते को पर्याप्त संजोकर रखा गया है. कथानक में शतधा स्थल ऐसे हैं जहाँ पर इस नाते की स्नेह भरी गर्माहट दृष्टिगोचर होती है.
जैसे ताड़का वध प्रसंग में ‘बाण का छाती में छपना’,‘स्मृतियों का नदी सा बहना’ अशोक वाटिका प्रसंग में ‘अश्रुओं का शीर्ण नदी की धार की तरह सूख जाना’ ‘तारिकाओं का पानी के दर्पण पर तैरना’ आदि अनेक उदाहरण हैं.
लेखक ने बिम्ब निर्माण, विशेषकर ध्वनि-बिम्बों में, प्रयोगधर्मिता बरकरार रखते हुए अद्भुत छटा निर्मित की है. कथा के बिम्ब सहजता की ओप से युक्त हैं. प्रत्येक बिम्ब में सुन्दरता की जगमगाहट है.
अवलोकनार्थ—
‘क्लांत शान्ति में कर्ररर की एक आवृत्ति खींचती चली गयी कान्तार को कंपाती हुई’
‘हवा में राम राम तैरता रहा जैसे कोई करुण ध्वनि प्रकृति में घुल गयी हो.’
इनके अलावा ‘दादुर के क्लांत स्वर का बीच गगन को चीरकर चुप हो जाना’, ‘धन्न की ध्वनि का तरंगित होकर वृक्षों को सिहराना’, ‘राम के नाद का संघनित होकर दीवारों से लौट लौट आना’ आदि भी उल्लेखनीय है.
कथानक का आधार वाल्मीकि रामायण होते हुए भी कहीं-कहीं ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘मानस’ के भाव-सम्पुट परिलक्षित होते हैं, किन्तु इनसे न तो प्रवाह अवरुद्ध हुआ है और न ही कसावट में कोई कमी आयी है.
पुनश्चः, उपन्यास अपने कथानक और शिल्प दोनों आयामों पर न केवल खरा उतरता है अपितु नयी जमीन भी तलाशता है.
उथल-पुथल के इस युग में शक्ति संचय व मर्यादित आचरण जैसी महती आवश्यकताओं को पूर्णतः रेखांकित करना इस उपन्यास की अन्यतम विशेषता है।