संवेदनीयता को नुकीलापन देती लघुकथाएँ
संतोष श्रीवास्तव की कतिपय लघु कथाओं से साक्षात्कार समाजशास्त्र के कई पन्नों को दृश्यात्मक बनाता है। कहीं मामूली सा जीवन जीती कामवाली का चमकदार हौसला है। कहीं पुरानी प्रथाओं के नए-नए अर्थ खोजने वाला पत्नीत्व है तो कहीं सांसारिक मोहमाया में आ आसक्ति अनासक्ति के द्वंद का फलसफा है। कहीं दांपत्य जीवन में सांवले गोरे के सौंदर्य बोध का अतिक्रमण करता जीवन व्यवहारों का सौंदर्य है। कहीं परिवार का पेट पालने के चक्कर में अपनी अस्मिता को ठेस पहुंचाती विवशता का दर्द है ।कहीं सांप्रदायिक नजरिए में अपना पराया करती मजहबी मानसिकता का त्रासद परिदृश्य है। कहीं तीन तलाक की क़ानूनी लड़ाईयों में सिसकता दांपत्य है ।कहीं प्रेम के अवांछित प्रसंगों में नारी को ही लांछित करती पुरुष सामाजिकता का दंश है ।नए तकनीकी आविष्कारों की रोबोट संस्कृति के समानांतर पति संचालित पत्नी की रोबोटी जैविकता है। कहीं अपने ही भ्रष्ट कृत्यों से अपने ही खून की मौत की शोकांतिका है और भी कितने ही कोण होंगे इस संग्रह की लघु कथाओं के ।
समकालीन जीवन ,अच्छे बुरे, संगत विसंगत ,पुराने नए जैविक तकनीकी स्पर्शों अंतर्द्वंदों की मनःस्थितियों जीविका के संघर्षों को नुकीले अंत से बेधते होंगे।
“मंगलसूत्र” यूं तो स्त्री के दांपत्य और सौभाग्य का पारंपरिक प्रतीक है। पर वही निम्न वर्गीय मंदा के जीवन की चुभन है। झोपड़ी में दारू पियेला पति की मार और घरों में काम करने वाली बाई की तरह मिलने वाली मजदूरी से मंदा इतनी त्रस्त है कि मंगलसूत्र की चुभन पति के मरते ही स्वाभिमान में सुखांत बन जाती है।
जीवन की रोजमर्रा त्रासदी मंगलसूत्र बिक जाने के बाद इस मर्मान्तक फुसफुसाहट में व्यक्त होती है ।
“भौत चुभता था ताई ।”
यही मंगलसूत्र प्रतीक है पारंपरिक दांपत्य का और यही चरमांत में त्रासद जीवन की दासता से मुक्ति का भी।
लेखिका ने मंदा के अति निम्न वर्गीय कामकाजी चरित्र में भी अस्मिता और मातृत्व के परिश्रम की कमाई और स्वाभिमान के गुण इस तरह उगाए हैं कि वह समाज सेविका मनोरमा की नजरों में भी बड़ी बन गई है ।बड़े सेठ द्वारा फैक्ट्री में काम और भेजी गई मदद को भी वह विनम्रता से इंकार कर देती है और घरों में काम से मिलने वाली कमाई से ही घर चलाने की सामर्थ्य दिखाती है ।बनावट भी बेहतर है लघुकथा की ,क्योंकि मंदा में मातृत्व और बच्चों के सुख का ख्याल भी बहुत गहरा है ।पति की दारू खर्ची की बचत और मंगलसूत्र बेचकर बच्चों की वर्षों से दबी इच्छाओं की पूर्ति उसके वात्सल्य को स्पर्शिल बना देती है। परिवेश की बुनावट उस लघुकथा को जितना यथार्थ रूप देती है
मुंबईया हिंदी इन अनपढ़ पात्र की जबान पर चढ़कर मंदा की अंतड़ियों के दर्द को खासा उभार देती है । यो कथा गति में पेच है सेठ द्वारा भेजी गई मदद और नौकरी के, पर एक निर्णायक सा भाव उस मामूली से पात्र में इस तरह चुना गया है कि मंदा का चरित्र और लघुकथा का चरमंत व्यंजक बन जाते हैं। शीर्षक और लघुकथा का अंत एक सुगठित विन्यास बन गए हैं।
” सती” लघुकथा शीर्षक से जितनी पुरानी लगती है उतने ही नए परिवेश में जीवन की सार्थकता का नया अंदाज। सतीत्व को नया अर्थ देने वाली इस लघुकथा में जीवन परक दायित्व को चरम मूल्य की प्रतिष्ठा मिली है ।बीमार पति की सेवा में एक स्त्री भोगकाल के उन सभी सवालों को डिजाइनर कपड़ों के प्रदर्शनी अंदाज को, मॉल की चहलकदमियों को, गहनों के आकर्षण प्रदर्शन और भविष्य की चिंता किए बगैर बैंक अकाउंट को शून्य पर लाकर त्याग की प्रतिमूर्ति बन जाती है ।भोगकाल की सहेलियां उसके दुख दर्द में सहायक न बनकर इस परिस्थिति में पिज्जा बर्गर के स्वाद और मॉल थिएटर की मस्ती का बखान फोन पर करती हैं। लघुकथा को पति की तेरहवीं की शोकांतिका के परिदृश्य में बुना गया है। रिश्तेदारों की मौखिक तसल्लियों के बीच लेखिका ने दो विरोधी रंगों वाले परिदृश्य को चुना है। जहां सुखान्तिका के समय के स्वाद, मॉल थिएटर हैं ।पर दुखांततरी में इन सब पर कसाव्दार नियंत्रण पति सेवा को भी जीवन मूल्य बना देता है। सखियों की लप-लपाती स्वादु जबाने भी उसे भटकाती नहीं है। बल्कि सब कुछ स्वाहा करके भी वर्षों तक पति की सेवा ही चरम बन जाती है ।लेखिका इस चरम को लघुकथा की पंच लाइन बना देती है नए अर्थ भरकर ।डॉक्टर कहता है
“आप तो सती हैं ,केवल पति के साथ चिता में जलने से ही सती नहीं होती।” विरोधी परिदृश्यों की योजना, सहेलियों रिश्तेदारों की अन्यमनस्कता, अपने ही जीवन के सुखद दुखद अनुभूतियों का विन्यास इस लघुकथा को सपाट नहीं होने देता। निश्चय ही मूल्यपरक है यह लघुकथा।
“भेंटक्वार्टर” अपने घर के प्रति आसक्ति अनासक्ति का द्वंद है ।वृद्धावस्था में अपने घर के प्रति मोह इस कदर हावी है सत्संगी महिला में कि वह इसी फिक्र में है कि उसके मरने के बाद रघु द्वारा दिलाया गया घर धार्मिक संस्थान का हो जाएगा। ईंट ईंट से मोह मगर शर्त यही कि कोई सत्संगी ही वहां रहकर मकान मालिक बन बना रह सकता है।
लेखिका ने इस वृद्ध सत्संगी महिला की बीमारी, उसकी सांसों के उतार-चढ़ाव जिंदगी की घटती हुई प्रत्याशा का दृश्य इस तरह बुना है कि घर के प्रति आसक्ति बढ़ती चली जाती है।
पर कोई सत्संगी वारिस नहीं है। बड़ी मुश्किल से खरीदे घर की, मगर उसे धार्मिक संस्थान को देने में यही मोह रेशा रेशा काबिज है लेकिन कथागति और अंतर्द्वंद तब नया मोड़ लेते हैं जब नाटक का विजुअल संदेश वृद्धावस्था की गिनी हुई सांसों में इस तरह घुल जाता है कि यही वृद्व नारी सर्वथा अनासक्त होकर घर का दान करने के लिए सहयोगी को ट्रस्ट ऑफिस में फॉर्म भरवा कर दान करने के लिए कहती है।
कथानक में यही द्वंद का भंवर फल सफे की तरह बुना गया है। सत्संगी और निरूपाय मन भी कितना अनासक्त ।मगर जब कोई प्रेरक मिल जाता है तो अनासक्ति कुलांचे भरती है त्याग के लिए।
“असली आनंद” लघुकथा देह सौंदर्य और व्यवहार सौंदर्य के समांतर अनुभव से उपजा विवेक है ।फ्लैशबैक की तरह चौंकाने वाली यह लघुकथा इस वाक्य से शुरू होकर कौतूहल पैदा करती है।
” मां मुझे वन्दना पसंद है “दरअसल सांवले रंग की हीन भावना और गौर वर्ण की सौन्दर्य ग्रंथि जब लॉक डाउन की व्यवस्था में व्यवहार की आत्मीयता से साक्षात्कार करती है तो सांवले पन की ग्रंथि हवा हो जाती है युवक में। अपनी मां को पहली नजर में वन्दना को नापसंद करने वाला युवा कुछ दिन बाद यकायक अपनी मां को वन्दना को पसंद करने के लिए फोन करता है। इससे न केवल मां को आश्चर्य होता है बल्कि संस्कार और शालीनता का सौंदर्यशास्त्र सांवले रंग पर अतिक्रमण कर जाता है। देह के सौन्दर्य की तुलना में संस्कारों का सौंदर्य न केवल अंतरंग है बल्कि दांपत्य के भविष्य की चांदनी भी ।अलबत्ता यह संयोग ही था लॉकडाउन में व्यवहार में झांकने का। पर संदेश तो है ही कि देह रंग ही प्रेम का प्रतिमान नहीं ।व्यवहार और संवाद के शालीन रंग देह रंग की तुलना में अधिक आकर्षक एवं व्यक्तित्व प्रदर्शक होते हैं। दांपत्य के उजले रंग व्यवहार में लंबायमान रहते हैं ।युवा युवती के बीच के संवादों से यह लघुकथा आकर्षण को उपजाती है और उसका संक्रमण युवक का नजरिया ही बदल देता है। मनोग्रन्थि और व्यक्तित्व के आंतरिक गुणों को खोलने में यह लघुकथा प्रभावी है।
“चिता” का कथानक तो सामान्य है पर उसके भीतर व्यवस्था के रंग जरूर हैं। बड़ी सेठानी के बीमारी में हवेली में मालिश करने आने वाली बाई सेठ के बद -रंगों को सहन करती रहती है। सिर्फ इसलिए कि 4 बच्चों का पेट पालने के लिए उसके आदमी की आय अपर्याप्त है लेकिन सेठानी के मरने के बाद उसकी चिंता काम छूट जाने की है। लघुकथा का शीर्षक इस मायने में बहुत व्यंजक है। एक तरफ सेठानी की चिता जल रही है ।दूसरी तरफ मालिश वाली जीवित ही आर्थिक चिंता में जल रही है। अलबत्ता इस लघुकथा का अंत भी आर्थिक व्यवस्था की चिंता के ताप में तब लपट सा बन जाता है जब सारे परिदृश्य पर चौकस नजर रखने वाली छोटी सेठानी उसे घर की सीढ़ियों पर ही रोक कर कहती है
“अपने घर जा । अम्माजी रही नहीं तो तेरा यहां क्या काम ।”
विवशता में चारित्रिक स्खलन और सारे कारनामों पर सांकेतिक पर्दा डालने का चातुर्य इस लघुकथा को व्यंजक बना देता है।
“काला इतवार” लघुकथा की जमीन मजहबी रंगों में खून से सनी है। हिंदुओं में हिंदू नाम और मुस्लिमों में मुस्लिम नाम से गाना गाते हुए भीख मांगने वाला अहमद आखिरकार सारे सांप्रदायिक हो हल्ले में अपनी ही जात वाले से मार दिया जाता है पराई जात का समझ कर ।पेट के लिए भीख मजहब नहीं देखती पर मजहबी रंग पेट की भूख को कहां समझ पाते हैं। संवादी शैली में रची इस लघुकथा में आवेश है, तकरार है, मजहबी भाषा के ख़ौलते तेवर हैं, मारकाट की धार है, नफरतों की झन्नाहट है और अंत भी चौंकाने वाला ।संदेश यही कि नफरतों की चाकूई धारें अपनों को ही चीर देती हैं। अशोक हो या अहमद आखिर खून तो इंसानी है ।और वह भी निहत्थे भिखारी बालक का ।पेट भरने के लिए निकला युवा संगीत की थाप से ही कुछ बटोर लेता है पेट के लिए लेकिन मजहबी रंग अपने ही पेट को चाकू
दिखा जाते हैं कत्ल के काले इतवार में ।शिल्प और संवेदना में यह लघुकथा प्रभावी है। इंसानियत के दर्जे को घटाकर मजहबी हैवानियत पर प्रहार करने के लिए। शीर्षकों के चयन में लेखिका बहुत चौकस है।
“तीस साल बाद” लघुकथा तीन तलाक पर केंद्रित है ।जुबेदा के अब्बा और अम्मा 30 साल तक कानूनी पेंच लड़ाते रहे सिर्फ इसलिए कि लड़की पैदा हुई थी। वही लड़की जुबेदा 30 साल तक अम्मी की लड़ाई को संगठन और कानून से लड़ती रही ।जब जीत हुई तो अम्मा के मुंह में मिठाई का टुकड़ा रख दिया। एक सधे हुए वाक्य ने तीस साल की तकलीफ देह यात्रा को इस तरह रख दिया मिठाई का टुकड़ा अम्मा के मुंह में तकलीफदेह अतीत सहित घुलने लगा। लघुकथा यों तो सामान्य है पर उसके अंतिम वाक्य में एक रासायनिक अनुभूति लघुकथा को संवेदनीय बना देती है ।
“पर्दा गिर चुका था” लघुकथा पति पत्नी और प्रेमी के त्रिकोण की है ।प्रेमी की हत्या कर दी गई पर समस्या सामाजिक मनोविज्ञान की है ।पति द्वारा पत्नी के प्रेमी राहुल की हत्या पर न राहुल के लिए उंगली उठती है न हत्या के लिए पति पर। उठती हुई सामाजिक उंगलियां यही कहती हैं
“हद है ब्याहता को यह सब क्या शोभा देता है।”
न राहुल के लिए शोक न हत्यारे पति पर कोई तंज।हत्या और उम्रकैद या फांसी के बीच एक नारी की कातर मनःस्थिति है। सामाजिक नजरों में लांछनों को सहने और जूझने की ।लेखिका ने पुरुषवादी समाज के चरित्र को जितना लक्षित किया है उतना ही पुरुषवादी समाज द्वारा नारी के चरित्र के मर्यादाओं को गढ़ने की एकांतिक मनोवृत्ति को भी। नारी के अंत स्थल में एक उदास कारुणिक सी व्यथा की लहरों का काव्यात्मक स्पर्श देकर इस लघुकथा को भाव संवेदी बना दिया है।
“रोबोट” की जमीन टेक्निक और ह्यूमन टच की है ।अमेरिका से लौटा पति जिस शान से होटलों में रोबोट सेवा का चित्र खींचता है वह पत्नी के लिए करिश्माई है। कस्टमाइज्ड टेबल कुर्सी कंप्यूटर लॉग, रोबोटिक सरवर और 74 लाख में मशीनी सेवक। पर यही पति भारत में खाना खाते हुए पत्नी से कहता है -“यार पापड़ और हरी मिर्च भी लाओ न ।”
लिहाजा बिन लागत खर्च की यह पत्नी ही जीवित रोबोट है। सारे आदेशों का प्रफुल्ल मनोभावों के स्पर्श के साथ पालन के लिए ।रोबोट कथा का मशीनी अंदाज और पति का पत्नी के लिए आदेशात्मक सा अंदाज लघुकथा का चरमांत है। बहुत सधे हुए तरीके और बॉडी लैंग्वेज के साथ मनोभावों को जोड़ देने के कौशल से प्रभावी बन जाता है -जाती हुई पत्नी को देख उस ने पलकें झपकाईं।
“मिलावट का जहर “अवसाद की मनो व्यथा है पर भ्रष्टाचार में अपने ही पुत्र को खो देने की व्यथा इसे संघनित कर देती है ।सीमेंट की मिलावट से बने नदी के पुल के ढह जाने से छह लोगों की मृत्यु कसक नहीं बन पाती। महज खबर बन जाती है ।अलबत्ता जांच और मुकदमे बाजी के साथ सजा के विचार फड़फड़ाने लगते हैं लेकिन थाने से आई फ़ोन की घंटी रोम रोम में बजती है। आपके बेटे रोहित की बाइक पुल टूटने से दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। मौके पर ही रोहित की मृत्यु हो गई। यह फोन की घंटी ही वातावरण और व्यथा को इतना गहरा कर देती है कि जीत के सिवा कुछ बचता नहीं। लघुकथा की बुनावट में इस कारुणिक दृश्य को संजोने की विजुअल भाषा है।
संतोष जी की लघुकथाएं बिन कथानक के नहीं आती इसलिए मोड के वक्रिल पंथ और बाहर भीतर के द्वंद यथार्थ एवं मनोविज्ञान को अनदेखा नहीं करती ।कुत्सित यथार्थ भी आ जाए पर दिशा तो मूल्यपरक ही रहती है ।जिस परिवेश को वे छूती हैं उस परिवेश के बोली ,भूगोल को सदैव हिलगाय रखने के कारण वे सहज और स्पर्शिल बन जाती हैं ।अनावश्यक पंच लाइनों के चमत्कार की अपेक्षा वे लघुकथाओं को उस शीर्ष तक पहुंचाकर कोई वाक्य जरूर जड़ देती हैं जो लघुकथाओं की संवेदनीयता को नुकीलापन दे सके ।संवादों के जरिए कथा विन्यास को जीवंत और चरित्रों के भीतर झांकने का कौशल भी इन लघुकथाओं की विशिष्टता बन जाता है ।ये लघुकथाएं सपाटपन से ,अनावश्यक उलझाव से कथानकीय पेंचों से मुक्त हैं इसीलिए इनके संदेश और संवेदनाएं संप्रेषणीय हैं ।
बी एल आच्छा